स्टडी वीज़ा से सीधे युद्धभूमि, रूस–यूक्रेन में हरियाणा के युवा क्यों फंसे?
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स्टडी वीज़ा से सीधे युद्धभूमि, रूस–यूक्रेन में हरियाणा के युवा क्यों फंसे?

हरियाणा के दर्जनों युवा स्टडी वीज़ा पर विदेश भेजे गए लेकिन 10 दिन ट्रेनिंग के बाद रूस–यूक्रेन युद्ध में धकेल दिए गए। कई मारे गए, कई लापता, परिवार न्याय माग रहे हैं।


हिसार ज़िले के मदनहेड़ी गाँव में आँगन में रखा एक मौन ताबूत टूटी उम्मीदों का गवाह भी है और संदेशवाहक भी विदेश में पढ़ाई और नौकरी के सपने एक विदेशी युद्ध में दम तोड़कर लौट आए।

घर के भीतर 28 वर्षीय सोनू श्योराण की तस्वीर अगरबत्ती और गेंदे के फूलों से घिरी हुई है। कुछ महीने पहले तक वह हरियाणा के उन हजारों युवाओं में से एक था, जो बेहतर जीवन की तलाश में पढ़ाई के वीज़ा पर विदेश जाने की तैयारी कर रहा था। एक छोटा भाषा कोर्स, मामूली नौकरी और विदेशी मुद्रा में कमाई का सपना। लेकिन 29 अक्टूबर को वह रूस–यूक्रेन युद्ध के मोर्चे से एक ताबूत में लौटा। परिवार का आरोप है कि उसे मुश्किल से दस दिन की ट्रेनिंग देकर युद्ध क्षेत्र में धकेल दिया गया।

सोनू के भाई विकास हाथ में रूसी भाषा में लिखे कागज़ को थामे कहते हैं, “हमें लगा वह रूसी भाषा सीखने और सुरक्षा गार्ड की नौकरी के लिए जा रहा है। एक बार फोन किया था—कह रहा था कि सारे कागज़ रूसी में हैं, वह एक शब्द नहीं पढ़ पा रहा। फिर मुश्किल से दस दिन ट्रेनिंग दी और गन थमा कर बॉर्डर भेज दिया। उसे तब पता चला कि वह युद्ध में है, जब लौटने का कोई रास्ता बाकी नहीं था।”

परिवार को उसका अंतिम कॉल 3 सितंबर को मिला था। कुछ दिनों बाद एक व्यक्ति, जिसने खुद को ‘कमांडर’ बताया, ने सोनू की मौत की सूचना दी। शरीर कुछ समय बाद आया—रूसी यूनिफॉर्म और दस्तावेज़ों के साथ। परिवार ने गूगल ट्रांसलेट की मदद से पता लगाया कि वह पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट थी—वही सुविधा जो सोनू को उसके कॉन्ट्रैक्ट पढ़ने के लिए शायद नहीं मिली, क्योंकि उसका फोन कथित तौर पर अधिकारियों ने छीन लिया था।

परिवार की अब सिर्फ एक मांग है—शहीद का दर्जा। विकास कहते हैं, “किसी ने मुआवज़ा नहीं दिया, कोई अफसर नहीं आया। एक एकड़ ज़मीन थी और हमने पाँच लाख कर्ज़ लेकर उसे भेजा था। अब न सोनू है न बचत।”

हरियाणा में यह अब अकेली कहानी नहीं

उत्तर हरियाणा के कई जिलों में दर्जनों परिवार बता रहे हैं कि उनके बेटे—जो ‘स्टडी वीज़ा’ पर विदेश गए—रूस–यूक्रेन युद्ध में लड़ते पाए गए हैं। 4 दिसंबर को रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन भारत पहुँचे। मोदी–पुतिन बैठक में श्रम गतिशीलता, उद्योग, तकनीक, स्पेस, स्वास्थ्य आदि मुद्दों पर बातचीत होनी थी। लेकिन इन परिवारों के लिए एक ही उम्मीद थी—उनके बेटों की घर वापसी की खबर।

3 दिसंबर को नागौर (राजस्थान) के सांसद हनुमान बेनीवाल ने लोकसभा में यह मुद्दा उठाया कि भारतीय युवाओं को कथित तौर पर रूसी सेना में भर्ती कर युद्ध में भेजा जा रहा है। विदेश मंत्रालय पहले ही बता चुका है कि करीब 44 भारतीय रूस की सेना में सेवा कर रहे थे, और भारत ने औपचारिक रूप से रूस से इस भर्ती को रोकने के लिए कहा है।

रिपोर्टों में बताया गया है कि अब तक 170 भारतीय रूस की सेना में शामिल किए जा चुके हैं, जिनमें से 96 रिहा किए गए, 16 लापता, कम से कम 12 मारे गए।

अमन पुणिया: एक और गुमशुदा जवान

सोनू के ही गाँव में 24 वर्षीय अमन पुणिया की माँ और भाई उसके एक फोन कॉल का इंतजार कर रहे हैं जो अब तक नहीं आया। अमन भारतीय सेना में भर्ती होना चाहता था, लेकिन चयन नहीं हो पाया। एजेंटों ने कहा कि रूस जाकर वह “सिक्योरिटी जॉब” कर खूब कमाई कर सकता है। छोटे भाई आशु बताते हैं, “उसे बताया गया कि सिक्योरिटी की नौकरी है, पर असल में उसे हथियारों की ट्रेनिंग दी गई। सिर्फ दस दिन का प्रशिक्षण और फिर बंदूक थमा दी।”

परिवार को सबसे ज्यादा डर उस पल का है जब अमन कॉन्ट्रैक्ट पढ़ने की कोशिश कर रहा था। “वह गूगल ट्रांसलेट से पढ़ रहा था, पर अधिकारियों ने फोन छीन लिया,” आशु बताते हैं। उसका आखिरी कॉल एक कमांडर के फोन से आया था—उसके बाद कोई संपर्क नहीं।

संदीप: जंगल में फंसे बेटे का वह वीडियो

रोहतक के तैमपुर गाँव में संदीप की माँ बार-बार एक धुंधला वीडियो देखती हैं—जहाँ उनका बेटा मिट्टी से सना हुआ एक खाई में बैठा कह रहा है कि वह घर लौटना चाहता है। पीछे कई और युवक बैठे दिखते हैं, जिन्हें परिवार भारतीय बता रहा है।परिवार के मुताबिक संदीप ने आखिरी बार 1 अक्टूबर को फोन किया था और बताया था कि उन्हें “ड्रोन से एक बार खाना मिल रहा है” और वह किसी जंगल में फंसा है।

पैटर्न साफ़ दिख रहा है:

स्टडी वीज़ा → 10 दिन ट्रेनिंग → फोन जब्त → युद्ध क्षेत्र में धकेलना**

हर परिवार लगभग एक जैसी बातें बता रहा है। एजेंट स्टडी या वर्क वीज़ा बनवाते हैं। रूस पहुँचते ही युवकों को कैंप भेज दिया जाता है। कॉन्ट्रैक्ट रूसी भाषा में होता है, फोन ले लिए जाते हैं

मना करने पर “जेल भेजने” की धमकी

10–12 दिन की ट्रेनिंग के बाद मोर्चे पर तैनाती, एक पिता कहते हैं, “मेरा बेटा बता रहा था कि वह अनुमान लगाकर सीख रहा है—कौन सी आवाज़ माइंस की है, कौन शेल की, कौन ड्रोन की। वे सैनिक नहीं, मजबूर मजदूर हैं।”

ग्रामीण अर्थव्यवस्था और कर्ज़ ने धकेला विदेशी युद्ध में

हर बातचीत में एक कड़वा सच सामने आता है विदेश जाने की सामाजिक प्रतिष्ठा और आर्थिक मजबूरी ने इन लड़कों को वहांपहुंचा। कर्ज़ लेकर एजेंटों को लाखों रुपये दिए जाते हैं। परिवारों पर विदेश भेजने का सामाजिक दबाव। सोशल मीडिया पर विदेश की चमकदार ज़िंदगीडर कि वापस लौटे तो लोग नाकामी कहेंगे। इन्हीं दबावों में शायद ये युवा ऐसे कॉन्ट्रैक्ट पर साइन कर देते हैं, जिसे वे पढ़ भी नहीं पाते और पहुंच जाते हैं युद्ध के मैदान में।

राजनीतिक दखल, जांच और विरोध

हिसार के पूर्व सांसद बृजेन्द्र सिंह ने केंद्र को पत्र लिखकर इसे “गंभीर मानवीय संकट” बताया। मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी ने परिवारों को आश्वासन दिया कि प्रयास जारी हैं।कई जिलों में एजेंटों पर केस दर्ज, कुछ एजेंट ज़मानत पर बाहर। 3 नवंबर को परिवारों ने दिल्ली के जंतर-मंतर पर विरोध प्रदर्शन किया। लेकिन इन कोशिशों के बावजूद परिवारों की पीड़ा वही है। हर फोन की घंटी पर उनका दिल बैठ जाता है कि कहीं यह भी सोनू जैसी खबर न हो।

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