SP-BSP Alliance: यूपी में मौजूदा समय में बीएसपी और समाजवादी पार्टी एक साथ नहीं हैं। 2019 में दोनों दलों के बीच गठबंधन हुआ था लोकसभा चुनाव के लिए। यूपी की राजनीतिक फिजा में बुआ और भतीजे की जोड़ी की चर्चा होने लगी। वजह भी स्पष्ट था। 2017 के चुनाव में बीजेपी इन दोनों दलों को रौंदते हुए आगे बढ़ गई थी। 2 साल बाद इन दलों को समझ में आया कि यूपी में कमल को खिलने से रोकने के लिए एक साथ आना जरूरी है। मायावती भी 1995 के गम और गुस्से को एक किनारे कर अपनी पार्टी का भविष्य देख रही थीं और उसका नतीजा दोनों दलों के बीच गठबंधन के तौर पर दिखा।
यूपी की सियासत पर नजर रखने वालों का भी आकलन यही था कि बीजेपी की राह आसान नहीं रहने वाली है। यह बात सच है कि बीएसपी और सपा ने कमल को पूरी तरह से खिलने से रोका। लेकिन राजनीति की परीक्षा में बीजेपी फिर भी फर्स्ट डिविजन में पास हुई। हालांकि बीएसपी को 10 सांसद मिले और यह कामयाबी छोटी भी नहीं थी। लेकिन मायावती और अखिलेश यादव के बीच रिश्ता टूट गया। इन सबके बीच 2019 से लेकर आज की तारीख में इस बात पर चर्चा होती है कि वजह क्या थी।
अखिलेश ने फोन उठाना बंद कर दिया
2019 में जब दोनों के बीच रिश्ता टूटा तो यह कहा जाता था कि मायावती इस बात से नाराज थीं कि समाजवादी पार्टी के वोट उन्हें नहीं मिले। जबकि उनका वोट ट्रांसफर हुआ। हालांकि समाजवादी के नेता कहते थे कि अगर मायावती जी को कोर वोट ट्रांसफर हुआ होता तो उनकी सीट कम क्यों आती। यदि उनका वोट ट्रांसफर नहीं होता तो मायावती को 10 सीट कैसे मिलती। हालांकि इस तरह के दावों और प्रतिदावों के बीच गठबंधन टूट गया और कयास लगने का दौर शुरू हुआ। लेकिन अब पांच साल बाद मायावती ने खुद बताया कि 2019 के नतीजों के बाद अखिलेश यादव ने खुद फोन उठाना बंद कर दिया था।
बीएसपी को 10 सीट, सपा को 5 सीट
2027 विधानसभा चुनाव के मद्देनजर मायावती पूरजोर कोशिश कर रही हैं। 2024 के आम चुनाव के बाद कार्यकर्ताओं के जोश में आई कमी को देखते हुए वो लगातार हौसला बढ़ा रही हैं। कार्यकर्ताओं को दिए बुकलेट में बताया कि आखिर वो वजह क्या थी जिसके बाद गठबंधन टूट गया। 2019 के चुनाव में समाजवादी पार्टी ने 37, बीएसपी ने 38 और आरएलडी ने तीन सीटों पर चुनाव लड़ा था जबकि रायबरेली अमेठी सीट कांग्रेस के लिए छोड़ी गई थी।
2019 से पहले बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी के बीच 1993 में गठबंधन हुआ। उस समय राम मंदिर आंदोलन का जोर था। बीजेपी को सत्ता से बाहर रखने के लिए दोनों दलों के सामने मजबूरी थी तो विचारधार का साथ भी था। आखिर दोनों दल वंचित, शोषित, पिछड़े समाज के कल्याण का नारा बुलंद कर रहे थे। उस समय मुलायम सिंह यादव समाजवादी पार्टी के मुखिया थे और बीएसपी के बड़े फैसले कांशीराम किया करते थे। राजनीतिक जरूरत के चलते दोनों के बीच गठबंधन हुआ लेकिन शर्त भी थी। शर्त ढाई ढाई साल सीएम बनने की।
मुलायम सिंह को सीएम बनने का मौका मिला। लेकिन जब शर्त के मुताबिक 1995 में सत्ता सौंपने की बारी आई तो उस वक्त लखनऊ का गेस्ट हाउस कांड हुआ जिसमें मायावती की जान किसी तरह बच पाई। उस घटना के बाद मायावती ने शपथ खाई कि अब जीवन में सपा के साथ कभी समझौता नहीं करने वाली है। लेकिन सियासत में मुद्दे और आदर्श की मांग सियासी दलों को व्यक्तिगत कष्ट को भूल जाने की वजह देते हैं और उसके तहत 2019 में सपा और बीएसपी 24 साल बाद एक साथ आए।