यूपी की राजनीति में बीएसपी की पकड़ कमजोर पड़ने के साथ ही प्रतिद्वंद्वी भी उसे हराने में जुट गए हैं
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यूपी की राजनीति में बीएसपी की पकड़ कमजोर पड़ने के साथ ही प्रतिद्वंद्वी भी उसे हराने में जुट गए हैं

बसपा के वोट शेयर में गिरावट के कारण मायावती के अनिश्चित फैसले काम नहीं आ रहे हैं, उनके प्रतिद्वंद्वी अब दलित वोट बैंक और यूपी में 11% जाटव वोट पर नजर गड़ाए हुए हैं।


BSP's Future And Mayawati's Politics: पिछले एक दशक में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) सुप्रीमो मायावती की उत्तर प्रदेश के 21 प्रतिशत से अधिक दलित आबादी पर पकड़ कमजोर हुई है। इस दौरान उनके प्रतिद्वंद्वी दलों ने इस मजबूत 'वोट बैंक' में सेंध लगाने का काम किया है। वर्तमान में बसपा का संसद में कोई सदस्य नहीं है, यूपी विधानसभा में केवल एक विधायक बचा है और पार्टी का वोट शेयर लगातार गिर रहा है। वहीं, मायावती के अजीबोगरीब फैसलों ने उनकी पार्टी में असमंजस की स्थिति पैदा कर दी है। इस राजनीतिक उथल-पुथल के बीच उनके विरोधी अब मायावती के प्रभाव वाले जाटव वोट बैंक (जो कुल 11% हैं) को अपनी ओर खींचने की कोशिश में हैं।

गिरता वोट शेयर

मायावती ने हाल ही में अपने भतीजे और उत्तराधिकारी माने जा रहे आकाश आनंद को एक साल में दूसरी बार पार्टी के राष्ट्रीय समन्वयक पद से हटाकर पार्टी से निष्कासित कर दिया। यह फैसला ऐसे समय में आया है जब बसपा अपने सबसे खराब दौर में है। 1990 के दशक से 2012 तक यूपी में बसपा का वोट शेयर 20% से अधिक था, लेकिन 2012 के चुनाव में यह 25.91% और 2017 में 22.23% पर आ गया। 2022 में यह मात्र 12.88% पर सिमट गया।

लोकसभा चुनावों में स्थिति और भी खराब रही। 2024 के चुनाव में बसपा को यूपी की 80 सीटों में से एक भी नहीं मिली और वोट शेयर गिरकर 9.39% पर आ गया।

'अब दलित वोट बैंक कोई भी जीत सकता है'

2022 के यूपी चुनावों और 2024 के लोकसभा चुनावों ने यह धारणा तोड़ दी कि राज्य के दलित मतदाता मायावती के प्रति पूरी तरह वफादार हैं। गैर-जाटव दलित समुदायों ने भाजपा और सपा की ओर रुख कर लिया, क्योंकि इन दलों ने उनके बीच गहरी पैठ बनाने की कोशिश की, जबकि मायावती निष्क्रिय दिखीं।

अब राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि जाटव समुदाय, जो यूपी की कुल दलित आबादी का लगभग आधा हिस्सा है, भी मायावती से निराश हो रहा है। डायनेमिक एक्शन ग्रुप (DAG) के सह-संस्थापक राम कुमार कहते हैं, "अब तक भाजपा, कांग्रेस और सपा मानती थीं कि जाटव बसपा के साथ ही रहेंगे, इसलिए वे अन्य दलित जातियों (पासी, कोरी, धोबी आदि) पर ध्यान केंद्रित कर रहे थे। लेकिन मायावती के फैसलों से अब जाटव भी बसपा से दूर जाने लगे हैं। इसका फायदा दूसरी पार्टियों को मिलेगा।"

क्या आकाश आनंद का निष्कासन बसपा के लिए आत्मघाती साबित होगा?

राम कुमार, जो खुद जाटव समुदाय से आते हैं, कहते हैं, "मायावती के प्रति जाटवों में अब भी सम्मान है, लेकिन पार्टी नेतृत्व से वे लगातार निराश हो रहे हैं। लोकसभा चुनाव के दौरान जब आकाश आनंद ने आक्रामक प्रचार शुरू किया, तो लोगों को एक उम्मीद जगी थी। लेकिन अब जब उन्हें बाहर कर दिया गया है और मायावती खुद सक्रिय नहीं हो रही हैं, तो कार्यकर्ताओं में भारी निराशा है।"

मायावती ने अपने छोटे भाई आनंद कुमार और वरिष्ठ नेता रामजी गौतम को पार्टी का नया राष्ट्रीय समन्वयक नियुक्त किया है, लेकिन इससे भी कार्यकर्ताओं में कोई उत्साह नहीं दिख रहा। एक पूर्व बसपा सांसद के अनुसार, "इन दोनों नेताओं की खुद की कोई राजनीतिक पहचान नहीं है। अगर ये अकेले किसी दलित बस्ती में जाएंगे, तो लोग इन्हें पहचान भी नहीं पाएंगे।"

दलित समर्थन को हल्के में लेना भारी पड़ेगा

बसपा के एक पूर्व सांसद ने कहा, "मायावती यह समझ नहीं रही हैं कि वे दलित समर्थन को हमेशा के लिए हल्के में नहीं ले सकतीं। अब वो समय नहीं रहा जब सिर्फ बसपा का चुनाव चिन्ह 'हाथी' देखकर दलित उनके पक्ष में वोट डाल देते थे। अब दलित यह देख रहे हैं कि उनके लिए कौन सी पार्टी क्या कर रही है।"

उन्होंने आगे कहा, "अगर दलित भाजपा को वोट दे रहे हैं, तो इसलिए कि वह सत्ता में है और बहुत कुछ देने का वादा कर सकती है। वहीं, जब भाजपा दलित विरोधी फैसले लेती है, तो कांग्रेस और सपा खुलकर विरोध करती हैं। लेकिन मायावती चुप रहती हैं। उन्होंने पार्टी में सिर्फ एक ही नेता (आकाश आनंद) को साइड किया, जो वास्तव में दलित मुद्दों पर खुलकर बोल रहे थे। ऐसे में समुदाय को बसपा के साथ क्यों रहना चाहिए?"

आजाद समाज पार्टी को क्यों नहीं मिल रहा फायदा?

बसपा के पतन के साथ ही यह सवाल उठता है कि क्या चंद्रशेखर आजाद की आजाद समाज पार्टी (ASP) इसका फायदा उठा सकती है? चंद्रशेखर आजाद ने 2024 के लोकसभा चुनाव में नगिना सीट से जीत हासिल कर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है, लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि वह अभी तक बसपा के वोट बैंक पर पूरी तरह दावा नहीं कर सकते।

वरिष्ठ पत्रकार सुनीता आरोन के अनुसार, "आजाद के पास न तो वह संसाधन हैं और न ही बसपा जैसी मजबूत संगठनात्मक पकड़।" राजनीतिक विश्लेषक प्रोफेसर रवीकांत का भी कहना है कि, "आजाद खुद को दलित-मुस्लिम गठजोड़ का नेता बनाना चाहते हैं, लेकिन उनके पास स्पष्ट रणनीति नहीं है। सबसे बड़ी बात, वे लगातार मायावती पर हमले कर रहे हैं। भले ही दलित मायावती से निराश हैं, लेकिन वे किसी को भी उनका अपमान करते नहीं देख सकते।"


कौन होगा असली लाभार्थी?

विश्लेषकों का मानना है कि अगर मायावती 1980-90 के दशक जैसी आक्रामक नेता के रूप में वापसी नहीं करतीं, तो उनका पूरा वोट बैंक भाजपा, कांग्रेस और सपा के बीच बंट जाएगा।

रवीकांत कहते हैं, "भाजपा और कांग्रेस को बसपा के पतन से सबसे ज्यादा फायदा होगा। यूपी में दलित समुदाय, खासकर पश्चिमी यूपी और बुंदेलखंड के दलित, समाजवादी पार्टी को संदेह की नजर से देखते हैं।"

उन्होंने आगे कहा, "कांग्रेस के पास मल्लिकार्जुन खड़गे जैसे दलित अध्यक्ष हैं और राहुल गांधी लगातार दलितों के समर्थन में बोलते रहे हैं। कांग्रेस के लिए यह सही मौका है कि वह गैर-जाटव दलितों को पार्टी से जोड़े और साथ ही आकाश आनंद से संपर्क साधे। राहुल गांधी, प्रियंका गांधी और खड़गे को मिलकर या तो आकाश को कांग्रेस में शामिल करना चाहिए या उसे एक नया दल बनाने के लिए समर्थन देना चाहिए। अगर ऐसा होता है, तो यह भाजपा की दलित राजनीति को बड़ा झटका दे सकता है और 2027 के यूपी चुनाव में कांग्रेस-सपा गठबंधन को जबरदस्त फायदा हो सकता है।"

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