
बिहार कांग्रेस का मुखिया बदला परेशानी आरजेडी को, आखिर क्या है वजह
बिहार में खुद को मजबूत बनाने की कवायद में कांग्रेस को सतर्क होकर चलना होगा। भरोसेमंद सहयोगी लालू-तेजस्वी यादव की आरजेडी के साथ अपने संबंधों को खतरे में न डाले।
बिहार कांग्रेस के नए अध्यक्ष के रूप में कुटुंबा के विधायक राजेश कुमार की नियुक्ति के साथ, कांग्रेस पार्टी के पास अब चार प्रमुख चेहरे हैं, जिनके कंधों पर इस साल अक्टूबर में होने वाले विधानसभा चुनावों से पहले पार्टी के पुनरुद्धार की बड़ी जिम्मेदारी है। हालांकि, पटना के राजनीतिक गलियारों में हो रही चर्चाओं पर गौर करें तो कांग्रेस नेतृत्व के लिए सबसे पहली चुनौती यह होगी कि उसका चुनावी पुनरुद्धार का प्रयास उसके पुराने और भरोसेमंद सहयोगी लालू और तेजस्वी यादव की आरजेडी के साथ रिश्तों को नुकसान न पहुंचा दे।
चार नेताओं की टीम और कांग्रेस की नई रणनीति
राजेश कुमार की नियुक्ति कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने मंगलवार (18 मार्च) को की। वह दूसरी बार विधायक बने हैं और एक दलित नेता हैं, जो लो प्रोफाइल रहने के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने राज्यसभा सांसद अखिलेश प्रसाद सिंह की जगह ली है, जो ऊंची जाति भूमिहार समुदाय से आते हैं। बिहार कांग्रेस की इस नई टीम में शामिल अन्य प्रमुख नेता हैं – राहुल गांधी के करीबी कृष्णा अल्लावरू, जिन्हें हाल ही में बिहार कांग्रेस प्रभारी नियुक्त किया गया था, और दो नेता – कन्हैया कुमार और पप्पू यादव, जिनके आरजेडी के शीर्ष नेतृत्व से रिश्ते सामान्य नहीं रहे हैं।
कन्हैया कुमार की एंट्री
बिहार कांग्रेस के सूत्रों के मुताबिक, बिहार की जिम्मेदारी संभालने के बाद अल्लावरू का पहला कदम कन्हैया कुमार और पप्पू यादव को सक्रिय राजनीति में शामिल करना था। हालांकि, इन दोनों नेताओं के पास बिहार कांग्रेस में कोई आधिकारिक पद नहीं है, लेकिन अल्लावरू ने इन्हें पार्टी के जनसंपर्क अभियान का चेहरा बना दिया है। इससे पटना में यह अटकलें तेज हो गई हैं कि कांग्रेस की यह रणनीति आरजेडी के साथ उसके गठबंधन को कैसे प्रभावित करेगी।
2019 के लोकसभा चुनाव में बेगूसराय से बीजेपी के गिरिराज सिंह के खिलाफ विपक्ष का सर्वसम्मत उम्मीदवार बनने की कन्हैया की संभावना लालू ने खत्म कर दी थी। उस समय विपक्ष का 'महागठबंधन' (आरजेडी, जेडीयू, कांग्रेस और वाम दल) मजबूत था, लेकिन आरजेडी ने गिरिराज के खिलाफ अपने वरिष्ठ नेता तनवीर हसन को उतार दिया। इस त्रिकोणीय मुकाबले में कन्हैया को 2.70 लाख वोट मिले, लेकिन गिरिराज सिंह ने 6.92 लाख वोटों से जीत दर्ज की, जबकि हसन को 1.98 लाख वोट मिले।
2021 में जब कन्हैया सीपीआई छोड़कर कांग्रेस में शामिल हुए, तो कहा जाता है कि लालू ने कांग्रेस नेतृत्व से यह आश्वासन लिया था कि उन्हें बिहार की राजनीति से दूर रखा जाएगा। इसी कारण कन्हैया को छात्र संगठन एनएसयूआई की जिम्मेदारी दी गई और उन्हें दिल्ली भेज दिया गया। 2024 के लोकसभा चुनाव में उन्हें पूर्वोत्तर दिल्ली सीट से कांग्रेस-आप के संयुक्त उम्मीदवार के रूप में बीजेपी के मनोज तिवारी के खिलाफ उतारा गया, लेकिन वे हार गए।
पप्पू यादव और आरजेडी से दूरी
पप्पू यादव भी आरजेडी से पुराने मतभेदों के कारण कांग्रेस में आए हैं। कभी आरजेडी के उभरते सितारे रहे पप्पू यादव को 2010 में पार्टी से निकाल दिया गया था। 2024 लोकसभा चुनाव से पहले उन्होंने अपनी जन अधिकार पार्टी का कांग्रेस में विलय कर लिया, इस उम्मीद में कि कांग्रेस हाईकमान लालू और तेजस्वी को पुरनिया सीट उन्हें देने के लिए मना लेगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। आरजेडी ने पुरनिया सीट पर दावा ठोक दिया और कांग्रेस ने पप्पू यादव को टिकट नहीं दिया। इसके बाद उन्होंने निर्दलीय चुनाव लड़ा और जेडीयू के संतोष कुशवाहा को 23,000 वोटों के अंतर से हराया, जबकि आरजेडी की उम्मीदवार बीमा भारती अपनी जमानत भी नहीं बचा सकीं।
चुनाव जीतने के बाद से ही पप्पू यादव लगातार आरजेडी पर हमला कर रहे हैं और कांग्रेस से अपील कर रहे हैं कि अगर उसे बिहार में फिर से खड़ा होना है तो उसे लालू का साथ छोड़ना होगा। उन्होंने कहा, "मुझे लालूजी के प्रति पूरा सम्मान है, लेकिन अगर कांग्रेस बिहार में फिर से मजबूत होना चाहती है, तो उसे आरजेडी के दबाव से बाहर आना होगा।"
कांग्रेस में जान फूंकने की कवायद
कन्हैया को बिहार कांग्रेस के ‘पलायन रोको, नौकरी दो’ यात्रा का नेतृत्व सौंपने और पप्पू यादव को पार्टी के जनसंपर्क कार्यक्रमों में सक्रिय भूमिका देने के फैसले ने यह संकेत दे दिया है कि कांग्रेस अपने पुनरुद्धार को प्राथमिकता दे रही है, भले ही इससे आरजेडी के साथ रिश्ते कमजोर हों। कांग्रेस सूत्रों का कहना है कि राजेश कुमार की नियुक्ति और कन्हैया-पप्पू यादव को फ्रंटलाइन में लाने का निर्णय पार्टी हाईकमान की इस मंशा को दर्शाता है कि वह अब लालू और तेजस्वी के प्रभाव से बाहर निकलकर बिहार में अपनी स्वतंत्र पहचान बनाना चाहती है।
जातिगत समीकरण साधने की कोशिश
कांग्रेस ने बिहार में जातिगत संतुलन भी साधने की कोशिश की है। राजेश कुमार एक दलित नेता हैं, कन्हैया भूमिहार समुदाय से आते हैं, और पप्पू यादव यादव समुदाय में प्रभाव रखते हैं। कांग्रेस के तीन लोकसभा सांसदों में से मनोज कुमार दलित हैं, जबकि तारिक अनवर और मोहम्मद जावेद मुस्लिम समुदाय से आते हैं। इससे कांग्रेस दलितों (20%), मुसलमानों (17%) और यादवों (14%) को साधने की रणनीति अपना रही है।
आरजेडी की प्रतिक्रिया
आरजेडी के अंदरूनी सूत्र मानते हैं कि कांग्रेस अगर दलितों को साधती है तो यह गठबंधन के लिए फायदेमंद हो सकता है, लेकिन वे इस बात को लेकर आशंकित हैं कि पार्टी उन नेताओं पर दांव लगा रही है, जो लालू और तेजस्वी के आलोचक रहे हैं। आरजेडी के एक प्रवक्ता ने कहा, "कांग्रेस अपने भीतर किसी को भी प्रमोट कर सकती है, लेकिन उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि बिहार में वह सिर्फ आरजेडी की वजह से प्रासंगिक है।"
एक आरजेडी सांसद ने कहा कि कांग्रेस को यह भ्रम नहीं पालना चाहिए कि वह सात महीनों में खुद को फिर से खड़ा कर सकती है। उन्होंने कहा, "अगर कांग्रेस हमें नुकसान पहुंचाने की कोशिश करेगी, तो हमें भी सख्त फैसले लेने पड़ेंगे।" हालांकि, लालू और तेजस्वी ने फिलहाल कांग्रेस की नई टीम के रवैये का आकलन करने का फैसला किया है, ताकि गठबंधन को नुकसान न पहुंचे और एनडीए को बिहार में फिर से सत्ता में आने का मौका न मिले।
बिहार में कांग्रेस की नई रणनीति पार्टी के पुनरुद्धार की दिशा में एक साहसिक कदम है, लेकिन यह आरजेडी के साथ गठबंधन के लिए एक नई चुनौती भी बन सकती है। अगर कांग्रेस अपने दम पर मजबूत होती है, तो उसे आरजेडी की जरूरत नहीं पड़ेगी, लेकिन अगर उसने लालू-तेजस्वी से दूरी बढ़ाई, तो यह गठबंधन टूट भी सकता है। ऐसे में कांग्रेस का यह दांव 2025 के विधानसभा चुनावों के लिए एक बड़ा राजनीतिक जोखिम साबित हो सकता है।