
हुमायूं कबीर का यह एकतरफा कदम न सिर्फ कानूनी प्रक्रिया को दरकिनार करता है, बल्कि समानता के लिए चल रहे व्यापक सामुदायिक प्रयासों को भी कमजोर करता है और बीजेपी की ध्रुवीकरण वाली राजनीति को ताकत देने का जोखिम पैदा करता है.
पश्चिम बंगाल के विधायक हुमायूं कबीर द्वारा मुर्शिदाबाद में ‘एक और बाबरी मस्जिद’ बनाने की योजना बेहद पेचीदा है। इस कदम के पीछे की प्रतीकात्मकता भी किसी न किसी तरह बीजेपी की राजनीति से प्रेरित लगती है। बीजेपी की तरह ही, कबीर की योजना इतिहास को राजनीति पर, संकीर्ण सोच को मुक्ति पर और पहचान की राजनीति को बराबरी पर तरजीह देती है। यह कानूनी ढांचे को उलझा सकती है—एक ऐसा माहौल जो पहले ही सार्वजनिक जीवन को परेशान कर रहा है।
अल्पसंख्यक अधिकार जताने की कोशिश, पर खतरा और बढ़ सकता है
मंदिर-मस्जिद विवाद को पहले ही चरम तक ले जाया जा चुका है। ऐसे समय में यह नया कदम शायद बहुसंख्यकवाद के दौर में अल्पसंख्यक अधिकारों पर जोर देने की कोशिश हो, लेकिन यह देश को न्याय से और दूर धकेल सकता है—सिर्फ मुस्लिमों के लिए नहीं, बल्कि पूरे समाज के लिए, खासकर गरीब तबके के लिए।
मुस्लिमों का संयम
पिछले तीन दशकों में मंदिर आंदोलन ने मंडल राजनीति को काटना शुरू किया, और मुस्लिमों को हिंदुत्व की आग में ईंधन की तरह इस्तेमाल किया गया। इसके बावजूद, मुस्लिम समुदाय ने उल्लेखनीय संयम बनाए रखा।
कठिन परिस्थितियों से सीख लेकर, अधिकांश मुस्लिमों ने अपनी प्रतिक्रिया को कानूनी लड़ाई तक सीमित रखा। सामाजिक स्तर पर, उन्होंने अपने बच्चों को शिक्षित करने और सक्षम बनाने की दिशा में पहले से कहीं अधिक ध्यान दिया। यह बात उनके विरोधियों की नजरों से नहीं बची।
उन पर तरह-तरह के ‘जिहाद’ के आरोप लगाए गए—यहां तक कि यूपीएससी में कुछ और मुस्लिमों के सफल होने पर उसे ‘IAS जिहाद’ कहा गया, क्योंकि पिछले कुछ वर्षों की तुलना में सफल मुस्लिम उम्मीदवारों की संख्या थोड़ी बढ़ी।
लगातार बदनामी और खामोश सहनशीलता
हाल ही में, कई मीडिया रिपोर्टों में कानून लागू करने वाली एजेंसियां कुछ गंभीर घटनाओं के लिए ‘एलीट बैकग्राउंड वाले व्हाइट कॉलर जिहादियों’ को जिम्मेदार बताती रही हैं। इस तरह का सामूहिक कलंक, जो उनकी आने वाली पीढ़ियों के लिए हानिकारक हो सकता है, मुस्लिम समुदाय अधिकतर चुपचाप सहता रहा है—यह उम्मीद करते हुए कि देश में अंततः समझदारी कायम होगी और समाज में जाति, धर्म और समुदाय से ऊपर उठकर सामंजस्य बनेगा, जिससे नफरत और तनाव की नई खाई न पैदा हो।
कबीर के गलत और जल्दबाजी वाले कदम
कबीर का यह कदम व्यापक मुस्लिम समाज की उस सामूहिक, भले ही अनकही या अब तक बहुत संयमित इच्छा के खिलाफ जाता है, जिसके ज़रिए वे सांप्रदायिकता को हराना और सौहार्द व साम्प्रदायिक सद्भाव को वापस लाना चाहते हैं।
भूतपूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 1996 में कहा था कि “मुद्दा बाबरी (मस्जिद) नहीं, बराबरी है।” बाबरी मस्जिद के ढहने और पश्चिम बंगाल के इस विधायक द्वारा किसी दूसरी जगह पर दूसरी मस्जिद बनाकर उसे “सुधारने” की जो कोशिश हो रही है, वह पूरी तरह गलत दिशा में उठाया गया कदम है। वे या उनके समर्थक अदालत का सहारा ले सकते थे।
धननिपुर में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए स्थान पर मस्जिद अब तक नहीं बनी
2019 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार अयोध्या के बाहर धननिपुर गाँव में मस्जिद बनाने के लिए जो जमीन दी गई है, वह आज भी खाली पड़ी है—उजड़ी हुई और उपेक्षित। जबकि उसी फैसले के बाद राम मंदिर का निर्माण पूरी तरह हो चुका है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत शीर्ष नेतृत्व ने भव्य समारोह करके उसका उद्घाटन भी किया है।
यदि इस संदर्भ में देखा जाए, तो कबीर के कदम गलत सोच और खराब योजना का नतीजा लगते हैं। इससे उस महत्वपूर्ण मुद्दे से ध्यान भटक सकता है—कि सुप्रीम कोर्ट का 2019 का फैसला अब तक पूरी तरह लागू नहीं हुआ, जबकि उसी फैसले ने मुसलमानों के अधिकार को स्वीकारते हुए मस्जिद के लिए वैकल्पिक जमीन देने का आदेश दिया था।
वाजपेयी का ‘बराबरी’ वाला संदेश
अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि मुद्दा बराबरी का है, लेकिन उनकी और उनकी पार्टी की “बराबरी” की समझ अलग थी और आज भी अलग है।
बीजेपी ने, मंडल आयोग की सिफारिशों से उपजे जातिगत विभाजन के बोझ को मुस्लिमों पर डालने में काफी सफलता पाई। बाबरी मस्जिद–रामजन्मभूमि विवाद के ज़रिए जाति आधारित तनाव को मंदिर के लिए संघर्ष में बदल दिया गया।
1990 में लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा ने इसे एक तरह के “युद्ध” में बदल दिया, और जाति का सवाल पीछे छूट गया।
पुराने दौर के कुछ मुस्लिम नेता भी बने थे बीजेपी की मंदिर राजनीति के औज़ार
उन दिनों कुछ मुस्लिम नेता भी अनजाने या जानबूझकर बीजेपी की मंदिर आंदोलन की राजनीति का हिस्सा बन गए थे। यह आंदोलन इसलिए गढ़ा गया था कि पिछड़े वर्गों के वोट और समर्थन, जो मंडल राजनीति के बाद बीजेपी से दूर जा रहे थे, किसी तरह वापस लाए जा सकें। इन मुस्लिम नेताओं की वजह से ही बीजेपी अपने मकसद में सफल हो पाई। उन्होंने चाहे समझकर या बिना समझे, बीजेपी की उस रणनीति को आगे बढ़ाया, जो उन्हें हिंदू असंतोष का स्रोत बताकर माहौल को उनके खिलाफ मोड़ सकती थी।
इसी तरह बीजेपी जातिगत विभाजन को पीछे धकेलने में सफल हुई और मंदिर आंदोलन ने अंततः पार्टी को सत्ता तक पहुंचा दिया।
कबीर का दावा: ‘भावनात्मक प्रतिपूर्ति’
इन सबके ऊपर, कबीर ने अपने कदम को अयोध्या में 1992 में हुई बाबरी मस्जिद विध्वंस की “भावनात्मक प्रतिपूर्ति” बताया और दावा किया कि वह मस्जिद बनाना और उसका नाम बाबर पर रखना उनका “संवैधानिक अधिकार” है।
अब कबीर उसी राह पर चलते दिखाई देते हैं, जिस पर कभी चुनिंदा मुस्लिम नेतृत्व चला था और जिसके परिणामस्वरूप देश के मुसलमानों को इतिहास की सबसे बड़ी त्रासदियों में से एक का सामना करना पड़ा था। अयोध्या आज जितनी बीजेपी, आरएसएस और उनके संगठनों की “सफलता” का प्रतीक है, उतनी ही मुस्लिम नेतृत्व की विफलता का भी।
व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं का खेल
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के पास उन्हें टीएमसी से निकालने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। फिर भी कबीर ने 6 दिसंबर (शनिवार) को मुर्शिदाबाद के बेलडांगा में कथित "बाबरी मस्जिद" की आधारशिला रख दी। यह स्पष्ट है कि वे सांप्रदायिक राजनीति के उथल-पुथल भरे पानी में दोबारा तैरने की कोशिश कर रहे हैं—ठीक वैसे ही, जैसा अतीत में हुआ और जिसने भारी नुकसान पहुंचाया।
यह कदम उनकी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं से अधिक कुछ नहीं लगता—न पार्टी के हित में, न समुदाय के, और न समाज के, जिसे वह सार्वजनिक जीवन में प्रतिनिधित्व करते हैं।
मुस्लिमों और वंचितों के सामने असली रास्ता
मुसलमानों और अन्य वंचित वर्गों के लिए असली चुनौती भारत के आधुनिक संवैधानिक मूल्यों को अपनाने और उसी पर टिके रहने की है। इन्हीं मूल्यों ने सदियों की भारतीय बुद्धिमत्ता को समेटकर सामूहिक प्रगति का रास्ता बनाया है। यही वह एकमात्र मार्ग है जो उनके व्यक्तिगत और सामूहिक भविष्य को बेहतर कर सकता है।
इससे हटकर, बार-बार अलग-अलग रूपों में उभरते मंदिर–मस्जिद विवादों में फंसना उन्हें एक बार फिर अतीत की खाइयों में धकेल देगा—जहां उद्देश्य केवल चुनाव जीतना होता है, किसी भी कीमत पर।
कबीर का यह दावा कि यह उनका “संवैधानिक अधिकार” है, संविधान की मूल भावना को चोट पहुंचाता है—जिसके केंद्र में सभी के बीच एकता, समानता और भाईचारा है—वे लक्ष्य जिनके लिए संविधान बनाया गया था और जिसने करोड़ों भारतीयों के बेहतर और सम्मानजनक भविष्य का वादा किया था।


