जनसंवाद से निलंबन तक, बिहार में जमीन सुधार निर्णायक मोड़ पर क्यों?
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जनसंवाद से निलंबन तक, बिहार में जमीन सुधार निर्णायक मोड़ पर क्यों?

बिहार में जमीन विवाद सबसे बड़ी हिंसा की वजह है। डिप्टी सीएम विजय सिन्हा की सख्ती से सिस्टम हिला है, लेकिन सवाल है क्या यह सुधार टिकेगा?


Bihar Land Reform: बिहार में जमीन को लेकर होने वाली हिंसा कोई नई बात नहीं है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की रिपोर्ट में कई बार यह दर्ज हो चुका है कि राज्य में सबसे अधिक हत्याएं जमीन विवाद के कारण होती हैं। इसके बावजूद दशकों से यह समस्या जस की तस बनी हुई है। नीतीश कुमार सरकार ने समय-समय पर कई फैसले लिए, नियम बदले, योजनाएं शुरू कीं, लेकिन जमीन विवाद का स्थायी समाधान नहीं निकल सका।

अब राजस्व एवं भूमि सुधार विभाग की कमान संभालने वाले उप मुख्यमंत्री विजय कुमार सिन्हा (Vijay Kumar Sinha) ने इस समस्या की जड़ पकड़ने की कोशिश की है। उनका फोकस सीधे विभागीय सिस्टम को सुधारने पर है। लेकिन जैसे ही उन्होंने सख्ती शुरू की, वैसे ही विभाग के भीतर हलचल मच गई। एक तरफ अधिकारी-कर्मचारी कार्रवाई से डरे हुए हैं, तो दूसरी तरफ अपने डर को छिपाने के लिए आंदोलन और विरोध का रास्ता अपना रहे हैं। इसी बीच सिन्हा का रुख और भी सख्त होता दिख रहा है। हाल के दिनों में एक अंचल अधिकारी (CO) को निलंबित किया जाना इसी का उदाहरण है।

जनसंवाद से खुली परतें

राजस्व एवं भूमि सुधार विभाग की जिम्मेदारी मिलते ही विजय कुमार सिन्हा ने जिलों में जनसंवाद कार्यक्रम शुरू किया। खास बात यह रही कि इन कार्यक्रमों में अधिकारी और आम जनता एक ही मंच पर आमने-सामने थे। यही वह मंच बना, जहां अंचल अधिकारियों से लेकर राजस्व कर्मचारियों तक की कथित कारस्तानियां खुलकर सामने आने लगीं।

जनसंवाद के दौरान ही कई मामलों में तत्काल चेतावनी दी गई और कुछ अधिकारियों को निलंबित भी किया गया। सिन्हा के गुस्से की एक बड़ी वजह यह भी बनी कि दाखिल-खारिज (म्यूटेशन) लटकाने वाले कुख्यात जिलों की सूची में उनके गृह जिला लखीसराय के साथ-साथ पटना का नाम भी शामिल था। जांच रिपोर्ट में जिन 10 जिलों को टॉप पर रखा गया, उनमें भोजपुर, मधेपुरा, अररिया, रोहतास, भागलपुर, वैशाली, सहरसा और मुंगेर भी शामिल हैं। इन जिलों से लगातार फरियादी अपने विधायकों और मंत्रियों के पास जमीन से जुड़ी शिकायतें लेकर पहुंच रहे थे।

अधिकारियों का विरोध और संघ की आपत्ति

जनसंवाद और त्वरित कार्रवाई को लेकर अब राजस्व विभाग के अधिकारी ही मंत्री के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं। राजस्व सेवा संघ का आरोप है कि सार्वजनिक मंचों और सोशल मीडिया पर अधिकारियों के खिलाफ अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल किया जा रहा है। संघ का कहना है कि “खड़े-खड़े सस्पेंड कर देंगे, यहीं जनता के सामने जवाब दो, ऑन द स्पॉट फैसला होगा जैसे बयान संवैधानिक लोकतंत्र और प्रशासनिक मर्यादा के खिलाफ हैं।

संघ ने इसे ड्रमहेड कोर्ट मार्शल और मॉब जस्टिस जैसी शासन शैली करार दिया है। उनके मुताबिक, यह न तो विधि के शासन (Rule of Law) के अनुरूप है और न ही संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 की भावना के।

डिप्टी सीएम विजय सिन्हा के इस कार्रवाई पर पश्चिमी चंपारण के रहने वाले आलोक सिंह कहते हैं कि कम से कम सरकारी कर्मचारियों में डर व्याप्त है। यह सच्चाई है कि भूमि सुधार विभाग में भ्रष्टाचार चरम पर है। बिना पैसे दिए काम नहीं होता। लेकिन उन्हें कुछ खास उम्मीद नहीं है कि कुछ बदलाव होगा। सरकारें बातों के जरिए और कुछ काम के जरिए भ्रष्टाचार पर लगाम के दावे करती हैं। लेकिन जमीनी स्तर पर कुछ ठोस नजर नहीं आता है।

जमीन विवाद की पहली बड़ी वजह: दाखिल-खारिज

बिहार में जमीन विवाद की सबसे बड़ी समस्या म्यूटेशन (दाखिल-खारिज) को लेकर है। जमीन की रजिस्ट्री के बाद भी खरीदार का नाम सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज नहीं हो पाता, क्योंकि अंचल कार्यालय में दाखिल-खारिज की प्रक्रिया जानबूझकर लटका दी जाती है। निगरानी विभाग की छापेमारी में यह कई बार साबित हो चुका है कि इसके लिए घूस ली जाती है।

हालत यह है कि बिना किसी ठोस प्रमाण के जमीन को विवादित बता दिया जाता है या यह लिख दिया जाता है कि मामला कोर्ट में है। कई मामलों में तीसरे पक्ष से आपत्ति दर्ज करवा कर भी दाखिल-खारिज रोका गया। नतीजा यह कि लाखों-करोड़ों खर्च कर जमीन खरीदने वाले लोग कानूनी तौर पर मालिक होने के बावजूद सरकारी रिकॉर्ड में अपना नाम दर्ज नहीं करवा पाते।

दूसरी वजह: फर्जी कागजात और अवैध कब्जा

दूसरी बड़ी समस्या है फर्जी कागजातों के जरिए जमीन पर कब्जा। अंचल स्तर पर ही फर्जी दस्तावेज तैयार कराए जाते हैं, यहां तक कि जमाबंदी रजिस्टर-2 में भी हेरफेर किया जाता है। एक बार फर्जी जमाबंदी हो गई तो उसी आधार पर जमीन की रसीद कट जाती है और फिर अवैध कब्जा मजबूत होता चला जाता है।

ऐसे कब्जाधारी खासतौर पर उन जमीनों को निशाना बनाते हैं, जिनके मालिक गांव से दूर रहते हैं। झोपड़ी डालने से लेकर कच्चा-पक्का निर्माण तक कर लंबे समय का कब्जा दिखाने की कोशिश होती है। कई मामलों में भू-माफियाओं की साठगांठ प्रभावशाली नेताओं से भी बताई जाती है। मुजफ्फरपुर के कांटी में सरकारी जमीन के फर्जी दाखिल-खारिज का मामला, जिसमें CO निलंबित हुआ, इसी समस्या का ताजा उदाहरण है।

तीसरी वजह: परिमार्जन में जानबूझकर देरी

सरकार ने जमाबंदी और दाखिल-खारिज में सुधार के लिए परिमार्जन की सुविधा दी है, लेकिन मामूली सुधार के मामलों को भी वर्षों तक लटकाया जाता है। इसमें भी अवैध वसूली के आरोप लगते रहे हैं और निगरानी ब्यूरो ने कई गिरफ्तारियां की हैं। अब सरकार ने सख्त समयसीमा तय की है। परिमार्जन प्लस के तहत लिपिकीय या टंकण त्रुटियों का सुधार 15 कार्य दिवस में, अन्य जमाबंदी त्रुटियों का 35 कार्य दिवस में और छूटी हुई जमाबंदी को ऑनलाइन करने का काम 75 कार्य दिवस में पूरा करना अनिवार्य किया गया है।

चौथी वजह: पारिवारिक बंटवारे का लंबित झंझट

बिहार में जमीन विवाद का बड़ा हिस्सा पारिवारिक बंटवारे से जुड़ा है। इसके कारण मारपीट से लेकर हत्या तक की घटनाएं होती हैं और अदालतों पर भारी बोझ पड़ता है। इसे देखते हुए विजय कुमार सिन्हा ने बड़ा फैसला लिया है कि अब पारिवारिक बंटवारा ऑनलाइन पोर्टल के जरिए होगा।

27 दिसंबर से शुरू हुए इस पोर्टल के तहत अगर परिवार का एक भी हिस्सेदार आवेदन करता है, तो अंचल स्तर पर बंटवारा किया जा सकेगा। इससे वंशावली और पुराने कागजातों के नाम पर होने वाली अनावश्यक देरी पर रोक लगेगी।

विजय कुमार सिन्हा का दावा है कि जमीन विवाद की जड़ में बैठी व्यवस्था को ठीक किए बिना हत्याएं और हिंसा नहीं रुकेंगी। उनकी सख्ती से सिस्टम में खलबली जरूर मची है, लेकिन सवाल यही है कि क्या यह सुधार जमीन पर टिक पाएगा, या फिर विरोध और आंदोलन के दबाव में यह प्रयास भी आधे रास्ते में दम तोड़ देगा। फिलहाल इतना तय है कि बिहार में जमीन सुधार की लड़ाई अब निर्णायक मोड़ पर पहुंच चुकी है।

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