तेंदुओं के हमले के भय से क्यों बंधक बने हैं उत्तराखण्ड के कुछ हिस्से? क्यों सामान्य नहीं हो पा रहा जीवन?
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तेंदुओं के हमले के भय से क्यों बंधक बने हैं उत्तराखण्ड के कुछ हिस्से? क्यों सामान्य नहीं हो पा रहा जीवन?

विशेषज्ञों का कहना है कि जहाँ पहले तेंदुए ज़्यादातर घरेलू जानवरों को ही उठा ले जाते थे, वहीं हाल के वर्षों में इंसान भी उनके हमलों का शिकार बनने लगे हैं। वजह क्या है? तेंदुओं की संख्या में बढ़ोतरी और जंगलों में भोजन की उपलब्धता में कमी, जिसने इन जानवरों को मजबूर कर दिया है कि वे इंसानी बस्तियों की ओर अधिक बढ़ें। 'द फेडरल देश' की ये स्पेशल रिपोर्ट


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मशहूर शिकारी और लेखक जिम कॉर्बेट अपनी पुस्तक 'द मैन ईटर ऑफ रुद्रप्रयाग' में उस खौफ़ का ज़िक्र करते हैं जो उस तेंदुए ने फैलाया था, जिसके नाम पर किताब को शीर्षक दिया गया और जिसे अंततः कॉर्बेट ने ही मारा। 1918 में जब वह तेंदुआ नरभक्षी बना और 1926 में जब कॉर्बेट ने इसे ढेर किया, तब तक वह तेंदुआ 125 इंसानों की जान ले चुका था। कॉर्बेट ने उसे मारने से पहले पूरे 10 महीने तक इसका पीछा किया था; उन्होंने लिखा है कि उन्होंने यह शिकार 1925 में शुरू किया था।

एक सदी बाद, उत्तराखंड, जिसका रुद्रप्रयाग भी हिस्सा है, फिर उसी दहशत के साये में जी रहा है। फर्क सिर्फ इतना है कि अब यह डर किसी एक तेंदुए से नहीं, बल्कि कई तेंदुओं से है, जो खासकर राज्य के पौड़ी गढ़वाल ज़िले में स्थानीय निवासियों पर लगातार हमला कर रहे हैं।

अभी 12 सितंबर की बात है। पौड़ी गढ़वाल ज़िले में पोखड़ा ब्लॉक है। इस ब्लॉक में एक श्रीकोट नाम का गांव पड़ता है। शाम करीब 8.30 बजे का वक़्त रहा होगा। 4 साल की बच्ची रिया अपनी मां के साथ के घर छज्जे पर खेल रही थी। वह बच्ची उस दिन बहुत चहक रही थी क्योंकि उस दिन उसका जन्मदिन था। प्राइवेट नौकरी करने वाले उसके पिता जितेंद्र सिंह रावत भी बिटिया का जन्मदिन मनाने गांव आए हुए थे। लेकिन तभी परिवार की खुशियां पलभर में चीख-पुकार और मातम में बदल गईं। रिया पर अचानक गुलदार झपट पड़ा। वो बिजली की गति से आया और बच्ची जबड़े में दबाकर ले गया। घरवालों और बाकी लोगों ने गुलदार का पीछा किया लेकिन उनके हाथ बच्ची का क्षत-विक्षत शव ही लगा।

इस वारदात से करीब तीन हफ़्ते पहले पौड़ी गढ़वाल ज़िले के ही सतपुली में 22 अगस्त 2025 की रात लगभग 8 बजे नेशनल हाईवे को चौड़ा करने के काम में शामिल एक नेपाली मज़दूर रमेश के दो साल के बच्चे को तेंदुआ सड़क किनारे बने उनके टेंट से उठा ले गया। सुबह बच्चे का अधखाया शव मिला। सिर्फ हाथ ही मिल पाया। गुलदार बच्चे को अपना निवाला बना चुका था।



सतपुली (पौड़ी गढ़वाल) में अपने 2 साल के बच्चे को तेंदुए द्वारा उठा ले जाने के बाद जमीन पर बदहवास बैठी मां ( वीडियो ग्रैब साभार : जॉय हुकिल)


इस घटना के दो दिन बाद गुलदार ने इसी इलाके में मजदूरों के डेरे पर फिर हमला किया। गुलदार ने टेंट में माता-पिता के बीच सो रहे 9 साल के बच्चे को खींचने का प्रयास किया। इस दौरान पिता टेंट के भीतर बेटे को पकड़े रहे, जबकि गुलदार बाहर से बच्चे को खींचता रहा। हाथ दबोचे जाने से बच्चा घायल हो गया। शोर मचने पर गुलदार जंगल की ओर भाग गया।

सतपुली में एक बच्चे को मारने और एक बच्चे को घायल करने वाले तेंदुए को बाद में वन विभाग ने पिंजड़ा लगाकर पकड़ लिया। पोखड़ा में भी रिया नाम की बच्ची को उठा ले जाने वाले तेंदुए को भी पकड़ लिया गया। तब से इलाके में फिलहाल शांति है। लेकिन उसके एक हफ्ते बाद रुद्रप्रयाग ज़िले के बसुकेदार इलाके में भी गुलदार ने एक महिला पर हमला कर दिया। यह 19 सितंबर की बात है। 60 साल की दिनेश्वरी देवी, पत्नी सोबन सिंह भंडारी, जंगल में घास काटने गई थी। तभी वहां पर घात लगाए बैठे गुलदार ने उन पर हमला कर दिया। वह महिला इसलिए ज़िंदा बच गईं क्योंकि उन्होंने दराती से गुलदार का मुकाबला किया। हालांकि इस हमले में महिला के सिर और शरीर के बाकी हिस्से पर गहरे घाव आए हैं। उनके सिर पर टांके लगाने पड़े।

रुद्रप्रयाग जिले में दो महीने के भीतर गुलदार के हमले की ये दूसरी घटना है। अभी जुलाई महीने की ही बात है जब अगस्त्यमुनि क्षेत्र के धान्यो गांव में देर रात एक तेंदुआ एक घर में घुस गया और सो रही एक महिला कुशला देवी पर हमला कर दिया। वो तो गनीमत है कि कुशला देवी के पति ने बहादुरी दिखाते हुए गुलदार पर लाठी से प्रहार करके उसे भागने को मजबूर कर दिया लेकिन इस हमले में कुशला देवी के नाक और माथे पर गंभीर चोटें आईं।

पौड़ी गढ़वाल ज़िले के कबरा गांव के राजेश डोबरियाल कहते हैं,"दरअसल हर दम डर में जीना बहुत बड़ी सज़ा है। एक बार मेरे गांव में मेरी चाची पर तेंदुए ने तब हमला कर दिया था, जबकि मेरी चाची घर के नीचे किचन गार्डन में काम कर रही थी। चाची ने बहुत दिलेरी के साथ उस तेंदुआ का मुकाबला किया और बच गई लेकिन उस घटना के बाद से हमारे परिवार में लंबे समय तक दहशत रही।"

उत्तराखंड क्षेत्र के लिए तेंदुए का आतंक कोई नई बात नहीं हैं। अगर जिम कॉर्बेट ने रुद्रप्रयाग के नरभक्षी तेंदुए के शिकार को अपनी किताब में दर्ज किया, तो उत्तराखण्ड के लोकगीतों में भी उसका जिक्र आया है। कुछ साल पहले बेहद एक पुराने गढ़वाली लोकगीत का रीमिक्स संस्करण बहुत लोकप्रिय हुआ था। उसमें पंक्तियाँ थीं—

“मारी जालो मैर, माऱी जालो मैर

गढ़वाल मां बाघ लाग्यो, बाघा की हुए डैर

मेरा फ्वां बघा रे...”

जिसका मोटे तौर पर अर्थ है कि गढ़वाल में एक ‘बाघ’ (तेंदुआ) आ गया है और सब उसके डर में जी रहे हैं, यहाँ तक कि लैंसडाउन (राज्य का एक प्रसिद्ध पर्यटन स्थल) भी उसके खौफ के साये में है। हिंदी में ‘बाघ’ का अर्थ आमतौर पर टाइगर से होता है, लेकिन उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में स्थानीय लोग तेंदुए को भी ‘बाघ’ कहते हैं।

इस पुराने लोकगीत से यह तो पता चलता है कि पहाड़ों में गुलदार, जो कि तेंदुए की ही एक प्रजाति है और जिसे उत्तराखण्ड के पहाड़ों में बाघ ही कहा जाता है, की समस्या कोई आज की नहीं है। लेकिन उन दिनों दहशत का स्वरूप दूसरा था। तब गुलदार इंसानों के बजाय मवेशियों या पहाड़ी कुत्तों को ही अपना निशाना ज़्यादा बनाया करता था। लेकिन हाल के बरसों में उत्तराखण्ड के पहाड़ों में इंसानों और वन्य जीवों के बीच खतरनाक ढंग का संघर्ष चल रहा है। उनमें सबसे ज्यादा डर तेंदुए का है जिनमें से कुछ आदमखोर हो चुके हैं।

उत्तराखण्ड का एक ज़िला जो सबसे ज्यादा इसकी चपेट में है, वो है पौड़ी गढ़वाल। यही वो ज़िला है जहां के गांवों से सबसे ज्यादा पलायन भी हुआ है।

तेंदुए के इन हमलों की वजह से उत्तराखण्ड के पहाड़ों में लोगों में बड़ी दहशत है। कुछ इलाकों में तो इमरजेंसी जैसे हालात हैं। खासकर चौबट्टाखाल इलाके के कुछ गांवों में तो लोग अपने बच्चों को अकेले स्कूल नहीं भेज रहे हैं। घर का कोई न कोई सदस्य बच्चों के साथ जा रहा है। ऐसे खौफज़दा समय में ही उत्तराखण्ड के सबसे चर्चित लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी ने कभी एक गढ़वाली गीत भी लिखा था-

'सुमा हे निहोण्या सुमां डांडा न जा

न जा हे खडोण्या सुमां...डांडा न जा'

मुछळ्यू जग्यूं चा सुमां....मुछळ्यू जग्यूं चा

तै बैरी का बण सुमां...डांडा न जा

मनस्वाग लग्यूं चा सुमां....डांडा न जा।'

इस गीत में एक पिता अपनी बेटी को कह रहा है कि तू घास या लकड़ी बटोरने के लिए अकेली जंगल में मत जा क्योंकि वहां एक घात लगाए नरभक्षी तेंदुआ घूम रहा है।

लेकिन अब तेंदुआ जंगल तो क्या, घर की देहरी तक पहुंच गया है। अब दहशत इसलिए भी बढ़ी है क्योंकि स्थानीय जनप्रतिनिधि सोशल मीडिया पर तेंदुओं के देखे जाने के वीडियो शेयर कर रहे हैं। जैसे पौड़ी गढ़वाल ज़िले के चौबट्टाखाल इलाके की ज़िला पंचायत सदस्य पूनम कैंतुरा ने अपने फेसबुक अकाउंट से गुलदार के जोड़े का वीडियो पोस्ट करते हुए लोगों को चौकन्ना रहने की हिदायत दी।



पहाड़ के गांवों में ऐसा लग रहा है कि इंसानों की नहीं, तेंदुए के डर की हुकूमत चल रही है। अभी ज्यादा पुरानी बात नहीं है जब दिसंबर 2024 में पौड़ी गढ़वाल ज़िले के रिखणीखाल में आदमखोर गुलदार के डर ज़िला प्रशासन को स्कूलों और आंगनबाड़ी केंद्रों को तीन दिनों तक बंद करने का फैसला लेना पड़ा था। दहशत इस कदर है कि पौड़ी गढ़वाल ज़िले के चौबट्टाखाल ब्लॉक में कई गांवों के लोग गोलबंद हो गए और उन्होंने पिछले हफ्ते ब्लॉक मुख्यालय के बाहर धरना-प्रदर्शन किया ताकि अपनी आवाज़ ब्लॉक प्रशासन के ज़रिये राज्य सरकार तक पहुंचा सकें।



पौड़ी गढ़वाल ज़िले के रिखणीखाल में आदमखोर तेंदुए की दहशत से लोगों को बचाने के लिए प्रदर्शन भी किया गया

उस धरने की अगुआई करने वाली ज़िला पंचायत सदस्य पूनम कैंतुरा ने 'द फेडरल देश' से कहा,"वन विभाग को ये पता ही नहीं है कि गढ़वाल में गुलदारों की वास्तविक संख्या कितनी है। हमें बताएं तो सही। हमारी मांग यह भी है कि ग्रामवासियों की सुरक्षा के लिए और गुलदार जैसे जंगली जानवरों से मुकाबले के लिए हमारे पूर्व सैनिकों को बंदूकों के लाइसेंस दिए जाएं। हम लोग कब तक मदद के लिए वन विभाग का या प्रशासन का इंतजार करते रहेंगे।"

उत्तराखण्ड के पहाड़ों में गुलदार का आतंक कई स्तर पर है। गांव पलायन की मार पहले से ही झेल रहे हैं, बचे-खुचे लोगों में भी गुलदारों के हमलों ने भयानक डर बैठा दिया है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि गुलदारों के डर से भी उत्तराखण्ड के गांवों से पलायन बढ़ रहा है।

उत्तराखण्ड वन विभाग का जनवरी 2000 से 31 मई 2025 तक आंकड़ा बताता है कि इन 25 सालों में वन्य जीवों के हमले में उत्तराखण्ड में 1241 लोग मारे गए। उनमें भी सबसे ज़्यादा 539 लोग तेंदुए के हमले में मारे गए हैं। यही नहीं, इस दौरान कुल 2077 लोग तेंदुए के हमले में बहुत गंभीर रूप से ज़ख़्मी हुए हैं। गुलदारों के हमले में मरने वालों और गंभीर रूप से घायल होने वालों की सबसे ज्यादा संख्या उसी पौड़ी गढ़वाल ज़िले से है, जहां सबसे ज्यादा पलायन हुआ है।

पौड़ी गढ़वाल ज़िले में जमीनी स्तर पर सामाजिक बदलाव के लिए काम कर रही संस्था 'फीलगुड ट्रस्ट' के सुधीर सुंदरियाल बताते हैं, "हमारे इलाके चौबट्टाखाल के पास ग्राम भरतपुर गांव गुलदार के भय से जन शून्य हो गया है। यानी यहां अब कोई इंसान नहीं रहता। यही नहीं, इसके आसपास के गांवों से भी तेजी से पलायन हो रहा है।"

ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर पहाड़ों में गुलदार इंसानी बस्तियों की तरफ कैसे बढ़ने लगे? वो जंगल में ही क्यों नहीं टिक रहे हैं? वो इंसानों पर इतने हमले कैसे करने लगे? इसे समझने के लिए हमने उत्तराखण्ड के वन विभाग के अधिकृत शिकारी जॉय हुकिल से संपर्क साधा। जॉय सरकारी अनुमति से अब तक 47 आदमखोर गुलदारों को मार चुके हैं, जबकि 7 गुलदारों को पकड़ने में उन्होंने अहम भूमिका निभाई। जॉय ने बताया, "गुलदार पहाड़ के ही हैं। वो दिनभर चाहे कितने भी किलोमीटर इधर-उधर चल जाएंगे, लेकिन उनकी प्रवृत्ति ये हो गई है कि ये शाम को आसान भोजन की तलाश में बस्तियों के नजदीक चले जाते हैं। अगर आप रात के समय में घूमेंगे तो आपको 5 वर्ग किलोमीटर के अंदर एक से लेकर 6 गुलदार तक दिख जाएंगे।"

जॉय हुकिल ने जो बात कही, उसकी तस्दीक एक वन्य जीव अधिकारी भी करते हैं। नाम न छापने की शर्त पर 'द फेडरल देश' को उन्होंने बताया,"पहले पहाड़ों में गुलदारों की मौजूदगी ऐसी थी कि 15 से 20 वर्ग किलोमीटर के अंदर एक गुलदार पाया जाता था। अब तो आलम ये है कि एक-डेढ किलोमीटर के अंदर ही गुलदार मिल जाते हैं।"

इसका मतलब ये है कि पहाड़ों में गुलदारों की संख्या में भारी इजाफा हुआ है। वन विभाग का कोई भी अधिकारी इस बात को ऑन रिकॉर्ड स्वीकार करने को तैयार नहीं है। 'द फेडरल देश' को उत्तराखण्ड वन विभाग के आधिकारिक सूत्रों से जो जानकारी मिली है, उसके मुताबिक वन विभाग का आंकड़ा ये कहता है कि तेंदुओं की कुल संख्या 2300 है। हालांकि जॉय हुकिल कहते हैं, "मेरा अनुमान है कि उत्तराखण्ड में तेंदुओं या गुलदारों की संख्या 5000 से कम नहीं है। हमारे यहां 16,500 गांव हैं। बस्तियां और नगर अलग हैं। औसतन हर दो या चार गांव में तेंदुआ होने या दिखने की बात पता चलती है तो इस हिसाब से अगर मोटा-मोटा अनुमान भी लगाएं, तो यह संख्या काफी ज्यादा होनी चाहिए।"

भले ही वन विभाग इसे ऑन रिकॉर्ड न स्वीकारे। ज़ाहिर है, यह एक बहुत बड़ी समस्या पैदा हो गई है। लेकिन ये समस्या इतनी बढ़ कैसे गई? तेंदुओं की ये प्रजाति इंसानों की जान को आफत में क्यों डाले हुए है? इसे समझने के लिए 'द फेडरल देश' ने देहरादून में स्थित भारतीय वन्य जीव संस्थान (WII) में हेड साइंटिस्ट डॉ. बिवाश पांडव से संपर्क साधा।

डॉ. बिवाश ने कहा, "दरअसल पहाड़ों के जंगलों में तेंदुओं के लिए भोजन की उपलब्धता कम हो गई है। इसीलिए वो आबादी वाले इलाकों की ओर पहुंच जा रहे हैं। एक वजह ये भी है कि पहाड़ों में बंदूकें ज्यादा हैं। शिकार की वजह से चीतल, सांभर, काकड़ जैसे वन्य जीव अपेक्षाकृत कम हो गए हैं। वरना तेंदुए तो हरिद्वार जैसे मैदानी ज़िले में भी कम नहीं हैं लेकिन यहां तेंदुओं को नेचुरल भोजन मिल जाता है क्योंकि हरिद्वार और आसपास के जंगल चीतल, सांभर, काकड़ जैसे वन्य जीवों से भरे पड़े हैं। जबकि पौड़ी गढ़वाल जैसे ज़िले में ठीक इसके उलट है।"

लेकिन उत्तराखण्ड में अब तक 47 आदमखोर तेंदुओं का शिकार कर चुके जॉय हुकल इसकी कुछ और वजह बताते हैं। उन्होंने 'द फेडरल देश' से कहा,"देखिए, कोई माने या न माने लेकिन यह बहुत स्पष्ट है कि पहाड़ में गुलदारों की संख्या बढ़ गई है। प्रकृति ने तेंदुओं को बनाया ही ऐसे है कि वो मांस ही खाएंगे। लेकिन चूंकि इनकी संख्या ज्यादा हो गई है, लिहाजा जंगल में उनकी संख्या के अनुपात में उनके लिए भोजन कम पड़ गया है। भोजन के लिए इनका जंगल में आपसी संघर्ष भी हो चलता रहता है। इसलिए जंगल में दूसरे ताकतवर गुलदारों का मुकाबला कर सकने में अक्षम रहने पर बाकी गुलदार आसान भोजन की तलाश में शाम के वक्त बस्तियों की तरफ आ जाते हैं। इसीलिए बच्चों या महिलाओं पर उनके हमले बढ़े हैं।"

लेकिन इसका क्या कोई समाधान भी है? 'द फेडरल देश' ने यह सवाल किया समाजशास्त्री डॉ. प्रेम बहुखण्डी से, जोकि पौड़ी गढ़वाल ज़िले के उसी इलाके से आते हैं जहां हाल में तेंदुए के हमले बढ़े हैं। उन्होंने कहा, "समाधान तभी निकलेगा जब सरकार गुलदारों की निश्चित संख्या के बारे में बताएगी। सरकार को विस्तार से बताना चाहिए कि कितने वर्ग किलोमीटर में कितने गुलदार हैं। अगर उनकी संख्या ज्यादा है तो किलिंग के अलावा कोई रास्ता नहीं है। वन विभाग की जिम्मेदारी है कि वो गुलदारों के लिए जंगल में ही खाने की व्यवस्था करे ताकि वो गांव में न घुसने पाएं।"

डॉ. बहुखण्डी कहते हैं, "सरकार को ये तय करना पड़ेगा कि उसकी सर्वोच्च प्राथमिकता में इंसान हैं या वन्य जीव। अगर उसे सामंजस्य बैठाना है तो और भी तरीके हैं। सरकार चाहे तो पहाड़ों में बड़े इलाके में वन्य जीव अभयारण्य बना दे और सारे तेंदुओं या गुलदारों या बाघों को पकड़कर वहां छोड़ दे। उससे पर्यटन भी फलेगा-फूलेगा और राजस्व भी बढ़ेगा।"

लेकिन पहाड़ों में तेंदुओं की प्रवृत्ति में देखे जा रहे बदलाव के सवाल पर डॉ. बिवाश पांडव एक और समस्या की तरफ ध्यान दिलाते हैं। उन्होंने 'द फेडरल देश' से कहा,"चूंकि पहाड़ों में पलायन बढ़ा है, इसलिए वहां खेती होना कम हो गई है। जिससे बस्तियों के आसपास भी झाड़ियां उग आई हैं। उन झाड़ियों में तेंदुओं को छिपने के लिए जगह मिल जा रही है और वो आसानी से इंसानों को शिकार बना रहे हैं।"

लेकिन तात्कालिक तौर पर क्या किया जा सकता है?, 'द फेडरल देश' के इस सवाल पर समाजशास्त्री डॉ. प्रेम बहुखण्डी कहते हैं, "जो जंगली झाड़ियां हैं, जैसे लैंटाना हुई, गाजर घास और कालाबांस झाड़ी हुई, ये हमारी दुश्मन हैं। इन्हीं झाड़ियों की ओट में गुलदार छिप रहे हैं। सबसे पहले इनको खत्म करने के लिए मनरेगा के तहत काम शुरू करना चाहिए।"

पलायन की मार झेल रहे पहाड़ के गांवों में वन्य जीवों, खासकर तेंदुओं की दहशत पूरे पहाड़ी समाज को मथ रही है। लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी के एक अन्य गीत की तरह कोई निशानची जसपाल राणा तो इससे मुक्ति दिलाने आगे आएगा नहीं। लेकिन सामाजिक संस्था 'धाद' और 'फील गुड ट्रस्ट' ने पिछले दिनों देहरादून में प्रदर्शन करते हुए सरकार तक अपना मांग पत्र पहुंचाया। जिसे 'गुलदार से गांव बचाओ मांगपत्र' नाम दिया गया था। इसमें प्रमुख मांगों में जंगली जानवरों के हमले में मारे गए व्यक्ति को 25 लाख रुपये का मुआवजा और अभिभावक के मारे जाने की स्थिति में उसके परिवार के लिए वैकल्पिक रोजगार की मांग सर्वोच्च प्राथमिकता में है। इसके अलावा भी कई सुझाव इस मांगपत्र का हिस्सा हैं।

लेकिन असल सवाल ये है कि सरकार के पास इस बड़ी समस्या का कोई समाधान है भी कि नहीं। सरकार को अपनी प्राथमिकता तो तय करनी ही होगी। पहाड़ के लोगों के पास तो कोई चारा ही नहीं बचा है। जहां गुलदार के आतंक के बीच हरदम जान का खतरा बना हुआ हो, उस पहाड़ में कोई रहे भी तो कैसे रहे?

अपनी किताब 'द मैन ईटर ऑफ रुद्रप्रयाग' में कॉर्बेट लिखते हैं, “कभी भी किसी कर्फ़्यू आदेश को उतनी सख़्ती से लागू नहीं किया गया और न ही उतनी निष्ठा से माना गया, जितना कि रुद्रप्रयाग के नरभक्षी तेंदुए द्वारा लगाया गया कर्फ़्यू।”

सालों बाद, जब वे एक युवा व्यक्ति से मिले जो उस समय बच्चा था जब कॉर्बेट ने उस तेंदुए को मारा था, तो उसने लेखक से कहा कि “रुद्रप्रयाग में हर साल उस नरभक्षी की मौत की याद में एक मेला लगता है।” उसने आगे कहा—“मैं वहाँ मिलने वाले सभी लोगों से कहूँगा कि मैंने आपसे मुलाक़ात की है और आपसे बात की है।”

सौ साल बाद, उत्तराखंड के कई गाँव एक बार फिर तेंदुओं के हालिया आतंक से मुक्ति के लिए प्रार्थना कर रहे हैं।

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