
तमिलनाडु में हिंदी विरोध का मामला सियासी या कुछ और वजह
केंद्र सरकार की त्रीभाषा योजना को लेकर दक्षिण भारत ख़ासतौर पर तामिलनाडू में. इसी विषय पर द फ़ेडरल के ग्रुप एडिटर एस श्रीनिवासन ने चर्चा के दौरान अहम पहलुओं को बारीकी से समझाया
Three Language Policy : द फ़ेडरल के समूह संपादक एस श्रीनिवासन 'तामिलनाडू में उठे भाषा के विवाद' के विषय पर विस्तार से चर्चा में शामिल हुए हैं. द फ़ेडरल से जुड़ी नीलू व्यास के साथ इस विषय पर चर्चा करते हुए उन्होंने विस्तार से सभी सवालों का जवाब दिया और सभी पहलुओं को विस्तार से रखा. नज़र डालते हैं कि इस चर्चा में क्या क्या बातें निकल कर सामने आयीं।
सवाल : तामिलनाडू में भाषा का जो विवाद शुरू हुआ है, वो पहले भी रहा है, लेकिन इस बार ये विवाद कितना बड़ा है, आपको क्या लगता है?
ये बिलकुल ठीक बात है कि बहुत पुराना विरोध रहा है हिंदी का तमिलनाडु में। ये हमको शुरू में समझना होगा कि हिंदी भाषा सीखने में या उसमें बोलने में यहां पर लोगों को कोई दिक्कत नहीं है। यदि आप देखें तो यहां पर जो हिंदी भाषा के लिए स्कूल हैं, जहां पर हिंदी भाषा सिखाई जाती है, वहां पर काफी तादाद में लोग जाते हैं और हिंदी सीखने की कोशिश भी करते हैं। तो वो कोई दिक्कत का विषय नहीं है। दिक्कत ये है कि उनको जब लगता है कि हिंदी को हमारे ऊपर थोपा जा रहा है, तब वहां पर उनको दिक्कत महसूस होती है। आपने ठीक कहा कि 1930 के दशक से ही यह चला आ रहा है। सी राजगोपालाचारी, जब यहां के गवर्नर जनरल थे, उन्होंने हिंदी को कंपलसरी/जरूरी घोषित किया था। तो उस पर यहां पर काफी बड़ा विरोध हुआ, और उसके बाद उस विरोध में कई लोग मारे गए। जब देश की स्वतंत्रता के 10 साल बाद, जो पहले मुख्यमंत्री यहां बने ममनूर रामास्वामी रेड्डी, उन्होंने दोबारा हिंदी को कंपलसरी किया, तो फिर से यहां पर काफी बवाल हुआ और काफी नुकसान हुआ। उन्होंने फिर उसे वापस ले लिया। 1964 में भी यह बात दोबारा उठी, जब ऑफिशियल लैंग्वेज एक्ट इंप्लीमेंट हुआ, 1963 का, जहां पर हिंदी को एक अकेला लिंक ऑफिशियल लैंग्वेज माना गया। एक ऑफिशियल लैंग्वेज की भूमिका सिर्फ हिंदी को दी गई। इसके बाद, इसको अमेंड किया गया 1967 में और कहा गया कि हिंदी पहले ता सोल हिंदी रहेगा, फिर बाद में हिंदी को ऑफिशियल लैंग्वेज में बदल दिया गया। मगर तब भी विरोध चलता रहा। 1968 में, अंततः तब यहां पर सरकार को, जो सेंट्रल गवर्नमेंट है, उसे यह कहना पड़ा कि थ्री लैंग्वेज फार्मूला पूरे देश में लागू होगा, मगर तमिलनाडु को रियायत दी जाएगी। तमिलनाडु में सिर्फ दो भाषाओं का फार्मूला लागू होगा। वो दो भाषाएं होंगी हिंदी, सॉरी इंग्लिश और तमिल। इंग्लिश जो है वो पहले थी, सिर्फ 15 साल के लिए, लिंक लैंग्वेज सेंट्रल गवर्नमेंट के ऑफिशियल लैंग्वेज को कह दिया गया, इनफिनिटली होगा। यह जो है, 1968 का अमेंडमेंट है, जब यह बात मान ली गई कि 1968 के बाद सिर्फ टू लैंग्वेज फार्मूला सिर्फ तमिलनाडु में लागू होगा, बाकी पूरे देश में तीन लैंग्वेज फार्मूला होगा। जब यह कांस्टीट्यूशनली डिसाइड हो गया है, उसके बाद जब बार-बार यह बात उठती है, तो यहां के लोग उसे शक की नजर से देखते हैं। तो यही हुआ जब धर्मेंद्र प्रधान जी ने कहा कि देखिए, न्यू एजुकेशन पॉलिसी को उन्होंने जोड़ने की कोशिश की, तो यहां पर मुख्यमंत्री ने उसके खिलाफ एक चिट्ठी लिखी। उन्होंने कहा कि कतई हम, आप कितना भी हमें पैसा दें, वैसे मध्य सरकार को राज्य सरकार को करीब 5000 करोड़ रुपए देने थे शिक्षा के लिए, उन्होंने कहा कि अगर हमें 10000 करोड़ भी दे दें, तब भी हम इससे पीछे नहीं हटेंगे। यहां पर यह बात दोबारा इसलिए भी थी कि आपको थोड़ा सा पीछे जाना होगा। अप्रैल 2020 में, ऑफिशियल लैंग्वेजेस की जो कमेटी है, वह दिल्ली में बैठी। उसकी बैठक हुई, अमित शाह जी गृह मंत्री उसके चेयर पर्सन थे। तब उन्होंने यह कहा कि देखिए, समय अब आ गया है, प्रधानमंत्री जी का भी यह कहना है कि हिंदी को हमें राष्ट्र भाषा बना देना चाहिए। तो तब फिर से यहां पर इसका विरोध उठा। तो यहां पर लगातार एक शक बना रहता है कि इसके बावजूद कि कांस्टीट्यूशन में ऐसा कोई प्रोविजन नहीं है कि थ्री लैंग्वेज फार्मूला लागू होगा, और यहां पर न्यू एजुकेशन पॉलिसी के इंप्लीमेंटेशन में तीन लैंग्वेज फार्मूला को क्यों जोड़ा जा रहा है? यहां जो पैसा जो इस प्रदेश को मिलना चाहिए, उससे क्यों जोड़ा जा रहा है?
सवाल : केंद्र सरकार की क्या मंशा रह सकती है ?
जवाब : देखिए, मैं इस बात का जवाब तो नहीं दे सकता कि इस कदम के पीछे जो सरकार है दिल्ली में, उसकी क्या मंशा रही होगी। यह तो मैं नहीं कह सकता, मगर जरूर यहां से, यदि हम चेन्नई से देखें तो लगता है कि जब कांस्टीट्यूशनली तय हो चुका है कि टू लैंग्वेज पॉलिसी ही यहां पर लागू है, दो भाषाओं का ही फार्मूला का इंप्लीमेंटेशन होना चाहिए, न्यू एजुकेशन पॉलिसी को उन्होंने इसके साथ क्यों मिलाने की कोशिश की है, यह जो है, थोड़ा समझ के बाहर है। यदि आप उसको पॉलिटिकली देखना चाहें, इसके पीछे की क्या राजनीति हो सकती है, इसको यदि समझना चाहें तो यह है कि अगले साल चुनाव हो रहे हैं तमिलनाडु में। यहां पर अपना पांव पसारने के लिए बीजेपी ने कई सारी कोशिशें की हैं। पिछले दिनों उन्होंने इसमें जो रिलीजस पोलराइजेशन कहा जाता है, जो एक तरीके से आप कहें तो हिंदू या मुस्लिम इस तरह की जो बातें होती हैं, और यहां पर उसका कोई, यहां पर हिंदुत्व को लेकर यहां पर कोई प्रचलन है नहीं। जो कास्ट कॉम्बिनेशन भी वहां, यहां पर यदि जो एक एक्सपेरिमेंट यहां पर यह हुआ था कि कुछ पिछड़ी जातियां, जो हैं, उनको मिलाकर क्या एक नया समीकरण बन सकता है, उसमें भी खास बीजेपी को कोई, उसका हां, यानि कुछ बना नहीं। जो पिछला जो चुनाव हुआ, पार्लियामेंट्री चुनाव, उसमें भी उनको बहुत बड़ी कोई सफलता हासिल नहीं हुई। वोट परसेंटेज जरूर बढ़ा। तो मुझे लगता है कि बीजेपी एक बार फिर ये कोशिश कर रही है कि 2026 के जो असेंबली इलेक्शन होने वाले हैं, उसमें उनका थोड़ा सा वजूद बने, और इसलिए यह कोशिश हो सकती है कि एक तरह का, क्या इस इशू को लेकर यहां के राजनीति का ध्रुवीकरण हो सकता है। मुझे मगर लगता है कि इसमें, यदि इस तरीके का कोई मंशा है, तो उसमें शायद बीजेपी को सफलता ना मिले। मेरा यह सोचना है।
सवाल : उत्तर भारत और दक्षिण राजनीती में क्या अंतर है ?
जवाब : यहां की जो राजनीति है, जो द्रमुक राजनीति है, वो पूरी की पूरी भाषा पर आधारित है। यदि आप देखें, यहां के राजनीतिक जो द्रविड़ पार्टीज का जो रिज हुआ है, जो जिस तरीके से उनका ग्रोथ हुआ है, जिस तरह से बड़े हैं, उन सबका कारण भाषा ही है। क्योंकि यह जो आप देख लेंगे, 1930 का दशक हो, 1937 का एजीटेशन हो, 1947 का एजीटेशन हो, 1964 का एजीटेशन हो, 1967 का एजीटेशन, कोई भी ले लीजिए आप, यह 30 के दशक, 40 के 50 के 60 के सभी में यह लैंग्वेज पॉलिसी को ही लेकर यहां का राजनीति द्रविड़ पार्टियों ने बढ़ाया है। यदि यहां के जो पूर्व मुख्यमंत्री करुणानिधि रहे हैं, उनका भी जो राजनीतिक में जो उनका नाम कमाया और काफी बड़े नेता की तरह उभर के आया, उसका भी जो यदि आप देखें तो वो ये लैंग्वेज पॉलिटिक्स से ही शुरू होता है। और यहां का जो पॉलिटिक्स है, यदि आप करना चाहता है, कोई भी पार्टी भाषा को अलग रख के नहीं कर सकता। तो इसलिए यह बड़ी दिक्कत है किसी भी राजनीतिक पार्टी के लिए कि वह इसको दरकिनार रखे और कोई और पॉलिटिक्स करे। बीजेपी के जो यहां के कार्यकर्ता हैं, इस प्रदेश के तमिलनाडु के, उनको भी बड़ी दिक्कत होगी यदि इस तरह कोई स्टैंड सेंटर से लिया जाए तो, क्योंकि वो जनता को फेस नहीं कर सकते जनता के सामने।
सवाल : केंद्र और राज्य सरकार के बीच रस्सा कशी क्यों ?
जवाब : मुझे लगता है कि ये राज्य सरकार और केंद्र सरकार के बीच ये रस्सा कशी यहां पर लगातार चलती रही है। इसके पहले भी कई सारे मामले हैं, जैसे मैंने थोड़ी देर पहले आपसे बताया था, डीलिमिटेशन एक मुद्दा है, यूजीसी को लेकर, वाइस चांसलर के अपॉइंटमेंट को लेकर एक बड़ा मुद्दा है, गवर्नर को लेकर उनका जो चाल चलन है, वह जो बयान देते हैं, बयानबाजी करते हैं और उनका जो असेंबली में उन्होंने एक बार वॉक आउट भी किया, यह सबको लेकर भी एक मुद्दा है। गवर्नर को लेकर यहां पर काफी पॉलिटिकल गरमा-गर्मी होती रहती है, वह भी एक मुद्दा है। आप यदि देखें, कई और मुद्दे हैं, जैसे जीएसटी का मामला है, उसमें भी राज्य सरकार के अपने कई शिकायतें हैं और जो डिवोशन ऑफ फंड होता है, फाइनेंस कमीशन का, जो अगले साल उसे रिपोर्ट देना है, उसको लेकर भी यहां पर काफी चर्चा है। यह तमिलनाडु में एक आम तौर पर पॉलिटिक्स में है, और इवन जनता इस बात को मानती है कि क्या यह जो प्रदेश तमिलनाडु है, वह इकोनॉमिकली और फाइनेंशली बाकी से अच्छा चल रहा है, अच्छा काम हो रहा है यहां पर। यहां पर जो कहते हैं, ह्यूमन इंडेक्स आउटकम्स हैं, पढ़ाई में, हेल्थ में, एजुकेशन में, बाकी सब चीजों में भी अच्छी सफलता हासिल की है। स्टेट को इस सबके बावजूद, जब बंटवारा होता है रेवेन्यू का, जब सेंटर और स्टेट के बीच में जो रेवेन्यू बांटा जाता है, तो प्रदेश को जितना मिलना चाहिए उतना पैसा नहीं मिलता। इसको लेकर यहां पर लोग नाराज रहते हैं और यहां की जो राजनीति भी है, उसको भी लेकर आधारित है। तो मुझे लगता है, ये सभी मुद्दे एक साथ उठाए जाएंगे 2026 के चुनाव में और उसकी एक शुरुआत देख रहे हैं।
सवाल : भाषा को लेकर जो विवाद शुरू हुआ है, उसे कैसा मामला मानते हैं, ये कितना गहरा सकता है?
जवाब : मुझे लगता है कि ये संवेदनशील है, यहां पर बहुत ज्यादा सेंसिटिव इशू है, बहुत ज्यादा। केंद्र सरकार इस दो-तीन स्टेटमेंट के बाद उनसे कोई बड़ा स्टेटमेंट नहीं आया है। बार-बार यहां पर स्टालिन यह बातों को उठा रहे हैं, दो लैंग्वेज पॉलिसी के बारे में, थ्री लैंग्वेज पॉलिसी के बारे में, उसके हिंदी को थोपे जाने के बारे में वह बात कर रहे हैं, मगर मुझे लगता है कि केंद्र से धर्मेंद्र प्रधान के उस बयान के बाद, उसके बाद कुछ खास बातें आई नहीं हैं। मुझे लगता है कि इस विषय को धीरे से केंद्र सरकार जो है, ठंडे बस्ते में डाल देगी। इसके पहले भी हुई है, जैसे मैंने कहा था, ऑफिशियल लैंग्वेजेस कमेटी बैठी थी, उसमें जो मुद्दा उठाया था और उसके बाद यहां पर जो साइन बोर्ड है, मतलब रेलवे स्टेशनों के नाम, सड़कों के नाम जो हिंदी में लिखे जा रहे थे, अंग्रेजी के साथ, और कई जगह अंग्रेजी ना होकर वहां पर हिंदी लिखे जा रहे थे, उसमें भी यहां पर काफी विरोध हुआ था। तो बीच-बीच में ये बातें चलती, उठती रहती हैं, उसके बाद वो हाश में चली जाती हैं, फिर से शायद बाद में कभी उठे। मुझे लगता है कि केंद्र सरकार इस बात को बहुत अच्छे से समझती है कि ये बहुत संवेदनशील मामला है और इसको बहुत ज्यादा तूल नहीं दिया जाना चाहिए।
सवाल: अगर केंद्र सरकार इस बात को समझती है कि तमिल नाडू में ये बहुत संवेदनशील मुद्दा है तो फिर धर्मेन्द्र प्रधान ने इस विषय पर टिप्पणी क्यों की? किसी रणनीति के तहत या फिर उनसे गलती से बात निकल गयी?
जवाब : मैं इसको दो दृष्टिकोण से देखूंगा। एक तो यह है कि केंद्र सरकार के वहां के जो राजनेता हैं, धर्मेंद्र प्रधान हो और बाकी, वो यहां की राजनीति को कितना समझ रहे हैं और उसका किस तरह से आकलन कर रहे हैं। हालांकि अमित शाह जी यहां पर अक्सर आते रहते हैं, आज भी वो यहां पर चेन्नई आए हुए हैं, तो उनको यह बात तो जरूर उनके जहन में होगी कि यहां के लिए तो बहुत ज्यादा संवेदनशील मामला है और उसको इस तरह से नहीं उठाया जाना चाहिए। इसको जरूर नजरिए में रखेंगे। मुझे लगता है कि इसको, जैसे मैंने पहले कहा, बहुत ज्यादा तूल नहीं देंगे और इसको चाहेंगे कि वह धीरे-धीरे ये कम हो जाएं। मगर इससे बड़ा जो एक ओवरऑल एक आईडियोलॉजी का है, वह राष्ट्रवाद का है और बीजेपी का जो राष्ट्रवाद में इस देश में एक भाषा हो, एक पढ़ाई की एक पद्धति हो, एक खानपान का एक लहजा हो, ये जो चीजें हैं, बार-बार ये आती रहती हैं, यहां पर उठती रहती हैं। मुझे लगता है कि उस कड़ी में, उस राष्ट्रवाद की कड़ी में, यह बात भी उठती है। इस पर विचार-विमर्श होते हैं, लोग अपना विचार तय करते हैं और फिर जब देखेगी कि बीजेपी को इससे ज्यादा फायदा नहीं है, तो पार्टी समझदार है, वह पीछे भी हटने में फिर नहीं हिचकिचाती। इसके पहले भी कई इस तरह से जो कंट्रोवर्शियल इश्यूज हैं, उसको उठाया है, उसके बाद बीजेपी ने उसको वापस लिया है। मुझे लगता है इस बार भी उनको यही करना पड़ेगा और वही करेंगे भी।