सुजीत की हिरासत में यातना क्लिप ने केरल में पुलिस व्यवस्था पर फिर शुरू की बहस
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सुजीत की हिरासत में यातना क्लिप ने केरल में पुलिस व्यवस्था पर फिर शुरू की बहस

वीडियो में 2023 में युवा कांग्रेस नेता की पिटाई दिखाई गई है, जिससे अधिकारियों को पुलिसकर्मियों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की समीक्षा करने पर मजबूर होना पड़ा है, लेकिन राजनीतिक चुप्पी स्पष्ट है.


Kerala Police Torture: सीसीटीवी फुटेज से केरल पुलिस पोल खुल गयी है, जिसने पूरी सरकार को हिला कर रख दिया है। मामला युवा कांग्रेस नेता सुजीत वीएस से जुड़ा है, जिनकी की थाने में की गयी पिटाई से जुड़ा CCTV फुतागे अब सबके सामने आ गया है और राज्य में अब पुलिस सुधारों की पोल खुल गयी है।

सूचना के अधिकार (RTI) के तहत हासिल सीसीटीवी फुटेज, जिसमें युवा कांग्रेस नेता सुजीत वीएस को कुनमकुलम पुलिस स्टेशन के अंदर बेरहमी से पीटते हुए दिखाया गया है, ने केरल की सामूहिक चेतना को झकझोर दिया है और यह उजागर कर दिया है कि राज्य लंबे समय से वादे किए गए पुलिस सुधारों को लागू करने में असफल रहा है।

यह घटना 2023 में हुई थी लेकिन हाल ही में सामने आई। इससे पुराने जख्म हरे हो गए और लोगों को यह याद दिला दिया कि जब कानूनी सुरक्षा उपायों को ताक पर रख दिया जाता है तो किस तरह के खतरे पनपते हैं।

व्यापक गुस्से के बीच सज़ा की समीक्षा

धुंधली लेकिन चौंकाने वाली वीडियो में सुजीत को थाने के अंदर पुलिसकर्मियों द्वारा धक्का-मुक्की और पिटाई का शिकार होते देखा जा सकता है। इस फुटेज ने भारी आक्रोश पैदा कर दिया है, जिसके चलते पुलिस को इसमें शामिल अधिकारियों पर दी गई अनुशासनात्मक कार्रवाई पर फिर से विचार करना पड़ा है।

उस समय सज़ा केवल इतनी ही दी गई थी कि एक सब-इंस्पेक्टर और तीन कॉन्स्टेबल की वेतन-वृद्धि दो साल के लिए रोक दी गई। लेकिन अब, जनता के गुस्से के बीच विभाग इस बात पर बहस कर रहा है कि इतनी नरमी उचित थी या नहीं।

वरिष्ठ अधिकारियों ने संकेत दिया है कि कड़ी सज़ाएं, जैसे पदावनति या बर्खास्तगी पर विचार किया जा सकता है। हालांकि आरोपी अधिकारी यह तर्क दे रहे हैं कि शुरुआती कार्यवाही के बाद कड़ी सज़ा देना "दोहरी सज़ा" (Double Jeopardy) होगी।

राजनीतिक दलों से परे फैला पैटर्न

जैसे-जैसे पुलिस ज्यादती के और मामले सामने आ रहे हैं और नागरिक लगातार उत्पीड़न, दुर्व्यवहार और हिरासत में हिंसा के आरोप लगा रहे हैं, वैसे-वैसे कोझिकोड के 21 वर्षीय वुशु चैंपियन आदिल पी के मामले जैसे उदाहरण यह साफ़ कर रहे हैं कि कभी अपवाद समझे जाने वाले अत्याचार अब एक खतरनाक पैटर्न में बदल गए हैं।

यह आक्रोश किसी एक पार्टी या समुदाय तक सीमित नहीं है। दस साल से अधिक पहले, 2012 में, यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (UDF) सरकार के दौरान स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया (SFI) के एक छात्र नेता को हिरासत में पीटा गया था। वह मामला भी सुजीत के मामले की तरह कभी पूरी तरह हल नहीं हुआ। इस तरह के मामलों की विभिन्न सरकारों में पुनरावृत्ति ने यह साफ कर दिया है कि केरल में हिरासत में हिंसा किसी एक शासन की नाकामी नहीं बल्कि एक संस्थागत बीमारी का लक्षण है।

निष्क्रिय प्रहरी

इस बीमारी के केंद्र में है – स्टेट सिक्योरिटी कमीशन (राज्य सुरक्षा आयोग) की चुप्पी, जिसे इसी तरह के दुरुपयोग से बचाने के लिए बनाया गया था। यह आयोग सुप्रीम कोर्ट के 2006 के ऐतिहासिक प्रकाश सिंह मामले के फैसले के तहत गठित किया गया था, जिसका उद्देश्य पुलिस को राजनीतिक हस्तक्षेप से बचाना, वरिष्ठ अधिकारियों और गृह विभाग को जवाबदेह ठहराना और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करना था।

केरल पुलिस अधिनियम 2011 में इस दृष्टिकोण को शामिल किया गया और आयोग को आधुनिक पुलिसिंग ढांचे का केंद्र बनाया गया। लेकिन वास्तविकता यह है कि आयोग पिछले नौ सालों से बैठक ही नहीं कर पाया। यानी व्यवहार में इसका कोई अस्तित्व ही नहीं है।

केरल हाई कोर्ट के वकील हरीश वासुदेवन ने कहा:

“स्टेट सिक्योरिटी कमीशन, केरल पुलिस ढांचे का हिस्सा होते हुए भी उसके ऊपर खड़ा है, जिसकी शक्तियाँ इतनी हैं कि यह राज्य को जवाबदेह ठहरा सकता है, शायद विधानमंडल से भी अधिक। इसके सदस्य मुख्यमंत्री, विपक्ष के नेता, गृह मंत्री, मुख्य सचिव, राज्य पुलिस प्रमुख और एक न्यायिक प्रतिनिधि होते हैं और एक वैधानिक निकाय होने के नाते यह सीधे न्यायपालिका को जवाबदेह है। यह आयोग पूर्व आईपीएस अधिकारी प्रकाश सिंह की तीन दशक लंबी लड़ाई का नतीजा था। लेकिन यह तथ्य कि एक राज्य सरकार इस प्रावधान को नजरअंदाज कर सकती है, बेहद चौंकाने वाला है। मैं पुलिस को दोष नहीं दे रहा, लेकिन बड़ी सच्चाई परेशान करने वाली है। जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए बनाए गए सिस्टम खुद ही जवाबदेही से रहित लगते हैं।”

नागरिकों के लिए कोई सहारा नहीं

इस निष्क्रियता के परिणाम राज्य के हर पुलिस स्टेशन से निकलने वाले घोटालों में दिखते हैं। आयोग के बिना निगरानी का ढांचा टूटकर उसी विभाग के इर्द-गिर्द सिमट जाता है, जो खुद को ही नियंत्रित करता है। अनुशासनात्मक कार्रवाई, अगर होती भी है, तो प्रतीकात्मक होती है। वास्तविक जवाबदेही केवल तब आती है जब ठोस सबूत – जैसे लीक हुई वीडियो – सार्वजनिक हो जाते हैं।

हरीश वासुदेवन ने आगे कहा:

“केरल पुलिस अनुशासनात्मक नियमों के तहत जाँच अधिकारी और निर्णय लेने वाला अधिकारी अलग-अलग होते हैं। जाँच अधिकारी केवल तथ्यों को दर्ज करता है, कार्रवाई की सिफारिश नहीं करता। निर्णय लेने वाला अधिकारी, जो आरोपी का नियुक्ति प्राधिकारी भी होता है, केवल रिपोर्ट के आधार पर कार्रवाई करता है, तथ्यों, गवाहियों या दस्तावेज़ों को देखे बिना। इसका नतीजा यह होता है कि कार्रवाई व्यक्ति-व्यक्ति पर निर्भर करती है और अनुशासनात्मक कार्यवाही में मनमानी की गुंजाइश बनी रहती है। ऐसे कृत्यों के लिए न्यूनतम सज़ा का कोई प्रावधान नहीं है।”

तीखा आक्रोश, कमजोर प्रतिक्रिया

सुजीत की वीडियो पर जनता की प्रतिक्रिया बेहद तीखी रही है। सोशल मीडिया पर निंदा की बाढ़ आ गई, कार्यकर्ताओं ने दोषियों को सेवा से हटाने की माँग की और विपक्ष ने वाम लोकतांत्रिक मोर्चा (LDF) सरकार पर आरोपी अधिकारियों को बचाने का आरोप लगाया।

फिर भी, प्रतिक्रियाएँ केवल राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप तक ही सीमित रहीं। सत्तारूढ़ मोर्चा ने मामले की फिर से जाँच का आश्वासन दिया, जबकि विपक्ष ने इस्तीफों की माँग की। लेकिन न तो किसी पक्ष ने निष्क्रिय पड़ी स्टेट सिक्योरिटी कमीशन को पुनर्जीवित करने की ठोस बात की और न ही ऐसे ढांचे मज़बूत करने की, जो अगली ज्यादती रोक सकें।

यह राजनीतिक हिचकिचाहट बहुत कुछ कहती है। प्रकाश सिंह सुधारों का मकसद था गृह विभाग से शक्ति हटाकर स्वतंत्र निगरानी तंत्र को देना। किसी भी सरकार के लिए, चाहे वह LDF हो या UDF, आयोग को सक्रिय करना मतलब होता है तबादलों, पदस्थापनाओं और अनुशासनात्मक कार्रवाई पर अपने अधिकार छोड़ना। इसलिए अलग-अलग विचारधारा वाली सरकारों ने भी इसे लागू नहीं किया। नतीजतन, केरल, जो प्रगतिशील शासन और सामाजिक न्याय पर गर्व करता है, अब भी एक ऐसी पुलिस व्यवस्था चला रहा है जिसमें वे जाँच-पड़ताल और निगरानी की ताकतें नहीं हैं जो लगभग दो दशक पहले कल्पना की गई थीं।

कागज़ों तक सीमित सुधार

नागरिकों के लिए यह विरोधाभास और भी कड़वा है। केरल को अक्सर मानव विकास का मॉडल माना जाता है – साक्षरता, स्वास्थ्य और कल्याण की उपलब्धियाँ दुनिया भर में सराही जाती हैं। लेकिन जब हिरासत में रखे गए लोगों के अधिकारों की बात आती है तो राज्य बेहद असुरक्षित दिखता है।

सुजीत की पिटाई का फुटेज इस असुरक्षा की भयावह तस्वीर पेश करता है।

हिरासत में हिंसा कोई अपवाद नहीं बल्कि एक बार-बार लौटने वाला लक्षण है, ऐसे सिस्टम का जहाँ सुधार केवल कागज़ों पर हैं और निगरानी संस्थाएँ निष्क्रिय पड़ी हैं। जब तक स्टेट सिक्योरिटी कमीशन जैसी संस्थाओं को पुनर्जीवित और सशक्त नहीं किया जाता, यह चक्र चलता रहेगा – हर नया घोटाला कुछ समय के लिए आक्रोश भड़काएगा और फिर खामोशी में दब जाएगा।

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