
विपक्ष संग खड़ी होंगी मायावती या बनेंगी भाजपा की ‘बी-टीम’?
बसपा की घटती ताकत को कांशीराम की विरासत और दलित वोट बैंक से पुनर्जीवित करने की कोशिश में मायावती ने भांजे आकाश आनंद को आगे कर 2027 यूपी चुनाव पर नजरें टिकाईं हैं।
बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की राजनीतिक जमीन भले ही सिकुड़ गई हो, लेकिन क्या यह कहना सही होगा कि पार्टी पूरी तरह खेल से बाहर हो चुकी है? चार दशक पुरानी यह पार्टी हमेशा से दलितों की आवाज रही है और आज भी उनका एक बड़ा तबका मायावती से उम्मीदें लगाए बैठा है।
दलित वोट बैंक और नई चुनौती
मायावती का सबसे बड़ा सहारा आज भी दलित वोट बैंक है। अगर राजनीति ने हाल के वर्षों में संकीर्ण सांप्रदायिक मोड़ न लिया होता, तो शायद यूपी और हिंदी पट्टी में दलित वोट एकजुट होकर फिर से बसपा के साथ खड़े होते। लेकिन मौजूदा परिस्थितियां उनके लिए एक बंद गली साबित हो रही हैं।
कांशीराम का संघर्ष भले ही गांव-गांव साइकिल से घूमकर "एक रुपया और एक वोट" मांगने तक रहा हो, लेकिन आज उनके सपनों की विरासत दलित समाज के साथ-साथ मायावती को भी उलझन में डाल रही है। दलित मतदाता सामाजिक मुक्ति और राजनीतिक-आर्थिक सशक्तिकरण की राह मायावती से पाना चाहते थे, मगर 2012 के बाद यूपी की सत्ता से बाहर रहने के 13 सालों ने बसपा को कमजोर बना दिया है।
कांशीराम की पुण्यतिथि और नई तैयारी
7 सितंबर को लखनऊ के माल एवेन्यू स्थित पार्टी दफ्तर में मायावती ने कार्यकर्ताओं से मुलाकात की और ऐलान किया कि 9 अक्टूबर को कांशीराम की 18वीं पुण्यतिथि पर भव्य कार्यक्रम होगा। मायावती ने मुख्यमंत्री रहते हुए कांशीराम स्मारक का निर्माण कराया था और अब वहीं से वह कार्यकर्ताओं को संबोधित करेंगी। लेकिन केवल स्मृति समारोह से पार्टी की सियासी जमीन मजबूत नहीं होगी। असल चुनौती है मौजूदा सामाजिक-आर्थिक ढांचे के नए बदलाव से निपटना, जहां पीड़ित तबकों को राहत देने के नाम पर उन्हें किसी और समूह पर हावी होने का अवसर दिया जा रहा है।
‘मुस्लिमों का दलितीकरण’ और हिंदुत्व की राजनीति
हाल के वर्षों में "मुस्लिमों का दलितीकरण" एक नया राजनीतिक हथियार बन गया है। दलितों को यह संदेश दिया जा रहा है कि वे अब समाज के उच्च वर्गों जैसे ‘विशेषाधिकार प्राप्त’ हो गए हैं और मुसलमानों-ईसाइयों जैसे अल्पसंख्यकों पर अपनी ताकत दिखा सकते हैं। यही भावना बसपा सहित उन दलित-आधारित पार्टियों की जड़ें खोखली कर रही है, जो बराबरी और न्याय की राजनीति करती हैं।
कांशीराम का सपना और बसपा की राह
1978 में कांशीराम ने BAMCEF की स्थापना की, जिसने बाद में बसपा का रूप लिया। यह एक आंदोलन था, जिसका मकसद वंचित वर्गों को जोड़ना और सत्ता में हिस्सेदारी दिलाना था। 1993 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद बसपा-समाजवादी पार्टी गठबंधन ने भाजपा को पटखनी दी थी।लेकिन समय के साथ बसपा सत्ता-केंद्रित पार्टी बन गई और आंदोलनकारी स्वरूप कमजोर होता गया। मायावती ने भाजपा से गठबंधन कर तीन बार मुख्यमंत्री पद पाया, मगर गठबंधन लंबे समय तक नहीं चला। 2007 में बसपा ने अकेले दम पर जीत दर्ज की, लेकिन उसके बाद मायावती ने प्री-पोल गठबंधन से किनारा कर लिया, सिवाय 2019 में अखिलेश यादव के साथ बने गठबंधन के।
राहुल गांधी की टिप्पणी और गठबंधन की राजनीति
राहुल गांधी ने यहां तक कहा था कि 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले मायावती और अखिलेश अगर INDIA गठबंधन में शामिल होते, तो नरेंद्र मोदी को तीसरी बार प्रधानमंत्री नहीं बनने देते। लेकिन मायावती इस टिप्पणी से प्रभावित नहीं हुईं। सच यह है कि भाजपा जैसे व्यापक सामाजिक आधार वाली पार्टी का मुकाबला अकेली जातिवादी पार्टियां नहीं कर सकतीं।
आकाश आनंद पर भरोसा और बिहार में प्रवेश
अब मायावती ने अपनी पार्टी की बागडोर आंशिक रूप से अपने भांजे आकाश आनंद को सौंपी है। लंदन-शिक्षित 30 वर्षीय आकाश को राष्ट्रीय संयोजक बनाया गया है और उन्हें बिहार चुनाव की तैयारी की जिम्मेदारी दी गई है। 10 सितंबर से वे "सर्वजन हिताय यात्रा" निकालने वाले हैं।हालांकि बिहार में मुख्य लड़ाई भाजपा और कांग्रेस-आरजेडी गठबंधन के बीच है, फिर भी बसपा अपनी मौजूदगी दिखाना चाहती है। आलोचक इसे भाजपा की ‘बी-टीम’ की भूमिका बताते हैं, लेकिन मायावती की असली नजर 2027 के यूपी विधानसभा चुनाव पर है।
आगे की राह
मायावती के लिए जरूरी है कि वह विपक्षी दलों के साथ खड़ी हों, अन्यथा उन्हें भाजपा की सहायक शक्ति ही समझा जाएगा। आम आदमी पार्टी की तरह मुद्दों पर साझा रुख अपनाकर ही बसपा प्रासंगिक हो सकती है। सवाल यह है कि क्या मायावती और उनकी पार्टी अपने संस्थापक कांशीराम के सपनों को फिर से जगा पाएंगे, या इतिहास के पन्नों में सिमट जाएंगे?