केरल में वापसी की तैयारी में वामपंथी मोर्चा, हिंदू और मुस्लिम वोट साधने की कोशिश
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केरल में वापसी की तैयारी में वामपंथी मोर्चा, हिंदू और मुस्लिम वोट साधने की कोशिश

एलडीएफ को 2020 के स्थानीय निकाय और 2021 के विधानसभा चुनावों में मुस्लिम समुदाय से भारी समर्थन मिला था। लेकिन हाल ही में लोकसभा चुनावों में जमात-ए-इस्लामी जैसी संगठनों के समर्थन से अल्पसंख्यक वोट यूडीएफ की ओर खिसकते दिखे।


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जैसे-जैसे केरल में चुनाव नज़दीक आ रहे हैं, सत्तारूढ़ एलडीएफ (लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट) एक ऐसी रणनीति पर काम कर रही है जो न केवल पुराने घाव भरने का प्रयास करेगी, बल्कि अपने विकासात्मक एजेंडे को मज़बूती से जनता के सामने पेश करेगी और विपक्ष की आंतरिक खींचतान का फायदा भी उठाएगी। स्थानीय निकाय चुनाव और आगामी विधानसभा चुनावों को एक सिलसिले के तौर पर देखा जा रहा है और मुख्यमंत्री पिनराई विजयन की अगुवाई में सरकार सत्ता बरकरार रखने के लिए हर दांव चलने को तैयार है।

अयप्पा सम्मेलन

20 सितंबर को प्रस्तावित ग्लोबल अयप्पा सम्मेलन को केरल हाई कोर्ट से मंज़ूरी मिल चुकी है और इसे एक प्रमुख धार्मिक-सांस्कृतिक आयोजन के रूप में पेश किया जा रहा है। इसके ज़रिए एलडीएफ उन हिंदू मतदाताओं से फिर से जोड़ने की कोशिश कर रही है, जो 2018-19 के शबरीमाला विवाद के दौरान सरकार की सुप्रीम कोर्ट के आदेश के समर्थन में सख्त रुख से नाराज़ हो गए थे। उस समय महिलाओं को मंदिर में प्रवेश देने के फैसले ने कई श्रद्धालु वर्गों को एलडीएफ से दूर कर दिया था। हालांकि बाद में पार्टी चुनावी रूप से बच गई, पर हिंदू वोट बैंक में दरार स्पष्ट थी।

अल्पसंख्यकों में सेंधमारी से चिंतित एलडीएफ

एलडीएफ को 2020 के स्थानीय निकाय और 2021 के विधानसभा चुनावों में मुस्लिम समुदाय से भारी समर्थन मिला था। लेकिन हाल ही में लोकसभा चुनावों में जमात-ए-इस्लामी जैसी संगठनों के समर्थन से अल्पसंख्यक वोट यूडीएफ (कांग्रेस नीत गठबंधन) की ओर खिसकते दिखे। वेलफेयर पार्टी, जो जमीनी स्तर पर यूडीएफ के साथ मजबूती से खड़ी रही है, अब बदले में स्थानीय निकाय चुनावों में सीटों की मांग कर रही है — जिससे एलडीएफ की स्थिति मुस्लिम बहुल इलाकों में कमज़ोर हो सकती है।

बैलेंस साधने की कोशिश

अयप्पा सम्मेलन के बाद सरकार अल्पसंख्यक समुदायों के साथ सीधी बातचीत की योजना बना रही है। एक वरिष्ठ पार्टी नेता ने कहा कि बीजेपी का बढ़ता प्रभाव हमारे और यूडीएफ दोनों के लिए चिंता का विषय है। लेकिन हम फासीवाद और हिंदुत्व विरोधी लाइन पर टिके रहते हैं तो अल्पसंख्यकों को साथ बनाए रखना आसान होता है। हिंदू जातिगत वोटों के लिए विशेष रणनीति चाहिए, वहीं असली चुनौती है।

यूडीएफ की अंदरूनी उठापटक

वहीं, विपक्षी यूडीएफ खुद गंभीर आंतरिक संकटों से जूझ रही है। यूथ कांग्रेस अध्यक्ष राहुल ममकुट्टथिल पर यौन शोषण के आरोप और IUML यूथ लीग के नेता पीके फिरोज पर वित्तीय गड़बड़ी के आरोपों ने यूडीएफ की छवि को नुकसान पहुंचाया है। इसके साथ ही वायनाड जिले में प्राकृतिक आपदाओं के बाद पुनर्वास के वादों को पूरा न कर पाने के कारण यूडीएफ जनता के निशाने पर है — जिसे एलडीएफ प्रचार में भुनाने की तैयारी में है।

एक IUML नेता ने कहा कि हमारी स्थिति मजबूत थी, पर हाल की घटनाओं ने युवाओं का मनोबल गिराया है। वायनाड में पुनर्वास को लेकर कांग्रेस नेतृत्व की असफलता ने हमारे उत्साह पर पानी फेर दिया है।

एलडीएफ को संजीवनी

राज्य की वित्तीय हालत में भी धीरे-धीरे सुधार हो रहा है। पेंशन, स्वास्थ्य सहायता और छात्रवृत्ति योजनाएं अब फिर से ट्रैक पर लौटती दिख रही हैं। यह एलडीएफ को चुनावी प्रचार में ठोस उपलब्धियां बताने का अवसर देती हैं। इसी कड़ी में राज्य सरकार सांस्कृतिक और वैश्विक आयोजनों को भी चुनावी माहौल में भुनाने की कोशिश कर रही है — जैसे लियोनेल मेसी का संभावित दौरा और कोच्चि में चल रहा अर्बन कॉन्क्लेव, जिसे राज्य के विकास मॉडल के प्रदर्शन के रूप में देखा जा रहा है।

पिनराई की रणनीति

मुख्यमंत्री पिनराई विजयन, जिन्हें एक सधे हुए प्रशासनिक नेता के तौर पर पेश किया जाता है, इस बार विकास, स्थिरता और सरकार की निरंतरता को मुख्य मुद्दा बना रहे हैं। शबरीमाला जैसे विवादों के बाद सरकार यह प्रयास कर रही है कि किसी एक समुदाय को तुष्ट करने की छवि न बने। CM पिनराई ने कहा कि केरल हमेशा से शासन और मानव विकास में अग्रणी रहा है। हम संघीय सहयोग के सिद्धांत पर केंद्र सरकार के साथ काम करने के लिए प्रतिबद्ध हैं, खासकर शहरी विकास के क्षेत्र में।

भविष्य की तैयारी

आने वाले महीनों में एलडीएफ सरकार की ओर से योजनाओं की घोषणा, विकास सम्मेलन और सांस्कृतिक आयोजनों की झड़ी लग सकती है — जिन्हें चुनावी मंच की तरह इस्तेमाल किया जाएगा। संदेश साफ़ रहेगा कि केरल में तरक्की वामपंथी सरकार के कारण संभव हुई है और इसी निरंतरता से स्थिरता बनी रह सकती है। लेकिन क्या यह रणनीति वोटरों के बदले राजनीतिक समीकरणों में फिट बैठेगी या फिर जनता बदलाव को तरजीह देगी? इसका जवाब आने वाले चुनाव ही देंगे।

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