BSP Chief Mayawati Samajwadi Party Chief Akhilesh Yadav
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2019 लोकसभा चुनाव में मायावती और अखिलेश यादव ने एक साथ मिलकर बीजेपी के खिलाफ ताल ठोंकी थी।

2019 में अखिलेश पसंद थे अब नहीं, मायावती ने फिर 2 जून का क्यों किया जिक्र

सियासत में स्थाई दुश्मनी या स्थाई दोस्ती का भाव नहीं होता है। अगर ऐसा होता 2019 में मायावती ने 2 जून 1995 की घटना को भुलाया ना होता और 2025 वो एक बार फिर याद नहीं करतीं।


Mayawati 2 June State Guest House Kand: सियासत, सियासी दल और सियासी चेहरे इन तीनों की कहानी रहस्यों के चादर में लिपटी होती है। अगर वो चादर थोड़ी फटी तो अंदर की बात जान सकते हैं या सियासी चेहरे जब बताएं तब आपको मालूम होगा कि पर्दे के पीछे किस तरह का खेल होता है। दरअसल बात उस शख्सियत की करेंगे जिनकी तूती देश के सबसे बड़े सूबे में से एक उत्तर प्रदेश बोला करती थी। यूपी की सियासत में मोटे तौर पर दो राजनीतिक दल बीजेपी और समाजवादी पार्टी सक्रिय हैं और दो राजनीतिक दल बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस जमीन तलाश रहे हैं। हालांकि इन सबके बीच बात हम मायावती की करेंगे जिनकी राजनीतिक ताकत फिलहाल इतनी सी है कि उनका कोई भी नेता फिलहाल संसद में नहीं है। एकलौता नेता उमाशंकर सिंह है जो यूपी विधानसभा में एक मात्र विधायक है।

2007-12 में चरम पर पहुंची बीएसपी का नीला रंग फीका पड़ने लगा। लेकिन 2019 में सपा की मदद से लोकसभा में ताकत मिली। अब यहीं से चर्चा शुरू हुई कि 2 जून 1995 का जिक्र कर सपा के साथ कभी ना जाने की कसम मायावती ने क्यों तोड़ी और अब 2 जून 1995 का जिक्र कर कह रही हैं कि सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव को माफ करना संभव क्यों नहीं है। लेकिन सबसे पहले बात करेंगे कि उस ऐतिहासिक तारीख को हुआ क्या था।

कहानी शुरू होती है 1993 से

1993 में उत्तर प्रदेश की राजनीति ने एक बड़ा मोड़ लिया जब समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने हाथ मिलाकर गठबंधन सरकार बनाई। यह गठबंधन सामाजिक न्याय की अवधारणा पर आधारित था, जिसमें ओबीसी और दलित समाज को साथ लाकर राजनीतिक ताकत बनाई गई थी। लेकिन यह गठबंधन लंबे समय तक नहीं टिक सका। सिर्फ डेढ़ साल बाद, 1 जून 1995 को एक घटना ने यूपी की राजनीति की दिशा ही बदल दी।

उस दिन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव समाजवादी पार्टी के नेताओं के साथ एक बैठक में व्यस्त थे। बैठक के दौरान अचानक कांग्रेस नेता और उस समय के नौकरशाह पी.एल. पुनिया बिना बुलाए बैठक में पहुंचे और एक चिट्ठी मुलायम सिंह को सौंप दी।

समाजवादी पार्टी के नेताओं के अनुसार, चिट्ठी पढ़ते ही मुलायम सिंह का मूड पूरी तरह बदल गया। उन्होंने तुरंत चुनावी तैयारी के आदेश दिए और बैठक वहीं खत्म कर दी। बताया गया कि उस चिट्ठी में लिखा था कि बसपा गठबंधन सरकार से अलग होने जा रही है। हालांकि तब तक कांशीराम ने कोई सार्वजनिक संकेत नहीं दिया था, लेकिन गठबंधन के अंदरूनी तनाव अब सतह पर आ चुके थे।

2 जून 1995 लखनऊ गेस्ट हाउस कांड

गठबंधन टूटने की आशंका के बीच समाजवादी पार्टी के कुछ नेताओं ने सुझाव दिया कि सरकार बचाने के लिए बसपा विधायकों को तोड़ा जाए। 2 जून को मायावती लखनऊ के एक गेस्ट हाउस में पार्टी विधायकों के साथ बैठक कर रही थीं, तभी सपा के विधायक और कार्यकर्ता वहां पहुंच गए।

गेस्ट हाउस में तोड़फोड़, मारपीट, और गाली-गलौज शुरू हो गई। बीएसपी के कई विधायक घायल हुए और उन्हें बंधक बना लिया गया। घबराकर मायावती ने खुद को एक कमरे में बंद कर लिया। जब माहौल हिंसक होता जा रहा था, उसी समय बीजेपी विधायक ब्रह्मदत्त द्विवेदी मौके पर पहुंचे और मायावती को भीड़ से सुरक्षित बाहर निकालने में मदद की। माना जाता है कि अगर वह वक्त पर नहीं पहुंचते, तो मायावती के साथ गंभीर हिंसा हो सकती थी। लखनऊ के तत्कालीन एसएसपी ओपी सिंह पर आरोप लगे कि उन्होंने सपा कार्यकर्ताओं को रोकने की कोई कोशिश नहीं की।

घटना के बाद मीडिया में आई रिपोर्ट्स के अनुसार, करीब 300 सपा कार्यकर्ताओं ने गेस्ट हाउस पर हमला बोला था, जिनकी अगुवाई कुछ क्रिमिनल बैकग्राउंड वाले विधायक कर रहे थे। अजय बोस की किताब ‘बहनजी’ में लिखा है कि मायावती कमरा नंबर 1 में बंद थीं और उनके कमरे के बाहर सपा कार्यकर्ता जातिगत गालियाँ और अश्लील टिप्पणियाँ कर रहे थे। बीएसपी के 5 विधायकों को किडनैप कर जबरन समर्थन पत्र पर साइन कराए गए।

3 जून 1995: सरकार बर्खास्त, मायावती बनीं मुख्यमंत्री

घटना के दूसरे ही दिन, 3 जून को प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने कांग्रेस के दबाव में आकर मुलायम सिंह की सरकार को बर्खास्त कर दिया। उन्हें बहुमत साबित करने का मौका भी नहीं दिया गया। उसी शाम मायावती ने बीजेपी और जनता दल के बाहरी समर्थन से मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। यानी कि 2 साल पहले साल 1993 में सपा-बसपा का मिलन 1995 में खत्म हो गया। दूरी इतनी बढ़ी कि मायावती ने कसम खा ली कि अब मुलायम सिंह से समझौता नहीं।

ऐसे में सवाल यह है कि 2019 में मायावती क्यों सपा के साथ आईं। इस सवाल के जवाब में यूपी की राजनीति पर करीब से नजर रखने वाले शरत प्रधान द फेडरल देश से कहते हैं कि सिर्फ जरूरत। 2014 और 2017 के बाद से गंगा और यमुना में पर्याप्त पानी बह चुका था। दोनों दलों को एहसास हो चला था कि अतीत की बातों में उलझे रहे तो सियासी जमीन पूरी तरह खिसक जाएगी। लिहाजा साथ आना सियासी जरूरत थी। लेकिन एक महिला होने के नाते मायावती कभी भी 2 जून की घटना को भूल नहीं पातीं। आप कैसे भूल सकते हैं, अगर 2 जून 1995 को बीजेपी के कुछ नेता स्टेट गेस्ट हाउस ना पहुंचे होते तो मायावती का जिंदा बचना मुमकिन नहीं था। ऐसे में एक पीड़िता के तौर पर उस मंजर को भूल नहीं पातीं।

शरत प्रधान कहते हैं कि 2019 में जब समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन हो रहा था, उस वक्त भी मायावती व्यक्तिगत तौर पर अखिलेश के साथ नहीं जाना चाहती थीं। लेकिन उनके रणनीतिकारों ने समझाया कि 1995 के लिए जो लोग जिम्मेदार थे या तो वो राजनीतिक तौर पर हाशिये पर हैं या उनका अस्तित्व समाप्त हो चुका है, लिहाज पार्टी के बेहतर भविष्य और तात्कालिक परिस्थतियों के हिसाब से गठबंधन ही बेहतर विकल्प है, हालांकि जब नतीजे आए तो मायावती को लगा कि सपा से जितना सियासी फायदा मिलना था उतना नहीं मिला लिहाजा किनारा कर लिया। अब एक बार फिर 2 जून 1995 को याद करने की बात है तो उसके जरिए वो अपने कोर वोट बैंक को संदेश देने की कोशिश कर रही हैं कि जो पार्टी उनके नेता का नहीं हो सकी वो दलित समाज के आम लोगों से क्या जुड़ेगी। कुल मिलाजुलाकर अपने वोटर्स को संदेश देने की कोशिश कर रही हैं कि इधर उधर बहकने से कुछ भी हासिल नहीं होगा। बीएसपी और आप सबका भविष्य एक साथ मिलजुल कर रहने में है।


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