गलती हुई अब फिर कभी उधर नहीं जाएंगे,  नीतीश को बार बार क्यों देनी पड़ती है सफाई
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गलती हुई अब फिर कभी उधर नहीं जाएंगे, नीतीश को बार बार क्यों देनी पड़ती है सफाई

नीतीश कुमार ने एक बार फिर कहा कि गलती हुई थी अब उनके साथ नहीं जाएंगे। हाल ही में तेजस्वी यादव से मुलाकात के बाद कयास लगने लगे थे कि सुशासन बाबू का मिजाज बदल तो नहीं रहा।


Nitish Kumar News: नीतीश कुमार वैसे तो सीएम बिहार के हैं लेकिन चर्चा राष्ट्रीय स्तर पर होती है। वो एक ऐसे सियासी चेहरा बन चुके हैं जो खबरों में बने रहते हैं। अब इसमें किसी को दिक्कत क्यों होनी चाहिए। सही बात है दिक्कत नहीं होनी चाहिए। लेकिन उनकी कुछ मुलाकातें संशय और संदेह को जन्म देने लगती है। मसलन हाल ही में उनकी मुलाकात तेजस्वी यादव से हुई तो कयास लगने लगे कि कहीं नीतीश कुमार किसी और राह पर चलने के बारे में तो नहीं सोच रहे। हालांकि इन सबके बीच बिहार में कई स्वास्थ्य परियोजनाओं के शिलान्यास के लिए स्वास्थ्य मंत्री और बीजेपी अध्यक्ष जे पी नड्डा पटना पहुंचे। मुलाकात के दौरान कहा कि गलती हुई थी अब कभी नहीं जाएंगे उनके साथ। इस तरह से उन्होंने कयासों को विराम देने की कोशिश की। हालांकि इस तरह की बात बार बार क्यों आती है।

आंदोलन की उपज हैं लालू- नीतीश
बिहार की सियासत पर नजर रखने वाले कहते हैं कि मूल तौर पर अगर आप देखें तो नीतीश और लालू प्रसाद यादव सामाजिक आंदोलन की पैदाइश है। जब तक कोई आंदोलन चलता है तो उसका एक ही मकसद लक्ष्य को हासिल करना होता है जिसके लिए वो जमीन पर उतरते हैं। लेकिन जब कोई शख्स राजनीति की पिच पर उतरता है तो सत्ता हासिल करना, उसे बचाए रखना जरूरी हो जाता है। अब जब लड़ाई सत्ता हासिल करने की हो तो समय के हिसाब से समीकरण बदलते रहते हैं। बिहार की राजनीति में सामाजिक आंदोलन से जुड़े हुए तीन बड़े नाम लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार और रामविलास पासवान थे। नीतीश और लालू को जहां बिहार संभालने का मौका मिला वहीं राम विलास पासवान का मकसद सीमित हो गया। बिहार की राजनीति में राष्ट्रीय दल भी खुद के लिए क्षेत्रीय दलों में उम्मीद देखते रहे।

जंगलराज बनाम सुशासन राज
बिहार की राजनीति में आज भी लालू के राज को जंगलराज और नीतीश के राज को सुशासन के तौर पर देखा जाता है। अब जंगलराज और सुशासन का मेल कैसे हो सकता है। लेकिन सियासी जरूरत ने दोनों को एक कर दिया। लेकिन व्यवहारिक तौर पर लालू यादव की पार्टी और नीतीश में मेल नहीं था। जब सत्ता के कई केंद्र बनने लगे, पुलिस प्रशासन में जब लालू यादव परिवार के हस्तक्षेप के आरोप लगने लगे तो वो स्थिति नीतीश के लिए राजनीतिक तौर पर फायदे का सौदा नहीं हुआ और उन्होंने पीछा छुड़ा लिया। आरजेडी के साथ जाने और तलाक दोनों को बिहार के भविष्य से जोड़कर खुद को किसी तरह के तोहमत से बचाने की कोशिश की। इन सब कवायद के बीच साल 2020 आया, बिहार चुनावी घमासान में कूद चुका था। जब नतीजे आए तो तेजस्वी यादव की पार्टी सबसे बड़ी पार्टी होने के बाद भी सरकार बनाने से चूक गई।

इस तरह बदलता रहा मन
नीतीश कुमार तीसरे नंबर पर रहे। लेकिन वो सीएम बनने में कामयाब रहे। बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बनाई लेकिन रिश्ता लंबे समय तक नहीं चल सका। उन्होंने फिर आरजेडी में खुद के लिए उम्मीद देखी।लेकिन वो रिश्ता भी नहीं चल सका। फिर उन्होंने पाला बदला पलटू राम का टैग लिए फिर बीजेपी की शरण में आए। संसद के केंद्रीय हाल में कहा कि जो कुछ पीछे हुआ था उसे भूल जाने की जरूरत है। लेकिन नीतीश कुमार के बारे में सियासी दल ही नहीं बिहार की जनता कहती है कि उनके बारे में आप सटीक आकलन नहीं कर सकते। कोई मौकापरस्त बताता है तो कोई सियासत का मंझा खिलाड़ी। अब दोनों में से जिस किसी भी तमगे में दम हो वो अलग बात है लेकिन सियासी बुलबुला फुलाने का मौका तो वो दे ही देते हैं।

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