गुजरात में भी जारी है बीजेपी का हिंदी पुश, 2014 से पहले कम था असर
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गुजरात में भी जारी है बीजेपी का 'हिंदी पुश', 2014 से पहले कम था असर

नरेंद्र मोदी,गुजरात के सीएम के रूप में 13 वर्षों तक रैलियों में केवल गुजराती बोलते थे। 2014 के बाद पूरी तरह से हिंदी में बोलने लगे,तब से हिंदी पर जोर दिया जा रहा है।


Hindi Language: बीजेपी की 'हिंदी थोपने' की नीति सिर्फ दक्षिणी राज्यों तक सीमित नहीं है, जैसा कि तमिलनाडु के कड़े विरोध को देखकर कई लोगों को लग सकता है। बल्कि, यह रणनीति प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गृह राज्य गुजरात में भी चुपचाप जारी है, और ऐसा प्रतीत होता है कि खुद मोदी इसके प्रमुख सूत्रधार रहे हैं।

मोदी का भाषाई बदलाव

पिछले साल लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान मोदी ने गुजरात के उत्तर, मध्य और सौराष्ट्र क्षेत्र के गांवों में छह रैलियां कीं। इन सभी रैलियों में उन्होंने ज्यादातर हिंदी में भाषण दिया, केवल प्रभाव डालने के लिए कभी-कभार गुजराती के कुछ वाक्य बोले। यही पैटर्न 2022 के गुजरात विधानसभा चुनावों में भी देखने को मिला, जब उन्होंने राज्यभर में हुई दर्जनों जनसभाओं में हिंदी को प्राथमिकता दी।

हालांकि, 2014 से पहले की स्थिति बिल्कुल अलग थी—जब तक मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे, वे हमेशा गुजराती में ही भाषण देते थे। वे अक्सर 'गुजराती अस्मिता' (गुजराती गर्व) की बात करते थे और इसे अपनी मातृभाषा से जोड़ते थे।

गुजरात में हिंदी 'थोपने' का मुद्दा

गुजरात विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हेमांगकुमार शाह के अनुसार, बीजेपी का हिंदी को बढ़ावा देना पूरी तरह से राजनीतिक है और इसका भाषा से कोई वास्तविक संबंध नहीं है। उन्होंने बताया, "गुजरात में हिंदी में राजनीतिक भाषण देना कोई नई बात नहीं है। कांग्रेस के कई नेता, जैसे पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी, जब गुजरात में प्रचार करने आते थे, तो हिंदी में भाषण देते थे, बिना किसी अनुवादक की मदद के। लेकिन बीजेपी का हिंदी पर जोर राजनीतिक है, और यही असली समस्या है।"

गुजरात विद्यापीठ में हिंदी को थोपने का आरोप

गुजरात में हिंदी को बढ़ावा देने का असर गुजरात विद्यापीठ पर भी पड़ा, जो गुजराती इतिहास, साहित्य और उसकी बोलियों के अध्ययन और शोध का एकमात्र प्रमुख केंद्र है। शाह ने बताया कि 2016 में गुजराती शोध के लिए निर्धारित फंड को डायवर्ट करके वहां हिंदी विभाग खोला गया, जिसका कड़ा विरोध हुआ था।

गुजराती के स्थान पर हिंदी

2019 में, महात्मा गांधी की जन्म शताब्दी के मौके पर गुजरात विद्यापीठ में आयोजित समारोह में सभी भजन हिंदी में गाए गए। तब भी, कई शिक्षकों ने इस पर आपत्ति जताई, क्योंकि यह विद्यापीठ की मूल भावना के खिलाफ था। शाह के अनुसार, इस तरह के फैसले गुजराती भाषा और संस्कृति को धीरे-धीरे पीछे धकेलने की कोशिश का हिस्सा हैं।

गुजरात में फिर से बढ़ाया गया हिंदी का दबाव

2022 में, एक महत्वपूर्ण शैक्षणिक कार्यक्रम में हिंदी को फिर से बढ़ावा दिया गया। गुजरात विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हेमांगकुमार शाह ने बताया, "केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने शिक्षकों से कहा कि वे वेदों और उपनिषदों के अध्ययन को बढ़ावा देने के लिए हिंदी और संस्कृत को प्रोत्साहित करें।" यह बयान उन्होंने भारतीय शिक्षक शिक्षा संस्थान (Indian Institute of Teacher Education) में दिया था।

तीन-भाषा नीति और हिंदी का बढ़ता प्रभाव

2014 तक, गुजराती और अंग्रेजी गुजरात की आधिकारिक भाषाएं थीं, और सभी सरकारी आदेश और अधिसूचनाएं इन्हीं दो भाषाओं में जारी किए जाते थे। लेकिन 2014 के बाद स्थिति बदलने लगी।मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद, गुजरात में पहली बार हिंदी दिवस समारोह और अखिल भारतीय राजभाषा सम्मेलन आयोजित किया गया। इस कार्यक्रम की अध्यक्षता अमित शाह ने की और अपने भाषण में कहा कि हिंदी "गुजराती की बहन भाषा" है।

उसी साल, केंद्र सरकार की एक अधिसूचना के जरिए राज्य के सभी सरकारी अधिकारियों और मंत्रियों को सोशल मीडिया पर हिंदी में संवाद करने का निर्देश दिया गया।इसके तुरंत बाद, राज्य में तीन-भाषा नीति अपनाई गई, जिसमें कक्षा 1 से 8 तक के छात्रों को हिंदी और संस्कृत में से एक चुनने का विकल्प दिया गया।

2016 के बाद हिंदी के प्रचार की रणनीति

2016 तक, गुजरात के कई राष्ट्रीयकृत बैंकों ने अपने कर्मचारियों को हिंदी सिखाने के लिए अभियान शुरू किए। बैंकों में रोजाना सफेद बोर्ड लगाए जाते थे, जिन पर पांच हिंदी शब्द लिखे होते थे, जिनका गुजराती अर्थ भी दिया जाता था, ताकि कर्मचारी उन्हें याद कर सकें।

गुजरात की समाजशास्त्री और लेखिका इंदिरा हीरवे ने कहा, "2014 के बाद हिंदी को व्यवस्थित रूप से बढ़ावा दिया गया। यह मुख्य रूप से शहरी इलाकों तक सीमित है, लेकिन इसे राज्य सरकार द्वारा लगातार आगे बढ़ाया जा रहा है।"

2014 के बाद, गुजरात के मंत्रियों, विधायकों और अहमदाबाद तथा वडोदरा जैसे बड़े शहरों के स्थानीय बीजेपी नेताओं को हिंदी सीखने और संवाद करने के लिए कहा गया।सरकारी कार्यक्रमों में पहली बार हिंदी को प्राथमिकता दी गई, और अब सरकारी आदेश गुजराती, अंग्रेजी और हिंदी—तीनों भाषाओं में जारी किए जाने लगे।हीरवे ने यह भी कहा, "मोदी ने 2014 के बाद गुजरात के गांवों में भी हिंदी में भाषण देना शुरू किया, जो पहले कभी नहीं होता था।"

हिंदी पर कानूनी विवाद

2011 के बाद जनगणना न होने के कारण यह स्पष्ट नहीं है कि केंद्र में बीजेपी सरकार के हिंदी प्रचार अभियान का गुजराती लोगों की हिंदी क्षमता पर क्या प्रभाव पड़ा है। 2011 की अंतिम जनगणना के अनुसार—जिसके बाद हिंदी को बढ़ावा देने की नीति अपनाई गई—राज्य में केवल 8 प्रतिशत गुजराती लोग हिंदी बोल सकते थे।हिंदी में जारी सरकारी अधिसूचनाओं के खिलाफ एक कानूनी मामला भी सामने आया था।

2012 में, कुछ किसानों ने नेशनल हाईवे अथॉरिटी ऑफ इंडिया (NHAI) पर मुकदमा दायर किया, क्योंकि अहमदाबाद-सौराष्ट्र हाईवे के चौड़ीकरण के लिए भूमि-अधिग्रहण की अधिसूचना हिंदी में जारी की गई थी, जिसे किसान पढ़ नहीं पाए।बाद में किसानों ने गुजरात हाई कोर्ट में इसका विरोध किया। अदालत ने किसानों के पक्ष में फैसला सुनाते हुए कहा कि हिंदी गुजरात के ग्रामीण क्षेत्रों में समझी नहीं जाती। अदालत ने राज्य सरकार को निर्देश दिया कि राज्य की अधिसूचनाएं गुजराती में और राष्ट्रीय स्तर की अधिसूचनाएं ग्रामीण क्षेत्रों के लिए हिंदी और गुजराती दोनों में जारी की जाएं।

गुजरात में भाषाओं के प्रति सहिष्णुता

समाजशास्त्री इंदिरा हीरवे के अनुसार, गुजरात में हमेशा भाषाओं के प्रति सहिष्णुता रही है, जो इसे कई अन्य राज्यों से अलग बनाती है।उन्होंने बताया, "गुजरात 1960 में द्विभाषी बॉम्बे राज्य से अलग होकर बना था। लेकिन, महाराष्ट्र के विपरीत, यहां कभी यह मांग नहीं उठी कि सभी को केवल गुजराती ही बोलनी चाहिए। न ही हिंदी बोलने वालों के प्रति कोई असहिष्णुता देखी गई।"

हीरवे के अनुसार, गुजरात की इस भाषाई सहिष्णुता का कारण यहां के राजनेता रहे हैं, जिन्होंने हमेशा गैर-गुजराती भाषाओं को स्वीकार किया।उदाहरण के तौर पर, पूर्व मुख्यमंत्री चिमनभाई पटेल अपने कैबिनेट की बैठकें एक साथ गुजराती और अंग्रेजी में करते थे—मंत्रियों से गुजराती में और अधिकारियों से अंग्रेजी में बात करते थे।

1980 के दशक में, गुजरात में कपड़ा उद्योग के बढ़ने के साथ देशभर से प्रवासी श्रमिक यहां आने लगे। गुजराती समाज ने उनकी भाषाओं को भी अपनाया।इसका सबसे अच्छा उदाहरण सूरत (कपड़ा उद्योग का केंद्र) है, जहां नगर निगम सरकारी स्कूलों को गुजराती के साथ-साथ उड़िया, तेलुगु, उर्दू, मराठी और हिंदी में भी चलाता है।हीरवे का मानना है कि यही कारण है कि बीजेपी को गुजरात में हिंदी को बढ़ावा देने में कोई खास विरोध नहीं झेलना पड़ा।

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