वो 5 कारण क्यों नीतीश के नेतृत्व वाली एनडीए को बिहार में सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ सकता है
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दो दशकों तक सत्ता में रहने के बावजूद, नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार बिहार में गरीबी और बेरोज़गारी जैसी गंभीर समस्याओं को पूरी तरह हल नहीं कर पाई है। (फ़ाइल फ़ोटो)

वो 5 कारण क्यों नीतीश के नेतृत्व वाली एनडीए को बिहार में सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ सकता है

नीतीश कुमार के राजनीतिक पलटवार, भ्रष्टाचार घोटाले, बेरोज़गारी और बड़े पैमाने पर पलायन — ये सभी कारक सत्ता गठबंधन के लिए बड़ी चुनौती बन सकते हैं।


जैसे-जैसे बिहार में चुनाव की तारीख़ नज़दीक आ रही है, सत्ता विरोधी माहौल और मतदाता थकान की भावना एनडीए सरकार पर “दमोक्लेस की तलवार” की तरह लटक रही है, जो एक बार फिर सत्ता में वापसी की कोशिश में है। राज्य में दो चरणों में मतदान होगा — 6 और 11 नवंबर को, जबकि नतीजे 14 नवंबर को आने की संभावना है।

मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, 2020 के विधानसभा चुनावों से ही बिहार के मतदाताओं में सत्ता-विरोधी भावनाएं मौजूद हैं। उस चुनाव में एनडीए को 125 सीटें मिली थीं, जबकि महागठबंधन ने 110 सीटें जीती थीं। आरजेडी ने 75 सीटों के साथ बीजेपी (74 सीटें) से एक सीट अधिक हासिल की थी।

यहां देखिए वे प्रमुख मुद्दे जो एनडीए की जीत की संभावनाओं को कमजोर कर सकते हैं:

1. नीतीश कुमार के राजनीतिक पलटवार

लगभग दो दशकों तक बिहार की सत्ता संभालने के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को अब सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ रहा है — खासकर उनके बार-बार राजनीतिक गठबंधन बदलने की प्रवृत्ति के कारण, जिसने उनकी विश्वसनीयता को गहरा नुकसान पहुंचाया है।

बिहार के सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहने वाले नीतीश कुमार ने 24 नवंबर 2005 को शपथ ली थी और तब से अब तक मुख्यमंत्री पद पर बने हुए हैं — बीच में मई 2014 से फरवरी 2015 के बीच केवल नौ महीनों का छोटा सा अंतराल रहा।

एक समय उन्हें ‘सुशासन बाबू’ कहा जाता था, क्योंकि उन्होंने लालू-राबड़ी राज के बाद अपराध और भ्रष्टाचार पर काबू पाकर बिहार को विकास की राह पर लाने की कोशिश की थी। उन्होंने बेहतर शासन, बुनियादी ढांचे, सामाजिक कल्याण, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार के जरिए राज्य की सूरत बदली थी।

लेकिन, सत्ता में बने रहने के लिए बार-बार पाला बदलने की उनकी आदत ने उनकी छवि को गहरा आघात पहुंचाया है। यही वजह है कि आज उन्हें कई लोग ‘पलटू राम’ के नाम से पुकारते हैं।

2005 में उन्होंने बीजेपी के साथ मिलकर स्थिर एनडीए सरकार बनाई, लेकिन 2013 में गठबंधन तोड़ दिया।

2015 में आरजेडी और कांग्रेस के साथ मिलकर महागठबंधन बनाया और मुख्यमंत्री बने।

2017 में उन्होंने फिर गठबंधन तोड़कर एनडीए में वापसी की, फिर 2022 में एनडीए से अलग हो गए।

2024 में उन्होंने महागठबंधन भी छोड़कर फिर एनडीए में वापसी की।

इन लगातार राजनीतिक पलटवारों और जनता की थकान ने एनडीए के प्रति निराशा को और बढ़ा दिया है — अब मतदाता नए चेहरों की तलाश में हैं।

RJD के तेजस्वी यादव, जो कभी नीतीश के डिप्टी रहे थे और अब महागठबंधन के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार हैं, अपने परिवार पर लगे “जंगलराज” के आरोपों के बावजूद सभी राजनीतिक मानदंडों पर खरे उतरते हैं। वहीं 74 वर्षीय नीतीश कुमार के शारीरिक और मानसिक रूप से कमजोर होने की अफवाहें और एनडीए के भीतर उनकी घटती पकड़ — जहाँ सरकार एक आंतरिक गुट के नियंत्रण में बताई जा रही है — स्थिति को और कठिन बनाती हैं।

जेडीयू प्रमुख के पास उत्तराधिकार की कोई स्पष्ट योजना नहीं है। उन्होंने अपना राजनीतिक करियर वंशवाद-विरोधी छवि पर खड़ा किया है, इसलिए पार्टी नेताओं की मांगों के बावजूद वे अपने बेटे निशांत कुमार को जिम्मेदारी देने से हिचक रहे हैं।

2. मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के आरोप

चुनाव से पहले विपक्ष ने नीतीश के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार पर भ्रष्टाचार के कई आरोप लगाए हैं, जो जनमत को प्रभावित कर सकते हैं। सबसे गंभीर आरोप जन सुराज पार्टी के नेता प्रशांत किशोर की ओर से आए हैं।

राजनीतिक रणनीतिकार से नेता बने किशोर ने उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी और मंत्री अशोक चौधरी सहित कई मंत्रियों पर बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए और उनके इस्तीफे की मांग की है।

किशोर का आरोप है कि जेडीयू नेता अशोक चौधरी ने पिछले तीन वर्षों में 200 करोड़ रुपये की संपत्ति जुटाई है, और अवैध तरीकों से 500 करोड़ की और संपत्ति हासिल की है। उन्होंने यह भी कहा कि सम्राट चौधरी 1995 के एक हत्या मामले के आरोपी हैं और उन्हें तुरंत गिरफ्तार किया जाना चाहिए, न कि उपमुख्यमंत्री बने रहना चाहिए।

किशोर का कहना है कि ट्रायल के दौरान सम्राट ने खुद को नाबालिग बताकर फर्जी दस्तावेजों के ज़रिए जमानत ली थी। हालांकि, उनके 2020 के चुनावी हलफनामे के अनुसार, 1995 में उनकी उम्र 26 वर्ष थी — यानी वे नाबालिग नहीं थे।

तेजस्वी यादव ने भी एनडीए सरकार पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप दोहराए हैं। उनका कहना है कि यही भ्रष्टाचार राज्य में गरीबी हटाने या किसानों की स्थिति सुधारने में सबसे बड़ी बाधा है।

चाहे वह 1000 करोड़ का *सृजन घोटाला* हो, 1000 करोड़ का *एम्बुलेंस घोटाला*, या फिर 2024 में सिर्फ 20 दिनों में गिरने वाले 12 पुल — बिहार में विभिन्न क्षेत्रों में फैले इन घोटालों ने शासन में गहराई तक जड़े भ्रष्टाचार को उजागर कर दिया है।

3. गहरी गरीबी

वित्त वर्ष 2013 से 2024 के बीच बिहार की औसत सकल राज्य घरेलू उत्पाद (GSDP) वृद्धि दर 5.5 प्रतिशत रही है, जो राष्ट्रीय औसत 6.1 प्रतिशत से कम है। इसी कारण बिहार आज भी भारत के सबसे गरीब राज्यों में गिना जाता है। 2000 में झारखंड को अलग राज्य बनाए जाने से बिहार अपने खनिज संसाधनों, औद्योगिक नगरों और आर्थिक रूप से विकसित क्षेत्रों से वंचित हो गया। लालू-राबड़ी सरकार के दौरान स्थिति सुधारने के लिए कोई ठोस प्रयास नहीं हुए।

नीतीश कुमार के नेतृत्व में एनडीए सरकार द्वारा सड़कों, पुलों, बिजली और शिक्षा के क्षेत्र में बड़े सुधार किए गए, लेकिन वे राज्य की कमजोर अर्थव्यवस्था को पूरी तरह पटरी पर नहीं ला सके।

नीति आयोग के 2022-23 के आंकड़ों के अनुसार, बिहार की प्रति व्यक्ति आय मात्र ₹54,000 है, जबकि राष्ट्रीय औसत ₹1.85 लाख है। गरीबी दर में सुधार जरूर हुआ है — 50.5 प्रतिशत से घटकर 25.4 प्रतिशत (2022-23) — लेकिन ढांचागत समस्याएं अब भी बनी हुई हैं। नीति आयोग के 2024 के बहुआयामी गरीबी अनुमान के अनुसार, देश के सबसे अधिक गरीब बिहार में ही हैं — करीब 33.76 प्रतिशत।

राज्य मुख्य रूप से कृषि-प्रधान है, जहाँ 80 प्रतिशत कार्यबल (जनगणना 2011 के अनुसार) कृषि पर निर्भर है। लेकिन यह क्षेत्र भी संकटग्रस्त है — बाढ़ से फसल को भारी नुकसान, छोटे जोत के खेत, और पारंपरिक खेती पद्धतियों के कारण कृषि का राज्य के GSDP में योगदान सिर्फ 19 प्रतिशत है।

बिहार का औद्योगिक आधार भी बेहद कमजोर है — 2023 के अनुसार राज्य के GSDP में उद्योगों की हिस्सेदारी मात्र 19 प्रतिशत है। साक्षरता दर भी 61.8 प्रतिशत है, जो राष्ट्रीय औसत 73 प्रतिशत से काफी कम है।

4. बेरोजगारी का अभिशाप

एनडीए सरकार ने विभिन्न योजनाओं के माध्यम से रोजगार सृजन की कोशिशें की हैं, लेकिन बेरोजगारी अब भी बिहार की सबसे बड़ी चुनौती बनी हुई है। यही वजह है कि राज्य का युवा वर्ग रोजगार की तलाश में अन्य राज्यों की ओर पलायन करता है।

पीटीआई की एक रिपोर्ट के अनुसार, 18-29 वर्ष आयु वर्ग के लगभग 14 लाख पहली बार वोट डालने वाले मतदाता — जो कुल मतदाताओं का लगभग 22-25 प्रतिशत (1.63 करोड़ लोग) हैं — ने कहा है कि वे मतदान के दौरान रोजगार को अपनी प्राथमिकता बनाएंगे।

कृषि पर अत्यधिक निर्भरता, औद्योगिकीकरण की कमी, कमजोर शिक्षा गुणवत्ता और नीतियों के क्रियान्वयन में अंतर ने इस संकट को और गहरा किया है। विपक्ष ने भी इस मुद्दे को भुनाने का कोई मौका नहीं छोड़ा है और युवाओं को रोजगार देने के वादे पर अपना चुनावी अभियान केंद्रित किया है।

श्रम एवं रोजगार मंत्रालय के 2022-23 के सर्वे के अनुसार, बिहार की बेरोजगारी दर 3.4 प्रतिशत है, जो राष्ट्रीय औसत 3.2 प्रतिशत से थोड़ी अधिक है। पीरियॉडिक लेबर फोर्स सर्वे (PLFS) के आंकड़ों से पता चलता है कि वर्षों में बेरोजगारी दर घटी जरूर है, लेकिन 15-29 वर्ष के हर 10 में से 1 व्यक्ति अब भी बेरोजगार है।

बिहार के शहरी क्षेत्रों में युवाओं की बेरोजगारी दर 10.8 प्रतिशत है। 2017-18 में यह दर 23 प्रतिशत थी, जो 2018-19 में 30 प्रतिशत तक बढ़ी। इसके बाद यह धीरे-धीरे घटकर 2019-20 में 18 प्रतिशत, 2020-21 में 17 प्रतिशत, 2021-22 में 20 प्रतिशत, 2022-23 में 14 प्रतिशत और 2023-24 में 10 प्रतिशत पर पहुंची।

कैच यह है कि इस संकट का असर निरक्षरों पर नहीं, बल्कि शिक्षित वर्ग पर सबसे ज़्यादा पड़ा है। सरकारी आंकड़ों (जुलाई 2023-जून 2024) के अनुसार, स्नातक से ऊपर की शैक्षणिक योग्यता रखने वाले युवाओं में बेरोजगारी दर सबसे अधिक — 19 प्रतिशत — रही, जबकि जो पढ़-लिख नहीं सकते, उनमें यह दर मात्र 0.8 प्रतिशत थी।

यह स्थिति तब है जब नीतीश सरकार ने बेरोजगार युवाओं के लिए वित्तीय सहायता और कौशल विकास योजनाओं के ज़रिए रोजगार सृजन की कई पहल की हैं। मुख्यमंत्री निश्चय स्वयं सहायता भत्ता योजना, बिहार लघु उद्यमी योजना, कुशल युवा कार्यक्रम, दीनदयाल उपाध्याय ग्रामीण कौशल्या योजना और संकल्प योजना जैसी कई योजनाएं इस दिशा में शुरू की गईं।

लेकिन इन प्रयासों के बावजूद रोजगार संकट ने सरकारी नौकरियों की होड़ को और बढ़ा दिया है। प्रणालीगत खामियाँ — जैसे अनियमित भर्ती विज्ञापन, परीक्षाओं में देरी और बार-बार पेपर लीक — ने अभ्यर्थियों को निराश कर दिया है। युवाओं का कहना है कि उन्हें ऐसी सरकार चाहिए जो शिक्षा व्यवस्था को मज़बूत करे और रोज़गार भी पैदा करे।

5. पलायन अब भी जारी

रोज़गार की भारी कमी बिहार के लगभग 13 करोड़ में से 20 से 30 लाख लोगों को दूसरे राज्यों में कम-कौशल वाले कामों के लिए पलायन करने पर मजबूर करती है। एनडीए सरकार ने 19 लाख नौकरियां देने का वादा किया था, लेकिन वह अधूरा रह गया। पलायन के मामले में बिहार, उत्तर प्रदेश के बाद दूसरे स्थान पर है, जहाँ से अधिकांश प्रवासी दिल्ली, गुजरात और बेंगलुरु जैसे राज्यों में फैक्ट्रियों या हॉस्पिटैलिटी सेक्टर में काम करने जाते हैं।

रोज़गार की तरह पलायन का मुद्दा भी इस बार चुनावी बहस के केंद्र में है। आरजेडी ने इसे एनडीए सरकार की नाकामी के प्रतीक के रूप में पेश किया है, जो ‘बिहारी पलायन’ को रोकने में विफल रही है।

तेजस्वी यादव ने हाल ही की एक चुनावी रैली में कहा —“एक बार तेजस्वी को मौका देकर तो देखो। बिहार के लोगों को बाहर जाने की ज़रूरत नहीं होगी।”

तेजस्वी ने वादा किया है कि अगर महागठबंधन सत्ता में आता है तो राज्य में बड़े विकासात्मक कदम उठाए जाएंगे — फैक्ट्रियों, उद्योगों, विशेष आर्थिक क्षेत्र (SEZ), आईटी पार्क और फूड प्रोसेसिंग यूनिट्स की स्थापना की जाएगी और बंद पड़े जूट मिलों को फिर से खोला जाएगा।

इसके अलावा, आरजेडी ने हर घर से एक व्यक्ति को नौकरी देने और संविदा कर्मचारियों को नियमित करने का वादा भी किया है।

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