
दीओचा-पचामी आंदोलन बना विपक्षी एकता का मंच, ममता बनर्जी सरकार पर निशाना
दीओचा-पचामी कोयला परियोजना के विरोध से बंगाल में विपक्षी एकता का नया अध्याय शुरू हुआ है। वाम, कांग्रेस और सीपीआई(एमएल) दल अब तीसरे मोर्चे की राह पर हैं।
29 अक्टूबर, बुधवार को पश्चिम बंगाल के बीरभूम ज़िले में प्रस्तावित दीओचा-पचामी कोयला खनन परियोजना के विरोध में कोलकाता में आयोजित “सॉलिडैरिटी कन्वेंशन” (एकजुटता सम्मेलन) केवल पर्यावरण या विस्थापन का सवाल नहीं रहा। यह कार्यक्रम अब 2026 के विधानसभा चुनावों से पहले एक संभावित तीसरे राजनीतिक मोर्चे की भूमिका में उभरता दिख रहा है।
विपक्षी एकजुटता की नई पहल
कोलकाता के युथ सेंटर में आयोजित इस सम्मेलन में सीपीआई(एम), कांग्रेस, सीपीआई(एमएल) और लगभग 30 अन्य सामाजिक-राजनीतिक संगठनों ने हिस्सा लिया।यह वही बंगाल है जहां 2019 से अब तक राजनीतिक परिदृश्य टीएमसी बनाम बीजेपी की द्विध्रुवीय राजनीति में सिमटा हुआ है। लेकिन इस मंच ने उस संतुलन को तोड़ने की संभावना जगा दी है।
आयोजकों ने भले ही इसे “सिर्फ दीओचा-पचामी परियोजना का मुद्दा” बताया, पर कई प्रतिभागियों ने स्वीकार किया कि इसका राजनीतिक असर गहरा हो सकता है।
कांग्रेस प्रवक्ता चंदन घोष चौधरी ने द फेडरल से कहा “हमारा फोकस परियोजना के दुष्प्रभाव पर था, लेकिन यह आंदोलन उन सभी ताकतों को जोड़ सकता है जो टीएमसी और बीजेपी दोनों का विरोध कर रही हैं। उन्होंने यह भी कहा कि दीओचा-पचामी का मुद्दा आने वाले चुनावों में कांग्रेस और समान विचारधारा वाले दलों का प्रमुख चुनावी एजेंडा बनेगा।
जनआंदोलन से राजनीतिक मंच तक
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह आंदोलन सिर्फ पर्यावरण या ज़मीन अधिकारों तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि यह आदिवासी इलाकों में राजनीतिक लामबंदी का केंद्र बन सकता है — खासकर उन क्षेत्रों में, जहां विस्थापन और भूमि-अधिकार जैसे मुद्दे पहले से ही संवेदनशील हैं।
पुराने रिश्तों की वापसी — कांग्रेस और वाम मोर्चा
2024 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस-वाम गठबंधन की करारी हार के बाद दोनों दलों ने एक-दूसरे की आलोचना की थी। फॉरवर्ड ब्लॉक ने तो यहां तक कहा कि कांग्रेस से हाथ मिलाना “राजनीतिक गलती” थी। अक्टूबर 2024 के उपचुनावों में दोनों ने अलग-अलग उम्मीदवार उतारकर गठबंधन की “मृत्यु” की पुष्टि कर दी थी। लेकिन अब दीओचा-पचामी आंदोलन ने दोनों को फिर से एक मंच पर ला खड़ा किया है — यानी एक पुराने रिश्ते की राजनीतिक पुनर्जीवन कथा शुरू हो चुकी है।
सीपीआई(एमएल) की सक्रिय भागीदारी
दिलचस्प बात यह है कि सीपीआई(एमएल), जो अब तक यह मानती थी कि बंगाल में मुख्य संघर्ष केवल बीजेपी के खिलाफ होना चाहिए, उसने भी इस बार आंदोलन में भाग लिया।राजनीतिक विश्लेषक अमल सरकार ने कहा “यह कांग्रेस और वामपंथी दलों की ही नहीं, बल्कि सभी कम्युनिस्ट पार्टियों की दुर्लभ एकजुटता का उदाहरण है।”
उनका मानना है कि यह एकजुटता 2026 के विधानसभा चुनावों से पहले टीएमसी और बीजेपी दोनों के खिलाफ एक तीसरे मोर्चे की नींव रख सकती है।
आदिवासी अधिकारों की जड़ें
आंदोलन की अगली बड़ी योजना है — 15 नवंबर, यानी आदिवासी नायक बिरसा मुंडा की जयंती पर राज्यभर में विरोध प्रदर्शन। यह तिथि प्रतीकात्मक है, क्योंकि यह आंदोलन आदिवासी अधिकारों और भूमि-संरक्षण की जड़ों से जुड़ा है। सम्मेलन में छह-सूत्री मांगपत्र जारी किया गया, जिसमें शामिल हैं बेसाल्ट खनन और भूमि अधिग्रहण पर तत्काल रोक, प्रशासनिक दमन का अंत, परियोजना आवंटन की न्यायिक जांच और प्रभावित समुदायों की “पूर्व स्वीकृति और जानकारी” के बिना कोई कार्य न शुरू किया जाए।
टीएमसी सरकार पर तीखा हमला
विभिन्न दलों के वक्ताओं ने टीएमसी और केंद्र सरकार दोनों पर “मिलीभगत” का आरोप लगाया। सीपीआई(एम) के राज्य सचिव मोहम्मद सलीम ने कहा “राज्य सरकार बड़े पैमाने पर खनन को ‘कोयला उत्खनन’ बताकर ढक रही है। उसने कोलकाता हाईकोर्ट को भी गुमराह किया है।”कांग्रेस अध्यक्ष शुभंकर सरकार ने आरोप लगाया कि “पुलिस अत्याचार जारी हैं और मुख्यमंत्री के उद्योग-समर्थक बयान जमीन पर प्रशासनिक हिंसा में बदल गए हैं।”
सीपीआई(एमएल) लिबरेशन के राज्य सचिव अभिजीत मजूमदार ने इस परियोजना को ‘भूमि लूट की बड़ी साजिश’ बताया। उन्होंने कहा “दीओचा-पचामी संघर्ष पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा के बड़े आंदोलन का हिस्सा है।”
2026 से पहले नई राजनीति की संभावना
राजनीतिक विश्लेषक निर्मल्या बनर्जी ने कहा “दीओचा-पचामी का मुद्दा अब दोनों — टीएमसी और बीजेपी — के खिलाफ एक साझा सामाजिक हथियार बन सकता है। यह ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में गूंजने वाला मुद्दा है, जो 2026 तक एक राजनीतिक मोर्चे का रूप ले सकता है।”गौरतलब है कि केंद्र से कोयला ब्लॉक का एकमात्र विकासाधिकार मिलने के बाद ममता बनर्जी सरकार ने इसे अपनी “सबसे बड़ी उपलब्धि” के रूप में प्रस्तुत किया था। लेकिन अब यही परियोजना उसके लिए राजनीतिक सिरदर्द बनती जा रही है।
बंगाल की राजनीति में “दीओचा-पचामी” आंदोलन केवल खनन या पर्यावरण का सवाल नहीं रहा — यह राज्य में तीसरे मोर्चे के पुनरुत्थान की राजनीतिक पटकथा बनता दिख रहा है। वामपंथ, कांग्रेस और वाम-समर्थक संगठनों की यह एकजुटता यदि कायम रहती है, तो 2026 का चुनावी परिदृश्य बंगाल में टीएमसी बनाम बीजेपी की दोध्रुवीय राजनीति से आगे बढ़कर “जनाधिकार बनाम कॉरपोरेट विकास” की नई बहस गढ़ सकता है।




