क्या फिर साथ आएंगे अखिलेश यादव-मायावती, 1993, 2019 का स्वाद रहा है कड़वा
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क्या फिर साथ आएंगे अखिलेश यादव-मायावती, 1993, 2019 का स्वाद रहा है कड़वा

समाजवादी पार्टी- बसपा एक साथ मिलकर दो दफा चुनाव लड़ चुके हैं। लेकिन गठबंधन का स्वाद कड़वा ही रहा है। BJP के एक MLA की टिप्पणी के दूरी सिमटती नजर आ रही है।


Akhilesh Yadav- Mayawati News: सियासत, संभावनाओं का खेल है। सत्ता की रेस में मंजिल तक पहुंचने के लिए कला कौशल तो होना ही चाहिए। अब इसके लिए विचारधारा से समझौता करना पड़ जाए तो भी जनहित के लिए यह छोटी सी बात है। भारत की राजनीति की खासियत है कि सियासी तराजू पर जनहित का पलड़ा हमेशा विचारधारा पर हावी रहा है। यहां हम बात देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश की कर रहे हैं। वैसे तो यहां पर विधानसभा का चुनाव 2027 में होना है। लेकिन उससे पहले 10 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव भी होने है। इस उपचुनाव के लिए बीजेपी,समाजवादी पार्टी और बीएसपी तीनों ताल ठोंक रहे हैं, चुनाव भले ही 10 सीटों के लिए होना है। जहां सीएम योगी आदित्यनाथ,अखिलेश यादव की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है वहीं मायावती के सामने तो वजूद का सवाल है।

इन सबके बीच हाल ही में एक ऐसी घटना घटी की जिसके बाद कयास लगाए जाने लगे कि क्या 1993, 2019 के बाद 2027 में अखिलेश यादव और मायावती एक साथ आएंगी। अगर वो एक साथ आती हैं तो क्या बीजेपी की हैट्रिक नहीं लग पाएगी। या दोनों के बीच स्वाभाविक तौर पर किसी तरह का गठबंधन लंबे समय तक नहीं चल सकता। हालांकि उससे पहले हम यह बताएंगे कि वो कौन सी घटना है जिसके बाद अखिलेश यादव, मायावती के समर्थन में उतर पड़े तो मायावती ने भी निराश नहीं किया। सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष का आभार जताया और कम से कम पिछले 10 साल में पहली बार मायावती ने बीजेपी पर भी निशाना साधा। लेकिन पहले उस घटना के बारे में जानिए।

विवादित बयान को अखिलेश ने लपका
मथुरा के मांट से विधायक राजेश चौधरी ने एक टीवी चैनल की डिबेट में कहा था कि मायावती को पहली बार मुख्यमंत्री हमने बनाया, लेकिन वह हमारी भूल थी। उन्होंने कहा कि मायावती यूपी की सबसे भ्रष्ट मुख्यमंत्री रही हैं। चैनल पर एंकर ने यह भी कहा कि आप किसी भावना में बहकर यह बात तो नहीं कह रहे। चाहें तो अपनी बात वापस ले सकते हैं, लेकिन चौधरी अपने बयान पर कायम रहे और कहा कि यह अकाट्य सत्य है कि सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार मायावती सरकार में हुआ। अब इस विषय पर पहली प्रतिक्रिया अखिलेश यादव की तरफ से आई। उन्होंने अपनी पोस्ट में लिखा कि पूर्व मुख्यमंत्री के प्रति कहे गए अभद्र शब्द दर्शाते हैं कि भाजपइयों के मन में महिलाओं और खासतौर से वंचित-शोषित समाज से आने वालों के प्रति कितनी कटुता है। राजनीतिक मतभेद अपनी जगह होते हैं, लेकिन एक महिला के रूप में उनका मान-सम्मान खंडित करने का अधिकार किसी को नहीं है।मायावती ने भी अखिलेश का आभार जताते हुए लिखा- सपा मुखिया ने मथुरा जिले के एक भाजपा विधायक को उनके गलत आरोपों का जवाब देकर बीएसपी प्रमुख के ईमानदार होने के बारे में सच्चाई को माना है, उसके लिए पार्टी आभारी है।
हर बयान के अपने मायने
राजनीति में यूं ही कोई भी नेता बयान नहीं देता। सियासी जमीन पर नेताओं के बीज रूपी बयान फसल बन कर कब लहलहा उठेंगे उसके बारे में भी आप भविष्यवाणी नहीं कर सकते। लेकिन अतीत की घटनाओं से आकलन कर सकते हैं। अब सपा और बसपा एक दूसरे के साथ आ सकते हैं या नहीं इसके लिए इतिहास टटोलना होगा। साल 1993 में मुलायम सिंह और मायावती के बीच गठबंधन हुआ और उसका असर यह हुआ कि कमंडल के नाम पर राजनीति कर सत्ता का स्वाद चख चुकी को करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा था। सपा और बसपा का सामाजिक न्याय का नारा कमंडल पर भारी पड़ा था। लेकिन सत्ता का नशा ही कुछ ऐसा होता है कि अपने अपने से नहीं लगते।
1993 में एका 1995 में दूरी फिर 2019 में साथ
साल 1995 आते आते मुलायम सिंह और मायावती के बीच दूरी बढ़ने लगी और स्टेट गेस्ट हाउस कांड वो घटना हुई जिसके बाद दोनों के रास्ते अलग अलग हो गए। सियासी आवश्यकता ने बीजेपी और बसपा को एक साथ होने पर मजबूर कर दिया। लेकिन विचारधारा के बेमेल गठबंधन की मियाद लंबी नहीं होती। हालांकि सियासी मौसम एक जैसा भी नहीं रहता। 2017 में जब बीजेपी ने बसपा और सपा दोनों को बुरी तरह रौंद दिया तो उसका असर 2019 में नजर आया। 1995 में मायावती अपने ही उस बयान को भूल चुकी थीं कि जिसमें कहा था कि सपा के साथ अब समझौता नहीं। लेकिन 2019 में साइकिल और हाथी के बीच गठबंधन हुआ। उस गठबंधन का फायदा मायावती को हुआ उनके 10 सांसद चुने गए। लेकिन सपा पर वोट ट्रांसफर का आरोप लगा अलग रास्ते पर चल पड़ीं। लेकिन यह सत्य है कि बसपा को अकेले ना तो 2022 और ना ही 2024 में कामयाबी मिली। इन सबके बीच 37 सीट पाने के बाद अखिलेश यादव के हौसले बुलंद हैं. उन्हें लगता है कि अगर सामाजिक खेमेबंदी को सपा और बसपा दोनों साधने में कामयाब रहे तो 2027 में यूपी विधानसभा में जीत हासिल की जा सकती है।
बीजेपी पर असर
यहां सवाल ये है कि क्या बीजेपी साफ हो जाएगी। इस सवाल का जवाब 2019 के नतीजों में छिपा है। सपा और बसपा दोनों एक साथ मिलकर चुनाव लड़े लेकिन 15 के आंकड़े से आगे नहीं बढ़ सके। 2022 में दोनों अलग अलग चुनाव लड़े और बीजेपी की सीट संख्या में कमी आई। 2024 में भी रास्ते अलग थे। लेकिन समाजवादी पार्टी को कामयाबी मिली। इस सवाल के जवाब में सियासी पंडित जवाब कुछ ऐसे देते हैं। इस सच्चाई से इनकार नहीं किया जा सकता है कि सामाजिक गोलबंदी जितनी मजबूत होगी बीजेपी की राह आसान नहीं रहने वाली। 2024 का नतीजा सबसे बेहतरीन उदाहरण है। लेकिन आप इस सच्चाई से इनकार नहीं कर सकते कि अब 1995 वाला समाज नहीं है।
अब लाभार्थी वर्ग का उदय हुआ है। उसके जीवन स्तर में सुधार हो रहा है और वो भी राजनीतिक चेतना का हिस्सा बन रहा है। अब वो भी अपने बुरे भले के बारे में सोच रहा है। लिहाजा आप यह कह सकते हैं कि सियासी लड़ाई अब किसी दल के लिए उतनी आसान नहीं होने वाली है। सिर्फ सीट हासिल करने के लिए गठबंधन प्रभावी नहीं हो सकता क्योंकि कि सत्ता हासिल करने का सिद्धांत यही है कि पहले दूसरे की मदद से सरकार का हिस्सा बनो और फिर धीरे धीरे उसी सहारे को सियासी जमीन में दफ्न कर दो।
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