
‘आत्मनिर्भर’ बनाने का सपना टूटा, पेट से छिन गया निवाला
एफपीओ डायरेक्टर अनीता मीणा को पदवी के कारण सरकारी राशन से वंचित कर दिया गया। गरीब किसानों पर सरकार की यह सख्ती महिला नेतृत्व को कमजोर करेगी।
उदयपुर ज़िले के खेड़वाड़ा ब्लॉक की रहने वाली अनीता मीणा (30) किसान उत्पादक संगठन (एफपीओ) की डायरेक्टर हैं। यह पद उन्हें पहचान और काम करने का मौका देता है, लेकिन विडंबना यह है कि इसी पदवी के चलते अब उन्हें सरकारी राशन से वंचित किया जा रहा है। परिवार के सात सदस्यों के लिए यही राशन ज़िंदगी की सबसे बड़ी ज़रूरत है। अनीता अब डायरेक्टर पद से इस्तीफा देने पर मजबूर हैं।
पिछड़े इलाके से जुड़ी कहानी
खेड़वाड़ा देश के सबसे पिछड़े इलाकों में गिना जाता है। नीति आयोग की लिस्ट में यह एक “आकांक्षी ब्लॉक” है, जहां शासन और जीवन स्तर सुधारने के लिए केंद्र की विशेष योजनाएँ चल रही हैं। अनीता पिछले दो वर्षों से किसानों को सही बीज, खाद और पशुपालन की सलाह देकर उन्हें बेहतर खेती करने में मदद कर रही हैं। कृषि क्षेत्र में उनके अनुभव की वजह से ही उन्हें एफपीओ डायरेक्टर चुना गया।लेकिन एफपीओ की इस तथाकथित ‘ग्लैमरस’ पदवी ने उन्हें राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA) 2013 के तहत मिलने वाला सरकारी राशन ही छीन लिया।
‘डायरेक्टर’ होने की सज़ा
अनीता और उनके परिवार की आजीविका का सहारा है – छोटा-सा खेत, तीन गायों का दूध और सरकारी राशन। सितंबर में जब वे राशन लेने पहुँचीं तो डीलर ने कह दिया कि अब वे पात्र नहीं हैं, क्योंकि उनके पास कंपनी डायरेक्टर आईडी नंबर है और उनका नाम एफपीओ ‘वृत्ति एग्रो प्रोड्यूसर कंपनी लिमिटेड’ के बैंक हस्ताक्षरकर्ताओं और ऑडिट रिपोर्ट में शामिल है। “इस महीने 35 किलो अनाज नहीं मिला। डायरेक्टर होने से मैं अमीर नहीं हो जाती। हमें बस गुज़ारा भर होता है। एफपीओ से कोई तनख्वाह भी नहीं मिलती, कभी-कभी 300 रुपये मीटिंग अटेंड करने पर मिल जाते हैं,” अनीता ने द फेडरल से कहा।
एफपीओ का असली मक़सद और आज की हालत
केंद्र सरकार ने 2020 में “10,000 किसान उत्पादक संगठनों के गठन और प्रोत्साहन” की योजना शुरू की थी, ताकि छोटे किसानों को सामूहिक शक्ति मिले और उनकी आमदनी बढ़ सके। अभी तक 34 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में 7,500 से अधिक एफपीओ रजिस्टर्ड हो चुके हैं।वृत्ति एग्रो कंपनी के सीईओ सूरज राम रार ने बताया कि यह एफपीओ 2023 में बना था, इसका टर्नओवर 50 लाख है और इसमें 640 शेयरधारक हैं। उन्होंने साफ कहा – “डायरेक्टर बहुत गरीब परिवारों से आते हैं, उनका जीवन सरकारी राशन पर निर्भर है। अनीता का नाम हटाना नाइंसाफी है।”
सरकार की नई सख्ती
जुलाई में केंद्र ने राज्यों से कहा कि राशन कार्ड सिस्टम में गड़बड़ियों की जाँच की जाए। इसके बाद लाभार्थियों की लिस्ट को टैक्सपेयर, गाड़ी मालिकों और कंपनी डायरेक्टर्स के डाटाबेस से मिलाया गया। इसी दौरान अनीता और राजस्थान के कम से कम 9 अन्य एफपीओ डायरेक्टर्स को नोटिस भेजे गए। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में 15,000 से ज़्यादा किसानों को भी ऐसे नोटिस मिले हैं।
महिला किसानों पर असर
विशेषज्ञों का कहना है कि एफपीओ बनाने का मकसद गरीब किसानों को संगठित कर मज़बूत करना था, लेकिन अब उन्हीं डायरेक्टर्स को सज़ा दी जा रही है। सेंटर फॉर माइक्रो-फाइनेंस की कार्यकारी निदेशक मल्लिका श्रीवास्तव ने कहा –
“ये डायरेक्टर वेतन नहीं लेते, ज्यादातर एफपीओ अभी शुरुआती दौर में हैं। इन्हें प्राइवेट कंपनियों के डायरेक्टर्स जैसा मानना अन्याय है। महिलाओं ने बहुत मुश्किल से बाहर निकलकर नेतृत्व की भूमिका ली है। अगर राशन छिन गया तो वे दोबारा पीछे हट जाएँगी।”
अस्तित्व पर संकट
अगर किसान-डायरेक्टर इस्तीफा देने लगे तो एफपीओ कंपनियों का अस्तित्व ही संकट में आ जाएगा। कंपनी एक्ट के तहत पांच डायरेक्टर ज़रूरी होते हैं, बोर्ड मीटिंग और रिटर्न फाइलिंग जैसी कानूनी शर्तें पूरी न होने पर एफपीओ बंद भी हो सकते हैं।
सीए पुलकित खंडेलवाल का कहना है – “एफपीओ पहले ही पेशेवर संसाधनों की कमी से जूझ रहे हैं। अचानक इस्तीफों से वे अनुपालन नहीं कर पाएंगे और भारी जुर्माना या बंदी का खतरा होगा।”
सामाजिक पूंजी का नुकसान
सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है कि इस फैसले से ग्रामीण समाज में जो ‘सामाजिक पूँजी’ बनी थी, वह नष्ट हो जाएगी। महिलाएँ और छोटे किसान पहली बार नेतृत्व कर रहे थे, लेकिन अगर उनके हाथ से राशन जैसी बुनियादी सुविधा छिन गई तो वे यह भूमिका छोड़ देंगे।
एपीएमएएस संस्था के सीईओ सी.एस. रेड्डी ने कृषि मंत्रालय को पत्र लिखकर दखल देने की अपील की है। उन्होंने कहा – “कॉरपोरेट डायरेक्टर और एफपीओ डायरेक्टर एक जैसे नहीं हैं। एफपीओ का काम मानद है, इसे आर्थिक स्थिति से जोड़ना गलत है। इससे महिलाओं की भागीदारी पूरी तरह रुक सकती है।”
अनीता जैसी सैकड़ों कहानियां
अनीता मीणा और अन्य एफपीओ डायरेक्टर्स की हालत उस विडंबना को उजागर करती है जिसमें गरीब किसान नेता ‘डायरेक्टर’ जैसे बड़े पद के साथ तो जोड़े जाते हैं, लेकिन उनकी जेब में रोटी का पैसा तक नहीं होता। यह पूरा मामला दिखाता है कि सरकारी नीतियों के बीच कैसे एक ओर किसानों को “आत्मनिर्भर” बनाने का सपना दिया जाता है और दूसरी ओर उसी प्रक्रिया में उनके पेट से निवाला छीन लिया जाता है।