
जमीन पर हक की लड़ाई: उत्तर गुजरात की मालधारी महिलाएं बनाम परिवार
शंकुबेन मालधारी की कहानी बताती है कि कैसे साहस, कानून और समाज की सोच के बीच एक व्यक्तिगत बदलाव पूरे समुदाय के लिए प्रेरणा बन सकता है।
लगभग पचास वर्ष की शंकुबेन मालधारी अपने समुदाय में एक गृहिणी थीं। लेकिन उन्होंने फैसला किया कि किसी और की जमीन पर मेहनत करके क्यों जीना? उनके जीवन का हर दिन सुबह 5 बजे शुरू होता है। गायों के अस्तबल की सफाई, उनका चारा-पानी, घर का काम और फिर कृर्षि भूमि (खेतार) की यात्रा, जिसका सफर 10 किलोमीटर से भी अधिक है।
सालों की मेहनत
शंकुबेन बताती हैं कि दिन ढलने पर ही काम बंद करते हैं, फिर घर लौटकर रात्रिभोज बनाकर सो जाते हैं। आखिर उम्र यही रही—कहीं 50 पार भी हो गई होगी बस—लेकिन ये दिन-रात की मेहनत, पानी-पौधशाला में काम और सादा जीवन पहने रखा। जीवन में इस साधारण दिनचर्या से जूझते हुए, उन्होंने आखिरकार बदलते समाज और अपने प्रगति को महसूस करना शुरू किया।
संपत्ति में बराबरी का दावा
फरवरी 2005 में, उन्होंने पति के साथ मिलकर अपनी वैवाहिक संपत्ति पर सामूहिक दावा (co-ownership) का आवेदन किया, जिससे उनके जीवन के टर्निंग प्वाइंट की शुरुआत हुई। शुरुआत में गांव वाले चौंक गए, अधिकारियों की छानबीन, उनके ससुर की भड़ास और फिर पूरे गांव में उन्हें चरित्र हनन का सामना करना पड़ा। उन्होंने कहा कि जब मैं बाहर काम करती, लोग मुझसे ऐसे टकटकी लगाते जैसे मैं किसी और की हूं।
गांव जमीन पर अधिकार
पति रंधाबाई के साथ उन्होंने दो एकड़ जमीन पर काम किया। समुदाय में महिलाएं खेतों में काम करती हैं, लेकिन कानून के हाथ में उनका अधिकार नहीं होता। जमीन आमतौर पर पति, पिता या पुत्र द्वारा ही परचों में दर्ज होती है और महिलाओं का नाम वहीं कहीं खो जाता है।
बदलती सोच
अब वह सिर्फ जमीन पर काम करने वाली महिला नहीं रहीं, जिन्होंने समाज की परंपरा को चुनौती दी और संवैधानिक अधिकारों को समझा। अहमदाबाद की कार्यकर्ता नीता मालधारी ने उन्हें बताया कि "2005 के संशोधन के अनुसार बेटियां और बहुएं भी अपने जन्मजात अधिकार की मालिक होती हैं। पहले तो उन्हें दहशत, “बदनसीबी का कारण” समझा गया, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी।
हिस्सेदारी में पहला कदम
सालों की कानूनी लड़ाई के बाद दिसंबर 2023 में शंकुबेन के नाम के साथ पिता और पति का दस्तावेज जारी हुआ। कई अधिकारियों ने तो उलझाने की नीयत से बार-बार जांच के लिए बुलाया, लेकिन उन्होंने डटी रहीं—चाहे उनका बेटा घर से बात ही क्यों न बंद कर दे।
बहुआयामी परिवर्तन
इस जीत ने गांव में एक नई लहर ला दी—अब दूसरी महिलाएं भी अपनी हक की लड़ाई लड़ रही हैं। जैसे कि रामिबेन रबारी, जो अपने पति रामभाई के साथ जमीन और मकान में नाम दर्ज कराने का प्रयास कर रही हैं। उनका कहना है कि हम खेतों की मलमल नहीं हैं—लोग जब मेहनत का भुगतान चाहते हैं तो क्यों न हम भी हक़ पाए?
मातृत्व, मेहनत और समानता की सफलता
यह कहानी सिर्फ जमीन का दावा नहीं है—it’s a story of women’s wage, self-respect, justice and breaking patriarchal chains. आज शंकुबेन मालधारी अपने गांव में स्वतंत्रता और साफ आत्मसम्मान के साथ खड़ी हैं और उनके कदमों की छाप अब दूसरे गांवों तक फैल चुकी है।
सरकारी नियमन
साल 2005 में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम में संशोधन आया—जिसमें बेटियों और बहुओं को जन्म के आधार पर हिस्सेदारी का अधिकार मिला। लेकिन इस अधिकार का प्रयोग ग्रामीण समाज तक पहुंचना अभी एक प्रक्रिया है।