व्यापार से राजनीति तक, क्या है तेलंगाना में मारवाड़ी विवाद?
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व्यापार से राजनीति तक, क्या है तेलंगाना में मारवाड़ी विवाद?

तेलंगाना के अमंगल में मारवाड़ी वर्चस्व के खिलाफ हड़ताल ने व्यापार, राजनीति और संस्कृति का संगम उजागर किया है। स्थानीय पहचान बनाम बाहरी प्रभाव की जंग तेज हुई है।


तेलंगाना के रंगा रेड्डी ज़िले के अमंगल नगरपालिका क्षेत्र में सोमवार, 18 अगस्त को स्थानीय व्यापारियों ने हड़ताल का आह्वान किया। यह हड़ताल क्षेत्र में मारवाड़ी व्यापारिक समुदाय के बढ़ते वर्चस्व के खिलाफ थी। राजस्थान से आए मारवाड़ी व्यापारियों पर आरोप है कि उन्होंने स्थानीय व्यवसायों को नुकसान पहुँचाया है और लगभग हर व्यापारिक क्षेत्र पर कब्ज़ा कर लिया है। इस पूरे विवाद में राजनीति और सामाजिक-सांस्कृतिक पहलू भी गहराई से जुड़े हुए हैं।

अमंगल की समृद्ध पृष्ठभूमि

राजधानी हैदराबाद से लगभग 80 किलोमीटर दूर स्थित अमंगल की आबादी करीब 19,000 है। यहां का व्यापारिक समुदाय रंगा रेड्डी की अर्थव्यवस्था में भारी योगदान देता है। यहाँ प्रति व्यक्ति आय 9.47 लाख रुपये है, जो हैदराबाद से लगभग दोगुनी है। स्थानीय व्यापारियों का आरोप है कि मारवाड़ियों ने वस्त्र, हीरे, सोना, थोक-खुदरा कारोबार और यहाँ तक कि किराना दुकानों पर भी नियंत्रण जमा लिया है। विरोध करने वाले लोग मारवाड़ी गो बैक का नारा लगा रहे हैं।

बीजेपी से जुड़ाव के आरोप

यद्यपि इन आरोपों को प्रमाणित करने के लिए कोई ठोस आँकड़ा उपलब्ध नहीं है, लेकिन राजनीतिक धारणा ने विवाद को भड़का दिया है। मारवाड़ी समुदाय को भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का प्रबल समर्थक और वित्तीय सहयोगी माना जाता है। स्थानीय प्रदर्शनकारियों का मानना है कि मारवाड़ी यहाँ से होने वाले मुनाफ़े को भाजपा के लिए इस्तेमाल करते हैं, जिसे वे "उत्तर भारतीय पार्टी" के रूप में देखते हैं।

विदेशी संस्कृति का सवाल

स्थानीय लोगों का कहना है कि व्यवसाय के साथ-साथ मारवाड़ी समुदाय भाजपा की मदद धार्मिक-सांस्कृतिक गतिविधियों को बढ़ावा देकर करता है, जो उन्हें तेलंगाना की संस्कृति से परे लगती हैं। राम नवमी, गणेश चतुर्थी और दुर्गा पूजा जैसे त्योहारों का आयोजन यहाँ पहले से कहीं बड़े पैमाने पर होने लगा है। विशाल पंडालों को स्थानीय लोग धार्मिक उत्सव से ज़्यादा लाभ कमाने का माध्यम मान रहे हैं।

हालाँकि तेलंगाना में हिंदू समाज लंबे समय से इन पर्वों को मनाता रहा है, लेकिन उनकी "व्यावसायिकता" से स्थानीय लोगों में असंतोष है। उनका मानना है कि "मारवाड़ी तेलंगाना की संस्कृति में घुले-मिले नहीं हैं।"

राजनीति में गहराई

बीजेपी कभी उत्तर भारत में "बनिया पार्टी" कही जाती थी, लेकिन अब उसने जाति और समुदाय से परे राष्ट्रीय स्तर पर आधार बना लिया है। बावजूद इसके, तेलंगाना में पुराने विवादों को राजनीतिक लाभ के लिए फिर से हवा दी जा रही है।तेलंगाना से केंद्रीय मंत्री और भाजपा नेता बंडी संजय कुमार ने इस हड़ताल का मजाक उड़ाते हुए कहा कि यह हिंदुओं के खिलाफ है। जवाब में स्थानीय विरोधियों ने कहा कि उन्हें वोट राजस्थान या हरियाणा से नहीं बल्कि तेलंगाना के हिंदुओं से मिले हैं।माना जा रहा है कि राज्य की सत्तारूढ़ कांग्रेस और विपक्षी भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) इस आंदोलन को परोक्ष रूप से समर्थन दे रहे हैं।

जातिगत सर्वे और संदेह

इस विवाद को राज्य सरकार के हालिया जातिगत सर्वे ने और हवा दी है। सर्वे में पिछड़ी जातियों (बीसी) की संख्या कम दिखी, जबकि अनुसूचित जातियों, जनजातियों और अल्पसंख्यकों की संख्या बढ़ी हुई बताई गई। अचानक हुए इस बदलाव ने संदेह पैदा किया कि कहीं बीसी की संख्या घटाकर आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) के लाभार्थियों को बढ़ाने का प्रयास तो नहीं हुआ। आंदोलनकारियों का आरोप है कि ईडब्ल्यूएस के फायदे मुख्य रूप से सवर्ण समुदाय को मिल रहे हैं।

क्षेत्रीय असंतोष और केंद्र की नीतियां

तेलंगाना अपेक्षाकृत धनी राज्य है, फिर भी यहां यह शिकायत रहती है कि केंद्र सरकार से इसे उचित हिस्सा नहीं मिलता, जबकि यह अधिक कर अदा करता है। दक्षिण भारत के अन्य राज्यों की तरह तेलंगाना की नाराजगी भी राष्ट्रीय राजनीति में क्षेत्रीय बनाम केंद्र की बहस को गहराती है।दिलचस्प बात यह है कि निज़ाम के दौर से हिंदी-उर्दू के मेल से बनी भाषा को यहाँ स्वीकार्यता मिली है, लेकिन मारवाड़ी गो आउट का नारा भाजपा और हिंदुत्व की राजनीति के लिए चुनौतीपूर्ण संकेत है। तेलंगाना की उप-राष्ट्रीयता और स्थानीय पहचान ने पहले भी निज़ाम की सत्ता को झकझोरा था।

बीआरएस का उदय और वर्तमान परिदृश्य

2001 में के. चंद्रशेखर राव ने तेलंगाना राष्ट्र समिति (बाद में बीआरएस) बनाई थी, जिसका मकसद था अलग राज्य का निर्माण। 13 साल बाद यह सपना साकार हुआ और राव पहले मुख्यमंत्री बने। इस आंदोलन ने कांग्रेस और तेलुगु देशम पार्टी को पूरी तरह पीछे धकेल दिया।अब, जब कांग्रेस फिर से सत्ता में आई है और बीआरएस कमजोर हो रही है, स्थानीय पहचान और गर्व की राजनीति एक बार फिर चर्चा में है। बेरोजगारी की ऊंची दर और "स्थानीय अर्थव्यवस्था पर प्रवासियों के कब्ज़े" की धारणा भाजपा के लिए गंभीर चिंता का विषय बन सकती है।

तेलुगु राजनीति में तेलुगु बिड्डा या तेलुगुओं का गौरव हमेशा निर्णायक रहा है। यही कारण था कि 1983 में एनटी रामाराव ने कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर दिया था। आज वही पहचान-आधारित असंतोष भाजपा की राह में नया अवरोध बन सकता है।

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