
थरूर की बढ़ती महत्वाकांक्षा कांग्रेस को नहीं आ रही है रास
15 साल से अधिक समय से कांग्रेस में होने के बावजूद, केपीसीसी के कई नेता अब भी उन्हें 'सिस्टम का हिस्सा नहीं' मानते हैं।
ऑपरेशन सिंदूर के बाद केंद्र सरकार द्वारा अपने कूटनीतिक अभियानों में तिरुवनंतपुरम के सांसद शशि थरूर को प्रमुख सदस्य के रूप में शामिल करने के रणनीतिक निर्णय ने केरल कांग्रेस इकाई में भी बेचैनी पैदा कर दी है। इस कदम ने पार्टी नेतृत्व में उनकी स्थिति पर सवाल खड़े किए हैं और कांग्रेस के मूल संगठनात्मक ढांचे से उनकी बढ़ती दूरी को लेकर बहस छेड़ दी है।
हालांकि विपक्ष के नेता वीडी सतीसन ने सावधानीपूर्वक टिप्पणी करते हुए कहा "मैं सीडब्ल्यूसी सदस्य पर टिप्पणी करने वाला कोई नहीं हूं। हाईकमान निर्णय लेगा और हम उसका पालन करेंगे" लेकिन राज्य नेतृत्व की ओर से संदेश स्पष्ट था थरूर का सत्तारूढ़ दल से हालिया मेलजोल संदेह की दृष्टि से देखा जा रहा है, अगर पूरी तरह से अस्वीकार नहीं किया जा रहा है।
बिना पछतावे के अलगाव
व्यक्तिगत टकराव या गुटबाजी से आगे बढ़ते हुए, थरूर का हालिया ‘बिना पछतावे वाला अलगाव’ केरल की कांग्रेस राजनीति में एक महत्वपूर्ण क्षण है। यह सवाल उठाता है कि राज्य इकाई राष्ट्रीय प्रासंगिकता, पीढ़ीगत संक्रमण और अपने भविष्य की दिशा को कैसे देखती है। सत्तारूढ़ दल द्वारा बनाए गए ऐसे दल का नेतृत्व उन्हें सौंपना केवल प्रतीकात्मक नहीं है — यह शक्ति संतुलन, रणनीति और चुनावी गणनाओं के लिए गहरे निहितार्थ रखता है, सिर्फ केरल ही नहीं बल्कि दिल्ली तक।
गुटों से बाहर की राह
केरल में अधिकतर वरिष्ठ कांग्रेस नेता राज्य के प्रभावशाली गुटों से जुड़े होते हैं — चाहे वह सुधाकरण-मुरलीधरन गुट हो (हालांकि थरूर ने सुधाकरण को केपीसीसी अध्यक्ष पद से हटाए जाने से पहले परोक्ष समर्थन दिया था), सतीसन के नेतृत्व वाला नया खेमे हो या फिर दिवंगत ओमान चांडी के करीबी वरिष्ठ नेताओं का अब कमजोर हो चुका गुट।
लेकिन थरूर ने इससे अलग एकल राजनीतिक मार्ग अपनाया है, जिसमें उनका ध्यान संसदीय प्रदर्शन, विदेश नीति और वैचारिक विमर्श जैसे विषयगत क्षेत्रों पर रहा है — बजाय पार्टी के आंतरिक जोड़-तोड़ या सांगठनिक नेटवर्किंग के।
‘सिस्टम से बाहर’ की छवि
15 साल से अधिक समय से कांग्रेस में रहने के बावजूद, केपीसीसी के कई नेताओं की नजर में थरूर अब भी ‘सिस्टम का हिस्सा नहीं’ हैं। केरल कांग्रेस में नेतृत्व आमतौर पर जमीनी कार्यकर्ता, छात्र राजनीति, ट्रेड यूनियन संघर्षों और पार्टी की सीढ़ी चढ़कर तैयार होता है। लेकिन थरूर की राजनीतिक यात्रा इस ढांचे से अलग रही है। तिरुवनंतपुरम से लगातार तीन बार लोकसभा चुनाव जीतने के बावजूद — जो कि एक शहरी, बहुसांस्कृतिक क्षेत्र है — उन्हें कभी केपीसीसी में कोई महत्वपूर्ण सांगठनिक भूमिका नहीं दी गई या एआईसीसी द्वारा राज्य स्तरीय मामलों को संभालने की जिम्मेदारी नहीं सौंपी गई। उनकी राजनीति का तरीका, जो अधिकतर बौद्धिक विमर्श और संसदीय कार्य पर केंद्रित रहा है, उन्हें राज्य की गुटीय राजनीति के हाशिये पर बनाए रखता है।
राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ता कद
हालांकि राष्ट्रीय स्तर पर उनका कद लगातार बढ़ा है। 2022 में, थरूर ने कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव में राहुल गांधी समर्थित उम्मीदवार को चुनौती देकर पार्टी में कई लोगों को चौंका दिया। हालांकि वह चुनाव हार गए, लेकिन इसके बाद उन्हें कांग्रेस कार्यसमिति (CWC) में शामिल किया गया जो पार्टी की सर्वोच्च निर्णय लेने वाली संस्था है। इससे उपजे असहजता को उस समय और बल मिला जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विजिंजम बंदरगाह के उद्घाटन के अवसर पर, जहाँ थरूर और केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन उनके साथ मंच साझा कर रहे थे, कांग्रेस का उपहास किया। मोदी ने मुस्कुराते हुए कहा, “शशि थरूर और मुख्यमंत्री INDIA गठबंधन के दो स्तंभ यहां मौजूद हैं। इससे कई लोगों की नींद उड़ जाएगी।” इस टिप्पणी को थरूर की बढ़ती स्वीकार्यता और कांग्रेस के आंतरिक विरोधाभासों पर व्यंग्य के रूप में देखा गया।
पार्टी की प्रतिक्रिया तेज थी। एआईसीसी महासचिव केसी वेणुगोपाल ने कहा, “जब देश गंभीर चुनौतियों का सामना कर रहा है, तब हमारे प्रधानमंत्री कांग्रेस की नींद उड़ाने में लगे हैं।” यह टिप्पणी उस असहजता को ढकने की कोशिश थी, जो इस स्थिति से उत्पन्न हुई है।
धीरे-धीरे हो रहा हाशिए पर धकेलना
लेखक और राजनीतिक विश्लेषक एन.ई. सुधीर कहते हैं, “थरूर संयुक्त राष्ट्र के पूर्व अवर महासचिव और पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं। वह निश्चित रूप से एक पूर्व सांसद बने रहेंगे। अगर भविष्य में उन्हें कोई और पद मिलता है — जैसे कि मुख्यमंत्री, हालांकि इसकी संभावना कम है — तो वह एक पूर्व मुख्यमंत्री भी बन जाएंगे। लेकिन वह एक प्रतिष्ठित लेखक हैं और लगभग 25 पुस्तकें लिख चुके हैं। वह कभी 'पूर्व लेखक' या 'पूर्व बौद्धिक' नहीं बन सकते। यही बात उन्हें अलग बनाती है, और वह इसे किसी भी राजनीतिक पद से अधिक महत्व देते हैं। अब सवाल यह है कि क्या वह एक 'पूर्व कांग्रेस नेता' बन जाएंगे? मेरी सीमित जानकारी में, मुझे नहीं लगता कि ऐसा होगा। कांग्रेस शायद उन्हें वह अवसर नहीं देगी । ”
केरल और राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस में थरूर का धीरे-धीरे हाशिए पर जाना अब एक सार्वजनिक प्रक्रिया बन चुकी है। उनके पास पार्टी हाईकमान का समर्थन नहीं है और उन्होंने अभी तक राज्य में कोई प्रभावशाली जमीनी उपस्थिति भी स्थापित नहीं की है।
दलों से परे उनके संकेत
थरूर का राजनीतिक व्यवहार, जो अक्सर विरोधियों के प्रति शिष्टता से भरा होता है, पार्टी के भीतर आलोचना का कारण बन गया है। चाहे भाजपा-नीत केंद्र सरकार के साथ उनके सौहार्दपूर्ण संबंध हों या मुख्यमंत्री पिनराई विजयन के साथ मंच साझा करने में उनका सहज व्यवहार, इन सभी को कांग्रेस के कई नेताओं ने संदेह की नजर से देखा है। ऑपरेशन सिंदूर के बाद जिसे भाजपा ने अपनी आक्रामक राष्ट्रवादी छवि के प्रमाण के रूप में पेश किया यह संदेह चरम पर पहुंच गया।
हालांकि कांग्रेस ने सशस्त्र बलों और राष्ट्र की रक्षा में किए गए किसी भी कार्रवाई को पूर्ण समर्थन दिया, लेकिन इसने मोदी सरकार के तहत राष्ट्रीय सुरक्षा की स्थिति पर तीखे और विशिष्ट सवाल भी उठाए। लेकिन थरूर के सार्वजनिक बयान, जो इस आलोचना से बचते दिखे और केंद्र सरकार की बातों से मेल खाते नजर आए, ने पार्टी में कई लोगों को असहज किया। उन्हें लगा कि थरूर की बातें सेना के समर्थन और भाजपा के राजनीतिक संदेश के समर्थन के बीच की रेखा को धुंधला कर रही हैं।
क्या वह कांग्रेस छोड़ेंगे?
“मुझे नहीं लगता कि वह पार्टी छोड़ेंगे या किसी अन्य पक्ष में शामिल होंगे। थरूर ने लगातार हिंदुत्व राजनीति का विरोध किया है जबकि उन्होंने अपनी हिंदू पहचान को भी स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है — एक ऐसी स्थिति जो भाजपा और आरएसएस दोनों को सहज नहीं लगती। उनके लिए भाजपा के साथ पूरी तरह तालमेल बैठाना भी आसान नहीं होगा, और भाजपा के लिए भी उन्हें समायोजित करना मुश्किल होगा। कांग्रेस के लिए सबसे खराब स्थिति यह होगी कि थरूर ‘लेखन अवकाश’ के बहाने सक्रिय राजनीति से चुपचाप पीछे हट जाएं,” कहते हैं कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता जो अब भी थरूर के प्रति सहानुभूति रखते हैं।
केरल में कांग्रेस के अनुभवी विश्लेषकों के लिए यह घटनाक्रम कोई नया नहीं है। थरूर की यह रणनीति राजनीतिक विरोधियों, विशेष रूप से केंद्र की भाजपा सरकार, के साथ सीधे टकराव से बचना उनके एक विशेष सार्वजनिक छवि का हिस्सा मानी जाती है, लेकिन यह संगठनात्मक विश्वास की कीमत पर आती है।
वर्तमान धारणा यह है कि वह पार्टी की तीव्र टकराव वाली रणनीति के साथ अब तालमेल नहीं बिठा पा रहे हैं, खासकर तब जब कांग्रेस राज्य और राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर एक स्पष्ट वैचारिक विकल्प पेश करने की कोशिश कर रही है।
अगर यह दूरी बनी रही, तो कई लोगों का मानना है कि थरूर न केवल 2026 के मुख्यमंत्री पद की दौड़ से बाहर हो सकते हैं, बल्कि केरल कांग्रेस की रणनीतिक योजनाओं में भी हाशिए पर चले जाएंगे।