पर्यटन, प्रकृति और प्रेरणा, उत्तराखंड की महिलाओं की अनोखी पहल
x
उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल में प्रकृति गाइड के रूप में, महिलाएँ अपनी आजीविका में सुधार के लिए वन पथों का संचालन करती हैं और पर्यटकों को घरों में ठहराती हैं। फोटो सौजन्य: हिम विकास समिति

पर्यटन, प्रकृति और प्रेरणा, उत्तराखंड की महिलाओं की अनोखी पहल

उत्तराखंड की महिलाएं प्रकृति मार्गदर्शक बनकर न केवल आजीविका कमा रही हैं, बल्कि पर्यावरण संरक्षण और सांस्कृतिक विरासत का भी संरक्षण कर रही हैं।


शकुंतला देवी, 49 वर्ष की एक प्रकृति मार्गदर्शक, जलवायु योद्धा और उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल जिले की किसान हैं। हाल ही में क्षेत्र के लिए जारी भूस्खलन की चेतावनियों से वह केवल हल्के रूप से चिंतित हैं। मार्गदर्शक के रूप में उनकी मासिक आमदनी मात्र ₹3,000 है, जो इस मौसम में कम हो सकती है, क्योंकि पर्यटकों की संख्या घट सकती है। फिर भी वह चिंतित नहीं दिखतीं। शायद इस क्षेत्र के निवासी भूस्खलन और भूकंप जैसी जलवायु आपदाओं के आदी हो चुके हैं। उत्तराखंड में पिछले कुछ दिनों से हो रही लगातार बारिश ने जनजीवन अस्त-व्यस्त कर दिया है और भूस्खलन का खतरा बढ़ा दिया है। टिहरी जिले के देवप्रयाग में हाल ही में हुई भूस्खलन की घटना इसका स्पष्ट उदाहरण है।

ऐसी आपदाएं यहां के जीवन का हिस्सा बन चुकी हैं।चुरेर धार गांव की रहने वाली शकुंतला ने द फेडरल से कहा, "हम लगातार प्रबल होती आपदाओं के डर में जीते हैं, लेकिन फिर भी जीवन तो चलाना ही है और आजीविका भी जरूरी है। शकुंतला ने 50 साल पहले चमोली जिले में शुरू हुए चिपको आंदोलन के बारे में सुना है — एक ऐतिहासिक पर्यावरणीय आंदोलन, जो वनों की कटाई और प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के खिलाफ पेड़ों से चिपक कर विरोध करने के लिए प्रसिद्ध हुआ। वह कहती हैं, "हमारे बचपन में यहां कई किस्म के पेड़ थे, लेकिन अब सड़कों और ढांचागत निर्माण के लिए हजारों पेड़ काट दिए गए हैं।"

वह आगे कहती हैं कि "वनों की कटाई से क्षेत्र में बाढ़ और भूस्खलन की घटनाएं बढ़ गई हैं और प्राकृतिक आपदाएं आम हो गई हैं। हमें अपने पर्यावरण की नाज़ुकता का एहसास है और हम अपने जंगलों की रक्षा करना चाहते हैं। जब एक NGO, हिमोत्थान सोसाइटी, ने हमें प्रकृति मार्गदर्शक बनने और पर्यटकों व युवाओं को पारिस्थितिकी क्षरण के प्रति जागरूक करने के लिए प्रशिक्षण देने का प्रस्ताव रखा, तो हमने सहर्ष स्वीकार कर लिया। हम केवल गाइड नहीं, बल्कि अपने क्षेत्र की कहानियां सुनाने वाले लोग हैं, जो अपने पहाड़ों, जंगलों और गांवों की विरासत की रक्षा कर रहे हैं।"


(इस पर्यटन परियोजना का नेतृत्व नौ महिलाओं ने किया, जिन्हें गहन प्रशिक्षण के बाद चुना गया।)

शकुंतला, जो राजमा, मसूर, फूलगोभी और मटर की खेती करती हैं, वनस्पतियों और खेती की जटिलताओं की अच्छी जानकारी रखती हैं। वह सिल्वर ओक और हिमालयी देवदार (देवदारू) में अंतर पहचान सकती हैं और हर पेड़ के पर्यावरणीय लाभ बता सकती हैं जैसे सिल्वर ओक सालाना लगभग 22 किलो कार्बन डाइऑक्साइड अवशोषित कर सकता है। वह चुरेर धार में सोलर वॉटर पंप ट्रेल पर पर्यटकों को ले जाती हैं, जिसमें गांव भ्रमण, जंगल की सैर और सामुदायिक जल संरक्षण परियोजना शामिल होती है।

वह हिम विकास समिति (HVS) की सदस्य हैं, जो टिहरी गढ़वाल के चंबा ब्लॉक में एक स्वयं सहायता समूह है, जिसे टाटा ट्रस्ट्स की पहल, देहरादून स्थित NGO हिमोत्थान सोसाइटी द्वारा समर्थन प्राप्त है। हिमोत्थान पश्चिमी हिमालयी क्षेत्र में आत्मनिर्भर पर्वतीय समुदायों के निर्माण हेतु कार्य करता है।

हिमोत्थान के कार्यकारी निदेशक विनोद कोठारी कहते हैं, "महिलाएं भले ही औपचारिक रूप से साक्षर न हों, लेकिन उन्हें अपने प्राकृतिक संसाधनों, परिवेश और जैव विविधता की गहन जानकारी होती है। इस परियोजना में उनकी विशेषज्ञता का लाभ उठाने का निर्णय लिया गया, ताकि उनकी आमदनी भी बढ़ सके।"

हिमोत्थान की पर्यटन परियोजना समन्वयक प्रियंका रावत बताती हैं, "ये महिलाएं पहाड़ों में पली-बढ़ी हैं, कठिन और जोखिमपूर्ण जंगलों में चल सकती हैं, और पर्यावरणीय क्षरण को लेकर बेहद सजग हैं। इसलिए हमने इन्हें प्रशिक्षित कर प्रकृति गाइड बनाया, ताकि ये पर्यटकों को वनस्पति, जीव-जंतु, प्राकृतिक आपदाओं के खतरे और वनों के संरक्षण की जरूरत के बारे में जागरूक कर सकें।"

जिला पर्यटन विकास अधिकारी सोबत सिंह राणा बताते हैं कि इन महिलाओं को 26 जनवरी को उनके प्रयासों के लिए सम्मानित किया गया। अधिकांशतः अशिक्षित होने के बावजूद ये महिलाएं पर्यटकों और अपनी ही नई पीढ़ी को पर्यावरण और स्थानीय धरोहर के प्रति जागरूक कर रही हैं।

सिलकोटी गांव की 34 वर्षीय सुषमा पुंडीर, जो दो साल से इस परियोजना से जुड़ी हैं, बताती हैं कि वह पर्यटकों को स्थानीय जड़ी-बूटियों के औषधीय लाभ समझाती हैं। "कौड़िया वन क्षेत्र की जड़ी-बूटियों में पर्यटक बड़ी रुचि लेते हैं। मैं उन्हें देवदार के जंगलों से होते हुए 3.5 किमी लंबी ट्रेल पर ले जाती हूं। वहां हिमालय की चोटियों के दर्शन, जंगल सफारी, साइक्लिंग और फॉरेस्ट हाई टी का आनंद मिलता है।"

वह कहती हैं, "पर्यटक अकसर पूछते हैं कि ये जड़ी-बूटियां एलोपैथिक दवाओं के विकल्प कैसे बन सकती हैं। हम उन्हें गांव की सैर भी कराते हैं और मंदिरों व धरोहर स्थलों की कहानियां सुनाते हैं। होमस्टे का अनुभव उन्हें खास लगता है। हिमालय, बर्ड वॉचिंग ट्रेल्स और टिहरी झील का नजारा उन्हें खासा पसंद आता है।"

पर्यटन सीजन में सुषमा की आय लगभग ₹3,000 प्रति माह होती है, जो उनके परिवार की आय में योगदान देती है। वह कहती हैं, "इस अतिरिक्त आय ने मुझे आर्थिक स्वतंत्रता दी है। सबसे बड़ी बात यह है कि मुझे अलग-अलग लोगों से मिलना और बातचीत करना अच्छा लगता है।"

इस परियोजना के अंतर्गत होमस्टे भी शामिल हैं, जिसके तहत महिलाओं को अपने घरों का नवीनीकरण करने और शौचालय बनाने में आर्थिक सहायता दी गई, ताकि पारंपरिक आकर्षण बना रहे — पत्थर की चक्की और कुएं समेत। मेहमानों को स्थानीय उत्पादों से बना घर का बना खाना परोसा जाता है।

HVS ने जड़ीपानी में 'नाथुली कैफे' नामक एक सामुदायिक कैफे भी शुरू किया है, जहां पारंपरिक व्यंजन सस्ते दामों में परोसे जाते हैं।जड़ीपानी की लक्ष्मी देवी ने अपने घर को होमस्टे में बदल दिया है और सालाना ₹70,000 तक की कमाई करती हैं। होमस्टे के लिए उनके घर के नवीनीकरण में कुल ₹1,61,737 खर्च हुए, जिसमें से ₹1,29,405 हिमोत्थान ने दिए और ₹32,332 उन्होंने स्वयं खर्च किए।


परियोजना की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि इससे नई पीढ़ी में प्रकृति संरक्षण और पारंपरिक विरासत के प्रति जागरूकता बढ़ रही है। सुषमा बताती हैं कि वह अक्सर पर्यटकों को गांव की एक पुरानी धरोहर इमारत की कहानी सुनाती हैं, जो स्थानीय रूप से '52 गढ़ों' में से एक मानी जाती है। बच्चों को इसके इतिहास की जानकारी पहले नहीं थी, लेकिन अब वे इसे पर्यटकों को सुनाते हैं। इस तरह अगली पीढ़ी भी अपनी विरासत से जुड़ रही है।

पर्यटन विशेषज्ञों के अनुसार, ग्रामीण पर्यटन न केवल दूर-दराज़ के क्षेत्रों की आर्थिक प्रगति को बढ़ाता है, बल्कि स्थानीय समुदायों को स्थायी आजीविका, रोजगार और उद्यमिता के अवसर प्रदान करता है। यह महिलाओं और युवाओं को आत्मनिर्भर बनने में मदद करता है और उन्हें शहरों की ओर पलायन से रोकता है। यह स्थानीय कला, शिल्प और सांस्कृतिक परंपराओं के संरक्षण में भी सहायक है।

उत्तराखंड में महिला नेतृत्व वाला ग्रामीण पर्यटन अब केवल आमदनी तक सीमित नहीं है। यह नदियों, वनों, पवित्र स्थलों, पर्वतों और स्थानीय जैव विविधता के संरक्षण का बड़ा उद्देश्य भी निभा रहा है। नई पीढ़ी अब अपने क्षेत्र की पारिस्थितिकी और संस्कृति के प्रति अधिक सजग हो रही है।

राजस्थान में सरकार द्वारा 2022 में शुरू की गई 'राजस्थान ग्रामीण पर्यटन योजना' के अंतर्गत 35 से अधिक ग्रामीण स्थलों की पहचान की गई है, जैसे गेस्टहाउस, कैरावन पार्क, स्टड फार्म और कैंपिंग ग्राउंड, जो पर्यटकों को विशेष अनुभव प्रदान करते हैं।

पूर्वोत्तर भारत में नागालैंड का एक छोटा सा कृषि गांव, दज़ुलेके, जिसमें 200 अंगामी नागा परिवार रहते हैं, अब एक अनूठा ईको-टूरिज्म केंद्र बन गया है। लगभग 25 वर्ष पहले यहां के जंगलों में शिकार पर प्रतिबंध लगाया गया था, जिससे यह इलाका पक्षियों और अन्य वन्य जीवों के लिए सुरक्षित शरणस्थली बन गया। पर्यटन की अधिकता को नियंत्रित करने के लिए गांव परिषद ने 'दज़ुलेके ईको-टूरिज्म बोर्ड' बनाया, जिसमें समुदाय को प्रशिक्षित कर होमस्टे और प्रकृति गाइड बनने की व्यवस्था की गई।

जड़ीपानी में जब सुषमा पर्यटकों के समूह को अपने क्षेत्र की पारिस्थितिकी समझाते हुए प्रकृति ट्रेल पर ले जाती हैं, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि पर्वतीय महिलाएं अब अपनी सीमाओं को तोड़ रही हैं — और यह साबित कर रही हैं कि उनका स्थान केवल चारदीवारी तक सीमित नहीं है।

Read More
Next Story