टैरिफ दबाव के बीच मोदी और जिनपिंग की मुलाकात बनी ख़ास, सब गढ़ायें है नज़र
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टैरिफ दबाव के बीच मोदी और जिनपिंग की मुलाकात बनी ख़ास, सब गढ़ायें है नज़र

प्रधानमंत्री मोदी और शी जिनपिंग की मुलाकात पर अमेरिका भी नज़र बनाए हुए है. इस मुलाकात को लेकर विश्वभर में उत्सुकता है. वजह है अमेरिका की टैरिफ दादा गिरी.


PM Modi And Xi Jinping Meet: दुनिया इस वक्त प्रधानमंत्री मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की मुलाकात पर टकटकी लगाए बैठी है। कारण है साल की सबसे अहम और चर्चित मुलाकात—राष्ट्रपति शी जिनपिंग और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आमने-सामने होंगे। यह मुलाकात शंघाई सहयोग संगठन (SCO) समिट के इतर रखी गई है और इसलिए इसके राजनीतिक, कूटनीतिक और आर्थिक मायने बेहद बड़े हैं। कैमरों का फोकस दोनों नेताओं पर रहेगा और पूरी दुनिया उनके हावभाव और संदेशों को बारीकी से परखेगी।

यह बैठक ऐसे समय हो रही है जब वैश्विक अर्थव्यवस्था अस्थिरता से गुजर रही है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की "टैरिफ वॉर" और उनकी कारोबारी धमकियों ने भारत और चीन, दोनों ही देशों को प्रभावित किया है। नतीजा यह है कि वॉशिंगटन के राजनीतिक गलियारों में मोदी-जिनपिंग मुलाकात की गूंज सुनाई दे रही है। ट्रंप के सलाहकार और अमेरिकी विशेषज्ञ इसे बेहद नजदीकी से ट्रैक कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें अहसास है कि भारत को नाराज़ कर अमेरिका ने एशिया में एक भरोसेमंद साथी खो दिया है।

चीन की चिट्ठी और बदलते संकेत

भारत-चीन रिश्ते अक्सर भरोसे की कसौटी पर खरे उतरने में हिचकते रहे हैं। लेकिन हालात अब बदलते दिख रहे हैं। मार्च 2025 में राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को एक चिट्ठी लिखकर संबंधों को सुधारने की इच्छा जताई थी। इस पत्र में जिनपिंग ने साफ कहा था कि भारत और चीन अगर मिलकर काम करें तो एशिया और दुनिया में स्थिरता आएगी। उन्होंने यह आशंका भी जताई कि भारत और अमेरिका की नज़दीकी चीन के हितों को नुकसान पहुंचा सकती है। यही चिट्ठी बाद में प्रधानमंत्री मोदी तक पहुंची और इसके बाद रिश्तों में नई सक्रियता देखी जाने लगी।
बीते दो वर्षों में मोदी और जिनपिंग की मुलाकातें अंतरराष्ट्रीय मंचों पर होती रही हैं—2023 में दक्षिण अफ्रीका के जोहानिसबर्ग और 2024 में रूस के कजान में ब्रिक्स समिट के दौरान दोनों आमने-सामने आए। हाल ही में चीन के विदेश मंत्री वांग यी भारत दौरे पर आए और पीएम मोदी के साथ मुलाकात कर रिश्तों में सुधार का संकेत दिया।

आर्थिक सहयोग की अनिवार्यता

भारत और चीन दोनों समझते हैं कि अगर वे वैश्विक दक्षिण (Global South) में अपनी स्थिति मजबूत करना चाहते हैं और अमेरिका के दबदबे को चुनौती देना चाहते हैं, तो उन्हें आपसी सहयोग को नई ऊंचाई देनी होगी। दुनिया की दो सबसे बड़ी आबादी वाले देशों के बीच व्यापारिक सहयोग वैश्विक अर्थव्यवस्था की रीढ़ बन सकता है।
लेकिन यथार्थ यह भी है कि रिश्ते केवल आर्थिक लाभ तक सीमित नहीं रह सकते। क्षेत्रीय और रणनीतिक संतुलन भी उतना ही अहम है। चीन जानता है कि भारत के बिना उसका वैश्विक खेल अधूरा रहेगा। वहीं भारत भी समझता है कि चीन की आर्थिक ताकत को नज़रअंदाज़ करना आसान नहीं है।

चुनौतियाँ और अविश्वास

दोनों देशों के रिश्ते में एक लंबी सूची है किंतु-परंतु की। सीमा विवाद अब भी पूरी तरह सुलझा नहीं है। गलवान घाटी की झड़प के बाद से भरोसे की खाई गहरी हुई थी। हाल ही में ब्रह्मपुत्र नदी पर चीन के बांध निर्माण को लेकर भारत में गंभीर चिंता जताई गई। अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री तक ने चेतावनी दी थी कि यह "वॉटर बम" साबित हो सकता है। ऐसे में सवाल उठता है—क्या मोदी-जिनपिंग मुलाकात से सीमा विवाद पर कोई ठोस तंत्र (मैकेनिज्म) तैयार होगा?

क्या होगा बड़ा ऐलान?

विश्लेषक मानते हैं कि यह बैठक सिर्फ पड़ोसियों की बातचीत नहीं, बल्कि वैश्विक शक्ति संतुलन के लिए बिसात बिछाने जैसी है। अगर भारत और चीन नए आर्थिक रोडमैप पर सहमत होते हैं तो यह ट्रंप की "टैरिफ दादागीरी" का जवाब हो सकता है। वहीं, अगर सीमा विवाद पर कोई प्रगति होती है, तो यह पूरे एशिया में शांति और स्थिरता का बड़ा संकेत होगा।
फिलहाल सबसे बड़ा सवाल यही है—क्या चीन पर भरोसा किया जा सकता है? या यह मुलाकात भी बीते संवादों की तरह प्रतीकात्मक रह जाएगी?
इतना तय है कि मोदी-जिनपिंग की इस ऐतिहासिक भेंट पर न केवल एशिया, बल्कि पूरी दुनिया की नजरें टिकी होंगी।


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