फैमिली क्लिनिक से सुपरस्पेशियलिटी तक, केरल की बदलती सेहत कथा
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फैमिली क्लिनिक से सुपरस्पेशियलिटी तक, केरल की बदलती सेहत कथा

रंजिनी की कहानी में केरल की बदली स्वास्थ्य व्यवस्था में बदलाव नजर आता है। फैमिली डॉक्टर का साथ छूटने के साथ निजी इलाज महंगा हो गया है ऐसे में उम्मीद अब सरकारी अस्पतालों से है।


कोच्चि की 58 वर्षीय सेवानिवृत्त शिक्षिका रंजिनी आठ वर्षों से कैंसर से जूझने के बाद अब एक जीवित उदाहरण हैं कि शुरुआती जांच और डॉक्टर के अनुभव से जीवन कैसे बदल सकता है। 2016 में उन्हें रीनल सेल कार्सिनोमा (गुर्दे का कैंसर) हुआ। पहले पांच वर्षों तक हर छह महीने में नियमित जांच होती रही और अब साल में एक बार। लेकिन इस दौरान उन्हें डायबिटीज़, दिल की अनियमित धड़कन और फ्रोज़न शोल्डर जैसी नई स्वास्थ्य समस्याएँ भी हो गईं। हर फॉलोअप पर उन्हें करीब ₹10,000 खर्च करना पड़ता है, जिसमें डॉक्टर की फीस, स्कैन और खून की जांचें शामिल होती हैं।

पारिवारिक डॉक्टर की भूमिका और यादें

रंजिनी का कैंसर पहली बार एक पारिवारिक क्लिनिक में पकड़ा गया, जहाँ वह बचपन से जाती थीं। डॉक्टर मोहम्मद, जो उनके पिता के करीबी मित्र भी थे, ने पीठ दर्द की शिकायत को गंभीरता से लिया और स्कैन की सलाह दी जिससे शुरुआती चरण में ही कैंसर का पता चल सका। डॉक्टर मोहम्मद और उनकी पत्नी दोनों सामान्य चिकित्सक थे, जो आस-पड़ोस के लिए भरोसेमंद 'परिवार के डॉक्टर' थे।

मल्टीस्पेशियलिटी की ओर झुकाव

रंजिनी की कहानी सिर्फ एक रोगी की नहीं, बल्कि उस बदलाव की कहानी है जो केरल की स्वास्थ्य व्यवस्था में गहराई से हो रहा है। पहले जहाँ छोटे क्लिनिक और व्यक्तिगत डॉक्टर आम थे, अब उनकी जगह बड़े कॉरपोरेट अस्पताल और मल्टीस्पेशियलिटी सेंटर ले रहे हैं। तकनीकी सुविधा और विशेषज्ञों की उपलब्धता बढ़ी है, पर साथ ही निजी इलाज का खर्च भी कई गुना बढ़ गया है।

सरकारी अस्पतालों में बढ़ा भरोसा

‘केरल पढ़नम 2.0’ अध्ययन से पता चला कि जहाँ 2004 में केवल 47.4% लोग गंभीर बीमारियों के इलाज के लिए सरकारी अस्पताल चुनते थे, वहीं 2019 तक यह संख्या 61.1% तक पहुँच गई। यह सरकारी सेवाओं की गुणवत्ता में सुधार और निजी इलाज की लागत में वृद्धि दोनों का संकेत है।

छोटे क्लिनिक संकट में

2018 में लागू क्लीनिकल एस्टैब्लिशमेंट एक्ट के बाद छोटे निजी क्लिनिक चलाना महंगा हो गया है। अधिकांश युवा डॉक्टर अब कॉर्पोरेट अस्पतालों या विदेश जाने को प्राथमिकता देते हैं। इससे स्थानीय, किफायती चिकित्सा ढांचा कमजोर हो गया है।

फैमिली डॉक्टर की अहमियत

स्वास्थ्य विशेषज्ञ मानते हैं कि भारत में ‘फैमिली डॉक्टर’ की परंपरा यदि फिर से जीवित हो, तो अनावश्यक जांचों और सर्जरी से बचा जा सकता है। एक ही डॉक्टर अगर परिवार का इतिहास जानता है तो वह मरीज के लिए अधिक संवेदनशील, सटीक और समग्र देखभाल दे सकता है।

सरकार की पहलें और आगे की राह

2017 में शुरू की गई 'आर्द्रम' परियोजना के तहत कुछ प्राइमरी हेल्थ सेंटरों को फैमिली हेल्थ सेंटर में बदला गया, जहां स्टाफ और सुविधाओं में सुधार किया गया। हालांकि, विशेषज्ञ मानते हैं कि अब भी राज्य में रेफरल आधारित इलाज की संरचना कमजोर है। लोग सीधे सुपरस्पेशियलिटी अस्पतालों का रुख कर रहे हैं, जिससे खर्च भी बढ़ता है और प्राथमिक व माध्यमिक स्वास्थ्य सुविधाओं पर भरोसा कम होता जा रहा है।

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