
बिहार चुनाव 2025 : नीतीश के गढ़ में भी दिख रहा है ‘बदलाव’ का माहौल
बढ़ती बेरोज़गारी और विकास की कमी ने बिहार में मतदाताओं के रुझान को बदल दिया है — एनडीए और आरजेडी-नीत महागठबंधन के बीच कड़े मुकाबले से पहले माहौल पूरी तरह से बदलता नज़र आ रहा है।
करीब दो दशकों में पहली बार बिहार में ‘बदलाव’ यानी परिवर्तन की लहर साफ महसूस की जा रही है। इसका उदाहरण एक युवा राजपूत स्नातक गौतम सिंह हैं, जो अब पटना–गया फोरलेन हाईवे किनारे चाय बेचते हैं। गौतम, जो करीब पच्चीस बरस के हैं, कहते हैं —“इस बार बदलाव जरूरी है। नीतीश कुमार ने जितना विकास करना था, कर लिया, अब नई पीढ़ी को मौका मिलना चाहिए — खासकर युवा राजद नेता तेजस्वी यादव को। पुराने चेहरों को दोहराने की बजाय नए खून को मौका देना होगा। हम सब अपने भविष्य के लिए बदलाव चाहते हैं।”
सैदानपुर गाँव (फतुहा विधानसभा क्षेत्र) के रहने वाले गौतम ने अपनी छोटी सी दुकान पर गरम चाय बनाते हुए कहा, “बेरोजगारी की वजह से मैं सड़क किनारे चाय बेचने को मजबूर हूँ। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मुझे ऐसा करना पड़ेगा। पर क्या करूँ? नीतीश ने सिर्फ बेरोजगारी बढ़ाई है। मेरे जैसे ग्रेजुएट्स के लिए चाय बेचना ही एकमात्र रास्ता बचा है। लेकिन इसमें भी कोई भविष्य नहीं है। अब सारी उम्मीद बदलाव के बाद क्या होता है, उस पर टिकी है।”
युवा गुस्से से बढ़ी एंटी-इंकंबेंसी लहर
यह स्थिति बिहार के मतदाताओं में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (74) के खिलाफ बढ़ती एंटी-इंकंबेंसी भावना का परिणाम लगती है। लगभग दो दशकों तक सत्ता में रहने के बावजूद आधिकारिक आँकड़े दिखाते हैं कि वे गरीबी और बेरोजगारी घटाने या प्रति व्यक्ति आय बढ़ाने में नाकाम रहे हैं।
नीति आयोग की 2024 की बहुआयामी गरीबी रिपोर्ट के मुताबिक, देश में सबसे अधिक गरीब बिहार में हैं — करीब 33.76 प्रतिशत।
वहीं 2022-23 के आंकड़ों में बिहार की प्रति व्यक्ति आय लगभग ₹54,000 बताई गई, जो राष्ट्रीय औसत ₹1.85 लाख से बहुत कम है।
बेरोजगारी युवाओं और पहली बार वोट देने वालों के लिए सबसे बड़ी समस्या बनी हुई है।
श्रम एवं रोजगार मंत्रालय के 2022-23 सर्वेक्षण के अनुसार, बिहार की कुल बेरोजगारी दर 3.4% है, जो राष्ट्रीय औसत 3.2% से थोड़ा अधिक है।
सरकारी आँकड़ों (जुलाई 2023–जून 2024) के अनुसार, ग्रेजुएशन से ऊपर की शिक्षा वाले युवाओं में बेरोजगारी दर 19% है, जबकि जो पढ़ना-लिखना नहीं जानते, उनमें यह केवल 0.8% है।
तेजस्वी यादव से जुड़ी उम्मीदें
गौतम सिंह ने बताया कि वे सुबह से रात तक लंबे घंटे काम करते हैं। उन्होंने कहा, “मैं मालिक, रसोइया और वेटर – तीनों हूँ। सड़क से गुजरने वाले लोगों को चाय और स्नैक्स जैसे आलू चिप्स, बिस्किट, नमकीन, सिगरेट, गुटखा और खैनी बेचता हूँ।”
सिंह के परिवार के पास हाईवे के पास कीमती जमीन और गाँव के पास चार बीघा खेत है। लेकिन बेरोजगारी ने उनके लिए भी मुश्किलें खड़ी कर दी हैं, जैसे इलाके के कई और युवाओं के लिए।
वे बोले, “नीतीश कुमार की बेरोजगारी के प्रति उदासीनता ने हमें निराश कर दिया है। अब मेरे पास कोई विकल्प नहीं है। तेजस्वी पर ही भरोसा करना होगा, जो कम से कम रोजगार में सुधार का वादा तो करते हैं। अगर बदलाव आता है तो हमारे जैसे बेरोजगारों के लिए कुछ उम्मीद बनेगी।”
सिंह ने 2024 लोकसभा और 2020 विधानसभा चुनावों में एनडीए को वोट दिया था, लेकिन अब उनका रुख बदल रहा है। उन्होंने स्पष्ट कहा,
“राजपूतों को लेकर यह धारणा है कि वे हमेशा नीतीश-मोदी गठबंधन के समर्थक होते हैं, लेकिन अब हमें अपने भविष्य के लिए बदलाव का साथ देना होगा। इस बार मैं बदलाव के लिए वोट दूँगा।”
परंपरागत निष्ठाएँ टूटने की कगार पर
गौतम सिंह अकेले नहीं हैं। ऊँची जातियों या “फॉरवर्ड” समुदायों (सवर्णों) के कई युवा अब बदलाव के पक्ष में आवाज़ उठा रहे हैं और तेजस्वी यादव की ‘रोज़गार’ (employment) पर केंद्रित राजनीति की प्रशंसा कर रहे हैं।
हालाँकि, यह अभी स्पष्ट नहीं है कि यह बदलाव की भावना वोटों में तब्दील होगी या नहीं।
बदलाव की यह पुकार कई जगहों से उठ रही है — जिनमें पटना जिले की मोकामा विधानसभा सीट भी शामिल है, जो हाल ही में दुलारचंद यादव की हत्या के बाद सुर्खियों में आई। यादव जन सुराज पार्टी के लिए प्रचार कर रहे थे।
इसी सीट से जेडीयू प्रत्याशी आनंद सिंह, जो एक कुख्यात बाहुबली हैं, को तीन दिन पहले गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया।
इसी तरह की भावनाएँ नालंदा (नीतीश कुमार का गृह जिला और 1995 से उनका गढ़), गया, लालगंज और राघोपुर विधानसभा क्षेत्रों से भी सामने आई हैं।
इस बार बदलाव चाहिए
“इस बार बदलाव चाहिए। पहले हम नीतीश (जेडीयू) को वोट देते थे, यह सोचकर कि हमारे लिए कुछ किया जाएगा। लेकिन बीस साल के शासन में वे हमें उस ज़मीन के दस्तावेज़ तक नहीं दिला पाए, जो हमें 1990 के दशक के अंत में ऑर्डनेंस फैक्ट्री प्रोजेक्ट से विस्थापित होने के बाद मिली थी। अब हम उनका भरोसा खो चुके हैं और जेडीयू को वोट नहीं देंगे,”
ऐसा कहना है हरेराम रविदास का, जो राजगीर विधानसभा क्षेत्र के राजगीर ऑर्डनेंस फैक्ट्री की सीमा दीवार से करीब 50 मीटर दूर स्थित “विस्थापित कॉलोनी” के निवासी हैं।
हरेराम की बात से छोटे राजवंशी, नरेश राजवंशी और अर्जुन राजवंशी — तीनों अति पिछड़ा वर्ग (EBC) से आने वाले — सहमत दिखे। ये लोग सड़क किनारे एक बड़े बरगद के पेड़ के नीचे ताश खेल रहे थे।
“करीब 12 गाँवों की 1,199 परिवारों को विस्थापित कर वर्षों पहले मकान के प्लॉट दिए गए, लेकिन अब तक किसी को मालिकाना हक़ के कागज़ नहीं मिले। फ़ैक्ट्री में एक भी विस्थापित को नौकरी नहीं मिली, जबकि वादे किए गए थे। नीतीश ने हमें नज़रअंदाज़ किया है, अब हमारी बारी है उन्हें नज़रअंदाज़ करने की,” अर्जुन राजवंशी ने कहा, जो उसी विस्थापित कॉलोनी के निवासी हैं।
बदलाव की आवाज़ें और बुलंद
इन सभी ने बेरोजगारी को लेकर गुस्सा ज़ाहिर किया और माना कि वे पहले नीतीश की पार्टी को वोट देते थे, लेकिन अब वे बदलाव चाहते हैं, ताकि उनकी ज़मीन के कागज़ जैसे लम्बे समय से लंबित मुद्दे सुलझ सकें।
हरनौत विधानसभा क्षेत्र के पोरई गाँव के मज़दूर पप्पू कुमार ने खुलकर कहा —“अब बदलाव ज़रूरी है। पहले हम नीतीश की पार्टी को वोट देते थे, लेकिन इस बार नहीं।”
उनका गाँव पोरई, नीतीश कुमार के पैतृक गाँव कल्याणबिघा से महज़ दो-तीन किलोमीटर दूर है।
कल्याणबिघा आज पूरी तरह विकसित इलाका है, जहाँ सभी आधुनिक सुविधाएँ मौजूद हैं, और वहाँ नीतीश की जाति — ओबीसी कुर्मी — के लोग बहुमत में हैं, जो अब भी उनका समर्थन कर रहे हैं।
मंदिर के पास बैठे एक बुज़ुर्ग ग्रामीण चंद्रदेव रमणी ने कहा, “हम चाहते हैं कि नीतीश ही दोबारा आएँ।”
अपने गाँव में विकास की कमी से परेशान गया ज़िले की बाराचट्टी विधानसभा क्षेत्र के तुरिकला बुजुर्ग गाँव के निवासी राजेंद्र मांझी ने कहा कि सरकार में बदलाव ज़रूरी है।
उन्होंने कहा, “हम मुसहर समुदाय से आते हैं — सबसे वंचित दलित। हम ग़रीब हैं, ज़मीन नहीं है, और शौचालय, नाली, सड़क, और नौकरी जैसी बुनियादी सुविधाओं के बिना जीने को मजबूर हैं। अगर सरकार बदलती है, तो नई सरकार शायद हमारे लिए कुछ विकास लेकर आए, जो मौजूदा सरकार नहीं कर पाई।”
मांझी मज़दूरी करते हैं और पिछली बार नीतीश कुमार की सहयोगी पार्टी हम (हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा) को वोट दिया था।
इसी तरह, गया विधानसभा क्षेत्र के आशा सिंह मोड़ के पास एक कॉलोनी में रहने वाले और निजी स्कूल में पढ़ाने वाले मोहित सिन्हा ने कहा —
“बदलाव ज़िंदगी का हिस्सा है। मैंने तय कर लिया है कि इस बार बदलाव के लिए वोट दूँगा। गया से वरिष्ठ भाजपा नेता और मंत्री प्रेम कुमार लगातार प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, लेकिन उन्होंने शहर के विकास पर ध्यान नहीं दिया। यहाँ शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के अवसरों की भारी कमी है।”
जातीय समीकरण अब भी निर्णायक
राघोपुर विधानसभा क्षेत्र के हिम्मतपुर गाँव में मज़दूर राजेश कुमार राय ने कहा —“हम इस बार सरकार बदलने के लिए वोट देंगे, क्योंकि हम तेजस्वी यादव को समर्थन करते हैं, जो महागठबंधन के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार हैं। हमारा वोट सिर्फ़ विधायक चुनने के लिए नहीं है, बल्कि अगला मुख्यमंत्री चुनने के लिए है — जो पुराने नीतीश कुमार की जगह लेगा।”
राघोपुर के दो बेरोज़गार युवा, संजीत राय और कमलेश राय, ने भी माना कि उनके क्षेत्र में ढेरों समस्याएँ हैं — बुनियादी ढाँचा, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएँ सबकी कमी है।
उन्होंने कहा —“हम संघर्ष कर रहे हैं, लेकिन हम तेजस्वी को अगला मुख्यमंत्री बनते देखना चाहते हैं। जब वह सत्ता में आएँगे, तो राघोपुर के विकास के लिए काम करेंगे।”
जाति का गणित अब भी मुख्य भूमिका में
पूरे बिहार में चुनावी नतीजों को तय करने में परंपरागत जातीय निष्ठाएँ, गठजोड़ और समीकरण अब भी सबसे अहम भूमिका निभा रहे हैं।
राज्य की चार ऊँची जातियाँ — कुल आबादी का 10.57% — मानी जा रही हैं कि वे भारी संख्या में भाजपा-नीत एनडीए (जिसमें नीतीश की जेडीयू भी शामिल है) के पक्ष में वोट करेंगी। इनके बाद गैर-यादव ओबीसी जैसे कुर्मी और बनिया, और आबादी का 36% हिस्सा बनने वाले अति पिछड़े वर्ग (EBCs) का बड़ा हिस्सा भी एनडीए के साथ रहने की उम्मीद है।
वहीं, 14.26% यादव, 17.7% मुसलमान, 2.3% मल्लाह, कुछ अन्य EBC समुदाय, कोएरी (OBC) और दलित समुदायों के एक हिस्से से उम्मीद है कि वे हमेशा की तरह विपक्षी महागठबंधन का समर्थन करेंगे।
इस बार भी चुनावी मुकाबला काफ़ी कड़ा और रोचक होने की संभावना है।

