
वजूद के लिए जूझता मलयालम थिएटर, कलाकारों को जुनून बढ़ा रहा है आगे
केरल के व्यावसायिक रंगमंच को पुनर्जीवित करने के लिए व्यापक बदलाव की ज़रूरत है वरना मलयालम रंगमंच अपनी सांस्कृतिक प्रासंगिकता खोने के कगार पर रहेगा।
पहली घंटी बजने में अभी एक घंटे से अधिक का समय बाकी था, लेकिन न कोई अफरा-तफरी थी, न ही कोई घबराहट भरे रिहर्सल। आमतौर पर हड़कंप से भरा रहने वाला ग्रीन रूम इस बार असामान्य रूप से शांत था।
तकनीशियन बिना किसी हड़बड़ी के मंच को सजाने में लगे थे, जैसे वे यह काम बरसों से करते आए हों। कलाकार, जिनका अपने किरदारों पर गहरा अभ्यास था, शायद ही स्क्रिप्ट पर नज़र डालते। वे इन संवादों को वर्षों से जीते आ रहे थे।
इन्हीं सबके बीच बैठे थे 71 वर्षीय केपीएसी राजेन्द्रन, एक ऐसा व्यक्ति जिन्होंने लगभग तीन दशकों तक 'परमू पिल्लै' को जीवंत किया। उनके लिए और उनकी टीम के लिए ‘निंगलेन्ने कम्युनिस्टाकी’ महज़ एक नाटक नहीं था, बल्कि वह उनकी मांसपेशियों की स्मृति बन चुका था, एक लय, जो उनके भीतर समा गई थी।
यह प्रदर्शन अभ्यास का परिणाम नहीं, बल्कि उनकी आदत बन चुका था। फिर भी, हर बार जब वे मंच पर कदम रखते, वह नया सा लगता। इतिहास का भार, संवादों की प्रासंगिकता और दर्शकों की ऊर्जा, यह सब कुछ पुराने को भी फिर से रोमांचक बना देता था।
केरल विश्वविद्यालय के सीनेट हॉल में भारत मुरली मेमोरियल वार्षिक रंगमंच महोत्सव आयोजित होने को तैयार था। जैसे ही रोशनी मंद होगी और परदा उठेगा, एक बार फिर जादू बिखर जाएगा, उत्साह से नहीं, बल्कि उस आत्मविश्वास से जो दशकों की साधना से आता है।
नाटकों के दर्शकों की संख्या वर्षों से धीरे-धीरे घटती जा रही है
रंगमंच के दर्शकों की संख्या वर्षों में घटती गई है
‘निंगलेन्ने कम्युनिस्टाकी’ (तुमने मुझे कम्युनिस्ट बनाया), जिसे पहली बार 1952 में मंचित किया गया था, केरल पीपल्स आर्ट्स क्लब (KPAC) का सबसे अहम नाटक रहा है। इस समूह ने केरल में राजनीतिक नाटकों की परंपरा को एक नई दिशा दी और वामपंथी विचारधारा को जन-जन तक पहुँचाया।
इनके नाटकों की यथार्थवादी शैली ने सामाजिक मुद्दों को बखूबी मंच पर उतारा और व्यापक जनचर्चा को जन्म दिया। वर्षों तक केपीएसी मलयालम रंगमंच का प्रमुख चेहरा बना रहा, जिसने समय के साथ बदलाव भी स्वीकार किए, लेकिन अपनी जड़ों से कभी नहीं भटका।,
राजेन्द्रन ने कहा, “जब मैंने 1970 के दशक में केपीएसी जॉइन किया, तब मैं पहले से ही अन्य नाट्य समूहों के साथ काम कर चुका था और एक अच्छी पहचान बना ली थी। लेकिन केपीएसी कुछ अलग था, यह एक परिवार जैसा था। मैं कॉमरेड भासी जैसे दिग्गजों के साथ काम करता था। आज मैं उसी नाटक को नए कलाकारों के साथ निर्देशित कर रहा हूं, जिसे थॉप्पिल भासी ने रचा था।"
44 वर्षीय अभिनेत्री अथिरा केपीएसी कहती हैं, “मैंने 1996 में 16 साल की उम्र में पेशेवर रंगमंच में अभिनय शुरू किया था। पहले मैं 'सुमम' की भूमिका निभाती थी, अब मुझे 'माला' का किरदार मिला है, जो मेरे लिए गर्व की बात है। शादी के बाद अभिनय से कुछ समय के लिए दूरी बन गई थी, लेकिन अब बच्चों के बड़े होने के बाद दोबारा जुड़ी हूं। केपीएसी में वेतन और सुविधाएं अच्छी हैं, जिससे मैं अपनी बेटी की नर्सिंग पढ़ाई के लिए बचत कर पा रही हूं।”
केपीएसी का गौरवशाली अतीत और वर्तमान की चुनौतियां
केपीएसी की विरासत भावनात्मक लगाव से जुड़ी है, लेकिन इसका पिछला वैभव आज केरल के रंगमंच की हकीकत से मेल नहीं खाता। कभी यह नाटक खेतों-मजदूरों के बीच क्रांति की आवाज बन गया था। लेकिन आज केरल का व्यावसायिक रंगमंच संघर्ष कर रहा है।
टेलीविजन, सिनेमा और डिजिटल मीडिया के उदय ने रंगमंच को हाशिए पर पहुँचा दिया है। सरकारी सहायता, त्योहारों और दर्शकों की पुरानी भावनाओं के भरोसे अब यह ज़िंदा है। नए प्रयोग ज़रूर हो रहे हैं, लेकिन आर्थिक रूप से यह फायदे का सौदा नहीं रहा।
रंगमंच आज के कलाकारों के लिए एक पेशा नहीं, बल्कि जिद बन गया है। अब बड़े सेटअप की बजाय छोटे और अंतरंग प्रस्तुतियों को अपनाया जा रहा है ताकि डिजिटल युग के दर्शकों को जोड़ा जा सके।
“मलयालम रंगमंच की शुरुआत 1903 में ‘सदराम’ से हुई, फिर 1945 में ‘स्त्री’ के ज़रिए नए रूप में उभरा, और 1950 में केपीएसी ने इसे एक क्रांतिकारी मंच में बदला,” बताते हैं करिवेल्लूर मुरली, जो केरल संगीत नाटक अकादमी के अध्यक्ष हैं।
1950 से 1980 के दशक तक, केपीएसी, विश्व केरल कला समिति, चलकुडी गीता आर्ट्स क्लब, कालिदास कला केंद्र, सूर्या सोमा थिएटर जैसे समूहों ने सशक्त सामाजिक नाटकों के ज़रिए जनता को झकझोरा। लेकिन 1990 के बाद लोकप्रिय हल्के मनोरंजन जैसे मिमिक्री और कॉमेडी स्किट्स ने इनके मंचों को हड़प लिया। सुप्रीम कोर्ट की रात 10 बजे के बाद माइक पर पाबंदी ने भी नाटकों की संख्या घटा दी।
आज लगभग 75 सक्रिय रंगमंच समूह केरल में हैं, लेकिन इनमें से कई संघर्षरत हैं। अभिनेत्रियाँ ख़ासतौर पर असमान वेतन, असुरक्षा, और कभी-कभी यौन शोषण जैसी समस्याओं से जूझती हैं। एक 60 वर्षीय महिला कलाकार ने खुलासा किया कि “पहले युवा महिलाओं को बुकिंग एजेंट्स के साथ संबंध बनाने के लिए मजबूर किया जाता था, विशेषकर किसी नाटक के उद्घाटन प्रदर्शन से पहले।”
आज का परिदृश्य
अब अच्छी प्रतिभाओं को ₹6,000–₹7,000 प्रति शो मिल जाते हैं, और औसतन ₹3,000 आम कलाकारों को। केपीएसी जैसे कुछ समूहों ने मासिक वेतन, कल्याण निधि और पीएफ जैसी योजनाएं शुरू की हैं। लेकिन असल संकट यह है कि अब 150 मंच भी किसी नाटक के लिए बड़ी उपलब्धि मानी जाती है, जबकि पहले 300 मंचों का मौसम आम बात थी। एक नाटक को एक सीज़न में पेश करने में ₹10 लाख तक का खर्च आता है।
केपीएसी सचिव ए. शाहजहां कहते हैं, “केपीएसी एक व्यावसायिक समूह नहीं है, हम कलाकारों को भत्ते देते हैं, लेकिन हमारा मकसद सिर्फ मुनाफा नहीं, बल्कि वैचारिक चेतना भी है।”
एक और बड़ी चुनौती है शौकिया रंगमंच का उभार। आज के amateur नाटक विषयवस्तु में मजबूत हैं और व्यावसायिक रंगमंच को प्रतिस्पर्धा दे रहे हैं। ‘मदन मोक्षम्’ जैसे नाटकों को जबरदस्त लोकप्रियता मिल रही है। करिवेल्लूर मुरली कहते हैं, “ऐसे नाटकों का प्रभाव गहरा है, और इन्हें नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।”
प्रासंगिक बने रहने की चिंता
केरल के व्यावसायिक रंगमंच को पुनर्जीवित करने के लिए व्यापक बदलाव की ज़रूरत है—जैसे सुप्रीम कोर्ट की 10 बजे की समयसीमा हटाना, प्रोडक्शन की गुणवत्ता बढ़ाना, और सरकारी सहायता को मज़बूत करना। जब तक ये कदम नहीं उठाए जाते, मलयालम रंगमंच अपनी सांस्कृतिक प्रासंगिकता खोने के कगार पर रहेगा।