
अरुणाचल प्रदेश में धार्मिक तनाव: एक नए विवाद की आहट
धर्मांतरण विरोधी कानून पर चिंता, आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत की यात्रा के बीच भगवाकरण की आशंका से भाजपा शासित पूर्वोत्तर राज्य में बेचैनी; क्या मणिपुर बनने जा रहा है?
अरुणाचल प्रदेश में एक धार्मिक विवाद उभरता हुआ दिखाई दे रहा है, जिसमें ईसाई समूहों ने धर्मांतरण विरोधी कानून (APFRA) के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद की है. यह विरोध राज्य में आदिवासी समुदायों के बीच तनाव बढ़ा रहा है और मणिपुर जैसी स्थिति उत्पन्न होने का खतरा पैदा कर रहा है.
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
अरुणाचल प्रदेश पहाड़ी और ऐतिहासिक दृष्टि से विविधताओं से भरा हुआ राज्य है, में कई सदियों तक ईसाई और गैर-ईसाई समुदायों के बीच कोई गंभीर संघर्ष नहीं हुआ था. हालांकि, अब यह स्थिति बदलती दिख रही है. 6 मार्च 2025 को अरुणाचल प्रदेश क्रिश्चियन फोरम (APCF) ने अरुणाचल प्रदेश धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम (APFRA) के खिलाफ एक बड़ा विरोध-प्रदर्शन किया, जिसमें ईसाई समुदाय ने आरोप लगाया कि यह कानून उनके धार्मिक अधिकारों को कुचलने के उद्देश्य से है. सैंकड़ों ईसाई विश्वासियों ने इटानगर के पास बोरम ग्राउंड में एकत्र होकर इस कानून के खिलाफ प्रदर्शन किया, जिसमें उन्होंने अपने धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार की रक्षा की मांग की.
आदिवासी समूहों की प्रतिक्रिया
APCF के विरोध के ठीक पांच दिन बाद अरुणाचल प्रदेश के इंडिजिनस फेथ एंड कल्चरल सोसाइटी (IFCSAP) ने एक रैली आयोजित की, जिसमें APFRA को बिना किसी संशोधन के लागू करने की मांग की गई. IFCSAP का कहना है कि यह कानून आदिवासी संस्कृति और विश्वासों की रक्षा के लिए बेहद आवश्यक है. क्योंकि उनके अनुसार, यह कदम स्थानीय आस्थाओं के क्षरण को रोक सकता है. यह टकराव और विवाद तब और बढ़ गया, जब IFCSAP के नेताओं ने 28 फरवरी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के प्रमुख मोहन भागवत से बैठक की. इस बैठक ने आदिवासी विश्वासों के हिंदूकरण को लेकर आशंकाएं उत्पन्न कीं, जिससे राज्य में धार्मिक विवाद और अधिक गहरा गया है.
धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम
अरुणाचल प्रदेश धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम (APFRA) 1978 में लागू किया गया था, जब राज्य के पहले मुख्यमंत्री पीके थुंगोन थे. इस कानून का उद्देश्य धर्मांतरण को रोकना था, खासकर जब इसे जबरदस्ती, धोखाधड़ी या प्रलोभन के जरिए किया जाए. APFRA के तहत सभी धार्मिक धर्मांतरणों की सूचना स्थानीय अधिकारियों को देनी होती है और उल्लंघन के लिए जुर्माना और दो साल तक की सजा का प्रावधान है. हालांकि, यह कानून पिछले करीब पांच दशकों से निष्क्रिय रहा, जब तक हाल ही में गुवाहाटी हाई कोर्ट ने राज्य सरकार को इसे लागू करने के लिए नए नियम बनाने का निर्देश नहीं दिया. इस न्यायिक हस्तक्षेप ने राजनीतिक और धार्मिक हलचलों को जन्म दिया है.
सरकार का रुख और ईसाई समुदाय की प्रतिक्रिया
गृह मंत्री मामा नतुङ ने ईसाई नेताओं को आश्वासन दिया कि सरकार इस कानून को पूरी तरह से लागू करने की बजाय इसे संशोधित करने पर विचार करेगी. हालांकि, ईसाई समुदाय के नेता इस समाधान से संतुष्ट नहीं हैं और उनका कहना है कि APFRA को पूरी तरह से समाप्त किया जाना चाहिए. APCF के अध्यक्ष नरह मिरी ने कहा कि हम इसे संशोधित नहीं, समाप्त करना चाहते हैं. मुख्यमंत्री पेमा खांडू ने इस कानून का समर्थन किया और कहा कि यह कानून आदिवासी सांस्कृतिक धरोहर की रक्षा करने के लिए है, न कि किसी धर्म को दबाने के लिए.
सांप्रदायिक विभाजन
अरुणाचल प्रदेश की 1.3 मिलियन की आबादी में 30.26 प्रतिशत लोग ईसाई धर्म का पालन करते हैं. जबकि हिंदू और बौद्ध धर्म के अनुयायी क्रमशः 29 प्रतिशत और 11 प्रतिशत हैं. अन्य धर्मों के अनुयायी राज्य की 26 प्रतिशत आबादी का हिस्सा हैं. अरुणाचल प्रदेश में ईसाई समुदाय की संख्या 1971 में केवल 1 प्रतिशत थी. जो 1991 में 10.3 प्रतिशत और 2011 में 25 प्रतिशत से अधिक हो गई. यह वृद्धि इस विवाद को और जटिल बनाती है. इसके अलावा, आदिवासी समुदाय के लोग डोनी-पोलो धर्म का पालन करते हैं, जो सूर्य और चंद्रमा की पूजा करता है और अब इस बात को लेकर चिंता जताई जा रही है कि हिंदू समूह इन विश्वासों को अपने धर्म के तहत समाहित करने का प्रयास कर सकते हैं.
RSS और हिंदूकरण की चिंता
कई आलोचक यह मानते हैं कि हिंदू देवताओं के समान मूर्तियों का निर्माण डोनी-पोलो पूजा की पारंपरिक आस्थाओं के खिलाफ है. IFCSAP और RSS नेताओं के बीच बैठक ने इस आशंका को और बढ़ा दिया है कि हिंदूकरण के प्रयास हो रहे हैं और इसे लागू करने की कोशिश की जा रही है. यदि राज्य सरकार APFRA के लिए नए नियम लागू करती है तो यह अरुणाचल प्रदेश के ईसाई बहुल जिलों जैसे तिराप, चांगलांग और लोंगडिंग में अशांति पैदा कर सकता है, जो नागालैंड के साथ सीमा साझा करते हैं.
राजनीतिक अस्थिरता
कई नागा समूहों ने इन जिलों को अपने क्षेत्र में शामिल करने की मांग की है, जिससे क्षेत्रीय अस्थिरता और बढ़ सकती है. मुख्यमंत्री पेमा खांडू की सरकार में ईसाई विधायकों की संख्या भी महत्वपूर्ण है, जिससे यह सवाल उठता है कि क्या उनकी सरकार अंदर से राजनीतिक खतरे में आ सकती है. राज्य की पूर्व महिला आयोग की अध्यक्ष और सामाजिक कार्यकर्ता जरजुम एते ने चेतावनी दी है कि अरुणाचल प्रदेश मणिपुर के बाद अगला धार्मिक संघर्ष का केंद्र बन सकता है.
अराजकता का खतरा
जरजुम एते ने सोशल मीडिया पर लिखा कि हमारा सुंदर राज्य अब मणिपुर के बाद RSS-BJP गठबंधन का अगला प्रयोगशाला बन गया है. बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मणिपुर में दो साल तक अशांति को बढ़ने दिया और अब यह खतरा अरुणाचल प्रदेश में भी उत्पन्न हो सकता है.