परिसीमन मुद्दे पर केरल और तमिलनाडु एकजुट, जानें क्या है वजह?
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परिसीमन मुद्दे पर केरल और तमिलनाडु एकजुट, जानें क्या है वजह?

अनुमानों से पता चलता है कि केरल की 20 लोकसभा सीटें घटकर 14 या 13 रह सकती हैं. जबकि तमिलनाडु में 39 से 10 सीटें कम हो जाएंगी.


भारत अब तक के पहले पूर्ण पैमाने पर परिसीमन (Delimitation) की तैयारी कर रहा है, जो पिछले पांच दशकों में पहली बार होगा. इस प्रक्रिया के चलते केरल को लोकसभा में अपनी मेहनत से अर्जित राजनीतिक प्रतिनिधित्व खोने का खतरा मंडरा रहा है. यह चिंता केवल केरल में ही नहीं, बल्कि तमिलनाडु और कुछ अन्य दक्षिणी राज्यों में भी महसूस की जा रही है, जिनकी जनसंख्या वृद्धि दर धीमी रही है.

परिसीमन और इसका असर

साल 2026 में सीट आवंटन पर लगी रोक हटने की संभावना है. इसका मतलब है कि केरल जैसे राज्यों को अपनी जनसंख्या वृद्धि दर धीमी होने के कारण संसदीय ताकत में कमी का सामना करना पड़ सकता है. जबकि उत्तर भारतीय राज्य जिनकी जनसंख्या वृद्धि दर ज्यादा है, उन्हें लाभ हो सकता है. आंकड़ों के मुताबिक, केरल की 20 लोकसभा सीटों में से 6 तक कम हो सकती हैं, जिससे राज्य की राष्ट्रीय नीति निर्धारण पर प्रभाव पड़ सकता है. यह बदलाव इसलिए चिंता का विषय बन गया है. क्योंकि केरल ने जनसंख्या नियंत्रण के मामले में प्रभावी नीतियां लागू की हैं और ऐसा लगता है कि उसे इसके लिए सजा दी जा रही है. जबकि इसने भारत के सामाजिक और आर्थिक विकास में अहम योगदान दिया है.

2024 के आंकड़े

इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर पॉपुलेशन साइंसेज (IIPS) के पंकज कुमार पटेल और टीवी शेखर द्वारा किए गए एक स्टडी के अनुसार, 2026 तक उत्तर प्रदेश 91 सीटों पर कब्जा कर लेगा. जो वर्तमान में 80 सीटों से 11 अधिक है. दूसरी ओर तमिलनाडु की 39 सीटों में से 10 सीटें घट सकती हैं. पांच दक्षिणी राज्य (आंध्र प्रदेश, केरल, कर्नाटक, तेलंगाना और तमिलनाडु) मिलकर 26 सीटों से वंचित होंगे. जबकि चार उत्तर भारतीय राज्य (राजस्थान, बिहार, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश) 31 सीटों का लाभ प्राप्त करेंगे.

यह रुझान भविष्य में और भी गहरा सकता है. क्योंकि जनसंख्या के अनुमान यह दिखाते हैं कि बिहार और उत्तर प्रदेश को 2031 तक कुल 22 अतिरिक्त सीटों का फायदा हो सकता है. जबकि केरल और तमिलनाडु को 18 सीटों का नुकसान हो सकता है.

पिनराई का विरोध

यह कोई आश्चर्य की बात नहीं कि केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन ने तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन द्वारा प्रस्तावित लोकसभा परिसीमन का विरोध करने के अभियान को समर्थन दिया है. पिनराई ने स्टालिन के निमंत्रण पर 22 मार्च को चेन्नई में होने वाली बैठक में भाग लेने का निर्णय लिया है.

पिनराई ने कहा कि केंद्र सरकार को लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन पर सर्वसम्मति से निर्णय लेना चाहिए. परिसीमन ऐसा किया जाना चाहिए, जिससे किसी भी राज्य के मौजूदा सीटों का अनुपात कम न हो. उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि जिन राज्यों ने जनसंख्या नियंत्रण नीतियां प्रभावी ढंग से लागू की हैं, उन्हें इसके लिए दंडित नहीं किया जाना चाहिए. यह नाइंसाफी होगी कि उन राज्यों का संसदीय प्रतिनिधित्व घटाया जाए, जिन्होंने केंद्र सरकार की जनसंख्या नियंत्रण योजनाओं के तहत अपनी जनसंख्या को कम किया है. ऐसा करना उन राज्यों को पुरस्कृत करने जैसा होगा, जिन्होंने इस दिशा में कोई प्रयास नहीं किए.

केरल और परिसीमन

केरल पहले भी परिसीमन विवादों से जुड़ा रहा है. 1957 में अपने गठन के बाद राज्य में पहले लोकसभा चुनावों में 18 संसदीय सीटें थीं, जिनमें अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) के प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए कुछ दो-सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र थे. 1962 में सीटों की संख्या घटकर 17 हो गई. लेकिन 1967 में यह बढ़कर 19 हो गई. 1971 की जनगणना के बाद सीटों की संख्या 20 तय की गई. जो 1980 के आम चुनावों से लागू हुई और अब तक अपरिवर्तित रही है.

साल 2009 में 84वें संविधान संशोधन के तहत निर्वाचन क्षेत्रों का पुनर्गठन किया गया, जिसके परिणामस्वरूप वायनाड, अलथुर, मलप्पुरम, चालाक्कुडी, मावेलिक्कारा और अट्टिंगल जैसे नए निर्वाचन क्षेत्र बने. हालांकि, इस पुनर्गठन ने विवाद उत्पन्न किया था, तब भी राज्य की कुल सीटों की संख्या में कोई बदलाव नहीं किया गया.

सीट संशोधन

लोकसभा सीटों के परिसीमन की प्रक्रिया पहले प्रत्येक जनगणना के बाद होने वाली थी. लेकिन 1976 में 42वें संविधान संशोधन के माध्यम से सीट संशोधन को 25 वर्षों तक स्थगित कर दिया गया था और इसे 2001 में दोबारा लागू किया गया. फिर, 84वें संविधान संशोधन के तहत यह और बढ़ा दिया गया, जिससे 2026 के बाद जनगणना के आंकड़ों के आधार पर सीटों में वृद्धि की अनुमति दी गई.

परिसीमन के पक्ष में तर्क

परिसीमन के समर्थक तर्क करते हैं कि देर से परिसीमन की प्रक्रिया के कारण संसदीय प्रतिनिधित्व का असमान वितरण हुआ है. दक्षिणी राज्य, जिनमें परिवार नियोजन और स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में सुधार हुआ है, अब अपनी जनसंख्या के अनुपात में अधिक संसदीय सीटों के हकदार बन गए हैं. इन राज्यों में जनसंख्या वृद्धि धीमी होने के कारण वे अब अधिक प्रतिनिधित्व की आवश्यकता महसूस करते हैं.

परिसीमन का इतिहास

भारत में परिसीमन आयोग चार बार गठित हुआ है: 1952, 1963, 1973, और 2002 में, और हर बार संसदीय सीटों की संख्या में बदलाव किया गया. सबसे हालिया परिसीमन 1972-1976 के बीच हुआ, जिसमें 542 सीटों का आवंटन किया गया था. भारत के पहले चुनावों के बाद, 1951 में बिना किसी परिसीमन आयोग के राष्ट्रपति की सलाह से संसदीय सीटों का आवंटन किया गया था. यह परिसीमन प्रक्रिया भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था और संसदीय प्रतिनिधित्व को समान रूप से सुनिश्चित करने के लिए महत्वपूर्ण कदम है.

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