
क्यों बिहार के सकरी के लोग चीनी मिलें फिर से खोलने के अमित शाह के वादे पर कर रहे शक
सकरी शुगर मिल जो बिहार की कई मिलों की तरह 90 के दशक में बंद हो गई थी ने सिर्फ कामगारों को ही नहीं, बल्कि गन्ना सप्लाई करने वाले किसानों को भी रोजगार दिया था. मिल बंद होने के बाद कई लोग मजबूरी में रोजगार की तलाश में बाहर चले गए. सालों की निराशा ने उन्हें अब किसी भी ‘अच्छे दिनों’ की उम्मीद रखने से भी सावधान कर दिया है.
सफेद होते बालों वाले किशोरी राम दरभंगा, बिहार में उसी मिल के बंद दरवाज़े के बाहर घास काटने में व्यस्त थे, जहां वे कभी काम किया करते थे. सिर पर बंधी गमछी उन्हें अक्टूबर की धूप से बचा रही थी. 1997 में पटना से आया एक पत्र जिसमें मिल बंद होने की सूचना थी उसने उनकी जिंदगी हमेशा के लिए बदल दी. उन्होंने बताया, लगभग 1,500 परिवार इस मिल पर कभी निर्भर थे.
मिल बंद होने के बाद किशोरी राम को कुल तीन किस्तों में 1.03 लाख रुपये का मुआवजा मिला. उन्होंने कहा, “इतने पैसों से कोई कब तक गुजारा जा सकता है ?” मजबूरी में उन्होंने पशुपालन शुरू किया.
अब 70 के पार हो चुके किशोरी उन दिनों को याद करते हैं जब मिल ने न सिर्फ स्थानीय युवाओं को रोजगार दिया वे खुद 1982 में इसमें भर्ती हुए थे बल्कि आसपास के किसानों को भी इसने बड़ा लाभ पहुँचाया. वे बताते हैं, “जिसके पास ट्रॉली थी, वह भी कमाता था. गन्ना ढोने वाले, चीनी लेकर जाने वाले सबका भला होता था,”. सचमुच पूरे इलाके के लिए यह एक वरदान के समान था.
मधुबनी ज़िले के सकरी पंचायत में खेती ही मुख्य अर्थव्यवस्था है, और मिल बंद होने के बाद बड़ी संख्या में लोगों को रोज़गार के लिए बाहर जाना पड़ा. घर पर रह गए लोग अब उन्हीं पैसों पर निर्भर हैं जो बाहर काम करने वाले भेजते हैं.
हाल ही में बिहार विधानसभा चुनाव से पहले, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने घोषणा की कि बिहार की बंद पड़ी सभी चीनी मिलें अगले पाँच साल के भीतर फिर से खोली जाएँगी. उनके मुताबिक, इससे किसानों और स्थानीय अर्थव्यवस्था में फिर से समृद्धि आएगी.
रिपोर्टों के मुताबिक, 1980 के दशक में देश की कुल चीनी उत्पादन का लगभग 30% हिस्सा बिहार में उत्पादन होता था जो अब घटकर करीब 6% बताया जाता है. आजादी से पहले राज्य में 33 चीनी मिलें चलती थीं. लेकिन 1970-80 के दशक में सरकार ने निजी मिलों का अधिग्रहण शुरू किया और 90 के दशक में जब लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री थे तब कई मिलें बंद होने लगीं. अभी बिहार में सिर्फ 9 चीनी मिलें चल रही हैं.
दरभंगा की सकरी शुगर मिल भी उन्हीं में से एक थी जिसे सरकार ने अधिग्रहित किया और बाद में बंद कर दिया. 1933 में दरभंगा के महाराजा कामेश्वर सिंह द्वारा स्थापित, यह मिल मिथिलांचल के “स्वर्णिम दौर” का प्रतीक मानी जाती थी. बाद में सरकार के नियंत्रण में आई और 90 के दशक में यह भी बंद हो गई.
आज जब रोजगार के लिए राज्य के युवा बाहर जाने को मजबूर हैं, मिल का दोबारा खुलना लोगों को अविश्वसनीय लगता है. अध्ययन बताते हैं कि बिहार में पुरुषों का पलायन राष्ट्रीय औसत से लगभग दोगुना 55% है जबकि राष्ट्रीय औसत 24% है.
किशोरी को अफसोस है कि “अगर चीनी मिल चल रही होती, तो युवाओं को बाहर काम करने नहीं जाना पड़ता.”
दिनेश प्रसाद यादव, जो 1989 में मिल में नौकरी पर लगे थे और अब सुरक्षा गार्ड हैं, कहते हैं, “मिल फिर से खुलना नामुमकिन है. नेता सिर्फ बोलते हैं. कुर्सी मिलते ही सब भूल जाते हैं.” उनका दावा है कि सरकार ने मिल की कई मशीनें बेच भी दी हैं और “जो बचा है, उसपर पेड़ पौधे निकल आए हैं और वो झाड़ियों में दबा पड़ा है.”
कई प्रवासी मजदूर जो छठ पूजा और चुनाव मतदान के लिए घर आए थे कहते हैं कि अमित शाह पहले नेता नहीं हैं जिन्होंने मिल खोलने का वादा किया हो. लेकिन कभी कुछ नहीं हुआ. मुंबई में काम करने वाले पवन राम बताते हैं, “कई नेताओं ने वादा किया, पर किसी ने वादा नहीं निभाया.”
दिल्ली में काम करने वाले विनोद दास जोड़ते हैं, “सकरी कभी समृद्ध इलाका था. मिल बंद होने के बाद कुछ नहीं बचा है.” लगातार पलायन ने यहाँ की एक पूरी पीढ़ी को बाहर भेज दिया है.
बेंगलुरु में काम करने वाले श्रवण राम कहते हैं, “जब हम बच्चे थे हमारे पिता बिहार छोड़कर काम पर बाहर चले गए. अब हम भी यही कर रहे हैं.” वे कहते हैं, अब मिल खुल भी जाए तो उनके लिए देर हो चुकी है, लेकिन अगली पीढ़ी को इसका लाभ मिल सकता है. पर फिर भी, संदेह बना हुआ है.
कक्षा 12 के छात्र नितेश यादव के दादा इस चीनी मिल में काम करते थे. उन्होंने कहा, “नेता बस बातें करते हैं. कुछ नहीं होने वाला है.” एक अन्य छात्र धीरेन्द्र कुमार, जिनके दादा भी मिल कर्मचारी थे, थोड़ा आशावादी हैं. उन्होंने कहा, “अगर मिल खुलेगी तो हमें बाहर नहीं जाना पड़ेगा. परिवार के साथ रहकर यहीं काम मिलेगा. ” लेकिन उनकी आवाज़ में भी अनिश्चितता साफ झलकती है.
एक खबर के मुताबिक, इस साल अप्रैल में सरकार ने सकरी मिल और एक अन्य मिल की परिसंपत्तियों का पुनर्मूल्यांकन करने की योजना बनाई थी ताकि इन्हें फिर चालू किया जा सके. कहा गया था कि विधानसभा चुनाव से पहले कोई फैसला लिया जाएगा.
The Federal ने इस मामले पर बिहार के गन्ना आयुक्त अनिल कुमार झा से टिप्पणी मांगी है. जवाब मिलने पर रिपोर्ट अपडेट की जाएगी।
फिलहाल, मिल के खोलने के कोई स्पष्ट संकेत नहीं दिखते. लोग उम्मीद करने से भी डरते हैं. उनकी सरकार पर भरोसा कम, और मिल के “स्वर्णिम दौर” की यादें ज़्यादा हैं साथ ही यह नाराजगी कि सरकार एक सफल मिल को भी चला नहीं सकी.
किशोरी राम कहते हैं, “अगर सकरी शुगर मिल बंद नहीं हुई होती, तो लालू प्रसाद कभी सत्ता से नहीं जाते.”
राज्य में बंद हुई बाकी 20 से ज़्यादा चीनी मिलों से प्रभावित लोग भी शायद यही महसूस करते हों. बस मिल का नाम बदल जाएगा, दर्द वही रहेगा.

