
बदलते छऊ में झुमुर की हार, क्या यह नई कहानी है?
पश्चिम बंगाल के मुखौटा नृत्य को 2010 में यूनेस्को की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत का दर्जा मिल गया, लेकिन छऊ मंडलियां खुद को इसे शुद्ध बनाए रखने और समय के साथ बदलने के बीच की कड़ी में फंसी हुई पाती हैं।
"सुन सुन झुमाइरा भाई,
क्यों तुझे समझ नहीं आता रे?
देख धीरे-धीरे झुमुर खोता जा रहा है।
अरे हां! झुमुर गाया जाता है, और छऊ नाचता है!
हमारे झुमुर में ही पुरुलिया का मान समाया है!"
पुरुलिया की स्थानीय बोली में समीरन महतो द्वारा रचित यह करुण पुकार, छऊ नृत्य की बदलती दुनिया में झुमुर की लुप्त होती परंपरा की गूंज है। सदियों तक झारखंड के सरायकेला, ओडिशा के मयूरभंज और पश्चिम बंगाल के पुरुलिया जिले के आदिवासी बहुल इलाकों में यह अर्धशास्त्रीय नृत्य-रूप अपनी मौलिकता और परंपरा के साथ जीवित रहा।
गुरुओं से वर्षों तक दीक्षित होकर नर्तक देवी-देवताओं, राक्षसों और योद्धाओं की भूमिकाएं निभाते। उनके कदमों में कथा बसती थी, और उनकी अभिव्यक्तियां कागज़ की नक़ाबों के पीछे छिपी होती थीं। हर गांव की अपनी पौराणिक कथा होती, जिसे नृत्य-नाटक के माध्यम से दर्शाया जाता। इन कथाओं को जीवंत करती थीं। झुमुर गीत लोक संगीत की वह विधा जिसमें भावनात्मक और साहित्यिक समृद्धि गहराई तक रची-बसी थी।
यूनेस्को की मान्यता, और बदलती ज़मीन
2010 में जब यूनेस्को ने छऊ नृत्य को "अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर" का दर्जा दिया, तो ऐसा लगा कि परंपरा को एक नया जीवन मिल गया। लेकिन पिछले दो दशकों में इस परंपरा की ज़मीन खिसकने लगी। अब कम ही युवा इसके कठिन और अक्सर बिना मेहनताना वाले प्रशिक्षण को अपनाना चाहते हैं। साथ ही, आधुनिक मनोरंजन के सामने लोककलाएं हाशिए पर चली गई हैं।
पुरुलिया के सूखे लाल मैदानों में, साल वृक्षों की छांव तले जब ढोल और नगाड़ों की थाप गूंजती है, तो छऊ नर्तक आज भी थिरकते हैं। लेकिन वह पुरानी लय अब वैसी नहीं रही।
परंपराओं पर इलेक्ट्रॉनिक लहर की दस्तक
बिस्वकर्मा छऊ नृत्य दल के रंजीत महतो कहते हैं कि पहले छऊ में शहनाई, ढोल और धुमसा जैसे पारंपरिक वाद्य यंत्र बजते थे, पर अब इनकी जगह इलेक्ट्रॉनिक वाद्य यंत्रों ने ले ली है।"झिलमिल, तेज़ और दिखावटी चीज़ों की मांग ने हमें ट्रेंड के पीछे चलने को मजबूर कर दिया है, भले ही इससे परंपराओं से समझौता करना पड़े।अब रामायण-महाभारत की जगह फिल्मी गीत और आधुनिक कहानियां मंच पर जगह पा रही हैं। रंजीत बताते हैं, “लोग अब सिर्फ़ गति और ऊर्जा चाहते हैं, कहानी अब उतनी मायने नहीं रखती।”
छऊ का इतिहास
छऊ नृत्य की उत्पत्ति लगभग 800 साल पहले ओडिशा के मयूरभंज क्षेत्र में हुई मानी जाती है। बाद में यह पश्चिम बंगाल और झारखंड के आदिवासी क्षेत्रों तक फैल गया। कुछ विद्वान मानते हैं कि 'छऊ' शब्द संस्कृत के 'छाया' से आया है। यानी 'छाया' या 'प्रतीक' जो मुखौटों के उपयोग से जुड़ा है। कुछ अन्य इसे 'छावनी' (सैन्य शिविर) या 'छद्म' (वेश) से जोड़ते हैं। अब का छऊ नृत्य एक ‘फ्यूज़न’ रूप में ढलता जा रहा है जिसकी दिशा दर्शकों की बदलती प्राथमिकताएं तय करती हैं।
बदलाव की ज़रूरत और बाजार की सच्चाई
अब नृत्य मंडलियों को न केवल परंपरा बल्कि जीविका के लिए भी बदलना पड़ रहा है। संगीत तेज़ हुआ है, परिधान हल्के हुए हैं और कथाएं आधुनिक हो चुकी हैं। नृत्य अब केवल अनुष्ठान नहीं, बल्कि मंचीय कला बन गया है। अब शिव सिर्फ तांडव नहीं करते, वे प्रदूषण से भी लड़ते हैं। कोविड-19 के दौरान एक छऊ कलाकार ने आठ मिनट की नाट्य प्रस्तुति ‘कोरोनासुर’ रची जिसमें शिव महामारी से लड़ने का संदेश देते हैं।"परिवर्तन ज़रूरी है, पर आत्मा से समझौता नहीं होना चाहिए," समीरन महतो कहते हैं। "अगर आप छऊ से झुमुर गीत हटा दें, तो उसकी आत्मा को ही छीन लेते हैं।"
सरकार की भूमिका और कलाकारों की हकीकत
पुरुलिया के बिरेन कालिंदी, जो एक लोकप्रिय नर्तक हैं, बताते हैं कि वर्तमान में जिले में 900 से अधिक सरकारी मान्यता प्राप्त छऊ मंडलियां हैं। हर मंडली में लगभग 35 से 40 लोग होते हैं, जिनमें से 15-20 नर्तक होते हैं, बाकी गायक, वादक और तकनीकी कर्मी होते हैं। एक मंडली साल में औसतन 200 कार्यक्रम करती है।
पहले जहां ये प्रदर्शन सिर्फ ग्रामीण इलाकों में गजन पर्व (चैत्र मास) के समय होते थे, अब ये शहरी ऑडिटोरियम में, LED लाइट्स के नीचे होते हैं।लेकिन इतने प्रदर्शन के बावजूद कलाकारों को आर्थिक राहत नहीं मिलती। कार्यक्रम का पारिश्रमिक ₹18,000 से ₹35,000 तक होता है, लेकिन उसे पूरे समूह में बांटने के बाद हर व्यक्ति के हिस्से में नाममात्र की राशि ही आती है। मास्क की कीमत ₹2,000 से ₹7,000 और परिधान की कीमत ₹5,000 से ₹7,000 तक होती है और उन्हें बार-बार बदलना पड़ता है।
राज्य सरकार द्वारा कलाकारों को केवल ₹1,000 मासिक वजीफा दिया जाता है। कालिंदी कहते हैं, "कम से कम एक कार्यक्रम का शुल्क ₹90,000 होना चाहिए। लोग फिल्मी डांस और संगीत रातों पर इससे कहीं ज़्यादा खर्च करते हैं, पर छऊ के लिए नहीं। जब तक फीस नहीं बढ़ेगी, छऊ को पेशा बनाना मुमकिन नहीं। अभी तो हम इसे केवल जुनून से निभा रहे हैं, पेशे से नहीं।"
परंपरा का द्वंद्व
रंजीत महतो मानते हैं कि बदलाव ज़रूरी है, लेकिन जड़ को नष्ट किए बिना। हम परंपरा को छोड़ नहीं रहे, उसे नया रूप दे रहे हैं वरना वह मिट जाएगी।छऊ अब सस्टेनेबिलिटी, पर्यावरण संकट, सरकारी योजनाओं, और यहां तक कि सोशल मीडिया के रील्स तक पहुंच गया है। वह परंपरा से आगे निकलकर प्रयोगशील हो गया है कभी कला, कभी मंच, कभी आंदोलन।लेकिन इस चमक के बीच, झुमुर की वो करुण पुकार अब भी गूंज रही है "देख धीरे-धीरे झुमुर खोता जा रहा है..."