
खाली खजाना, भारी बोझ— कर्ज पर निर्भर होती जा रही है बंगाल सरकार
एक ओर राज्य सरकार कल्याण योजनाओं के जरिए जनता तक पहुंचने की कोशिश कर रही है, दूसरी ओर न्यायपालिका उसे वित्तीय जवाबदेही की राह पर बनाए रखने की कोशिश कर रही है। आगामी महीनों में यह देखना अहम होगा कि क्या केंद्र सरकार की योजनाओं में फिर से फंडिंग होती है या बंगाल सरकार को और अधिक कर्ज का सहारा लेना पड़ सकता है।
आर्थिक तंगी से जूझ रही पश्चिम बंगाल की तृणमूल कांग्रेस सरकार के सामने न्यायपालिका एक दोहरी भूमिका निभा रही है। एक ओर वह उसके लिए राहत लेकर आ रही है। वहीं दूसरी ओर वह वित्तीय दबाव भी बढ़ा रही है। एक ओर जहां सरकार कल्याणकारी योजनाओं पर खर्च बढ़ा रही है। वहीं वित्तीय अनुशासन की जरूरत भी बढ़ती जा रही है।
मनरेगा पर हाई कोर्ट का आदेश
पिछले सप्ताह कलकत्ता हाई कोर्ट ने केंद्र सरकार को आदेश दिया कि वह 1 अगस्त से पश्चिम बंगाल में मनरेगा (MGNREGA) योजना को फिर से शुरू करे। यह योजना दिसंबर 2021 से बंद थी। इस योजना के निलंबन के बाद राज्य सरकार ने अपना खुद का कार्यक्रम 'कर्मश्री प्रकल्प' शुरू किया था, जिसके तहत हर जॉब कार्डधारी परिवार को एक वित्तीय वर्ष में कम से कम 50 दिन का रोज़गार देने का लक्ष्य रखा गया था। सरकार के मुताबिक, पिछले वित्तीय वर्ष में इस योजना के तहत ₹12,355 करोड़ खर्च कर 61 करोड़ कार्यदिवस सृजित किए गए और 75 लाख लोगों को रोज़गार मिला।
इस वर्ष पंचायत और ग्रामीण विकास विभाग ने 52 विभागों के साथ मिलकर एक करोड़ जॉब कार्डधारकों को रोजगार देने का लक्ष्य रखा था। एक वरिष्ठ अधिकारी के अनुसार, अगर मनरेगा फिर से शुरू होता है तो इससे राज्य सरकार के खर्च का बोझ कुछ हद तक कम होगा।
डीए बकाया का आदेश
हाई कोर्ट से राहत मिलने से कुछ ही हफ्ते पहले सुप्रीम कोर्ट ने मई में राज्य सरकार को राज्य कर्मचारियों को डीए (DA) बकाया का 25% भुगतान जून तक करने का आदेश दिया था। ये बकाया जुलाई 2009 से दिसंबर 2019 तक की अवधि से संबंधित हैं और लगभग ₹40,000 करोड़ के हैं। आदेशानुसार सरकार को ₹10,000 करोड़ जून में चुकाने होंगे। एक वरिष्ठ अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर स्वीकार किया कि नियमित खर्चों के बाद राज्य के खजाने में इतनी रकम नहीं थी कि इस आकस्मिक आदेश को पूरा किया जा सके।
भारी उधारी
इस दबाव के चलते सरकार को इस महीने दो बार कर्ज लेना पड़ा। पहले 20-वर्षीय बांड के माध्यम से ₹2,000 करोड़ जुटाए गए। फिर 22-वर्षीय राज्य प्रतिभूतियों (SGS) के ज़रिए और ₹2,000 करोड़ लिए गए। अब सरकार 24 जून को सॉवरेन गोल्ड बॉन्ड (SGB) की नीलामी में भाग लेकर ₹3,500 करोड़ और जुटाने की तैयारी में है। इस उधारी की होड़ ने संदेह को जन्म दिया कि ये धनराशि शायद अधोसंरचना की बजाय डीए बकाया चुकाने में खर्च की जाएगी। इससे राज्य की राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन अधिनियम (FRBM Act) के तहत अनुपालन प्रभावित हो सकता है।
सरकार को पहले ही अपने ऋण-जीएसडीपी अनुपात को 2030 तक 38% तक सीमित रखने के लक्ष्य में संशोधन करना पड़ा है। वर्तमान में राज्य का ऋण-से-जीडीपी अनुपात 38% है और यह और बढ़ सकता है। इससे अधिक ऋण बोझ केवल जम्मू-कश्मीर, नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, मिजोरम और सिक्किम पर है।
मनरेगा पर अदालत की सख्ती
कॉमनवेल्थ फेलो और राजनीतिक विश्लेषक देबाशीष चक्रवर्ती ने चेतावनी दी कि अगर सरकार ने संवैधानिक दायरे से बाहर जाकर मंदिर निर्माण जैसी गैर-प्राथमिक परियोजनाओं पर खर्च जारी रखा तो राज्य गंभीर कर्ज के जाल में फंस सकता है। हालांकि, राज्य सरकार को हाई कोर्ट के मनरेगा पुनः शुरू करने के आदेश से उम्मीद है कि केंद्र की बंद की गई अन्य योजनाओं में भी फिर से फंड मिलने का रास्ता खुलेगा। उदाहरण के तौर पर, केंद्र ने राज्य में प्रधानमंत्री आवास योजना (PMAY) के लिए फंडिंग रोक दी है, जिसके बाद राज्य सरकार ने ₹15,457 करोड़ खर्च कर 12 लाख लाभार्थियों को आवास सुविधा दी है। राज्य को अब अगले विधानसभा चुनाव से पहले 16 लाख और लाभार्थियों को योजना का लाभ देने के लिए लगभग ₹19,000 करोड़ और खर्च करने होंगे।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के 2016 भर्ती घोटाले पर दिए गए फैसले के चलते जिन गैर-शिक्षकीय कर्मचारियों की नौकरियां गईं, उन्हें राज्य सरकार द्वारा दी जा रही आर्थिक सहायता पर कलकत्ता हाई कोर्ट ने रोक लगा दी। यह आदेश राज्य सरकार के लिए एक ओर वित्तीय राहत है, वहीं दूसरी ओर राजनीतिक संकट भी।