पल पल बदलते हालातों के बीच क्या होगा बांग्लादेश का भविष्य
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पल पल बदलते हालातों के बीच क्या होगा बांग्लादेश का भविष्य

राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि बीएनपी को इस स्थिति से लाभ मिल सकता है, जबकि सेना, सरकार संभालने की इच्छुक नहीं होने के बावजूद, हसीना के बाद बांग्लादेश में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी।


Bangladesh Unrest: बांग्लादेश में राजनितिक भूचाल का तात्कालिक कारण कोटा को लेकर छात्रों का विरोध प्रतीत होता है, जो हिंसा में बदल गया. लेकिन क्या सिर्फ यही एक कारण है, जिसने बाग्लादेश की राजनीती में इतना बड़ा भूचाल ला दिया कि शेख हसीना का पतन हुआ, जिन्होंने पिछले 15 वर्षों से देश पर कठोर शासन किया था. ऐसा लगता है कि उनके खिलाफ विरोध काफी समय से चल रहा था, लेकिन आरक्षण के मुद्दे से सबको हवा मिल गया.


कोटा पर विवाद
छात्र पिछले एक महीने से बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के वंशजों के लिए 30 प्रतिशत कोटा पुनः लागू करने के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं, लेकिन प्रदर्शनकारियों पर हसीना सरकार की खूनी कार्रवाई महंगी साबित हुई.
अजीब बात ये है कि युद्ध के दिग्गजों के वंशजों के लिए कोटा, जिसे 2018 में छात्रों के विरोध के बाद समाप्त कर दिया गया था, इस साल अदालत के आदेश के बाद फिर से शुरू किया गया.
विरोध प्रदर्शनों के फिर से शुरू होने के बाद, सुप्रीम कोर्ट ने विवादास्पद कोटा कम करने का आदेश दिया, लेकिन इस कदम को उठाने में बहुत देर हो गयी, क्योंकि हसीना सरकार द्वारा आंदोलन से निपटने में लापरवाही के कारण छात्रों का गुस्सा और भी बढ़ गया था. लगभग 300 लोगों की मौत के साथ, आंदोलन का ध्यान कोटा से हटकर हसीना सरकार पर चला गया.

आरक्षण आंदोलन ने दबी हुई शिकायतों को हवा दे दी
लंबे समय से दबी हुई जनता की शिकायतें और कुंठाएं, जिनका सामना कोई भी सत्ता विरोधी लहर वाली सरकार चुनाव के दौरान नहीं कर सकती, इन विरोध प्रदर्शनों के दौरान पहले से भड़के माहौल को और भड़काने का काम करती दिख रही हैं.
वॉयस ऑफ अमेरिका की बांग्ला सेवा के प्रबंध संपादक साबिर मुस्तफा इस बात से सहमत हैं कि "कोटा आंदोलन सिर्फ़ चिंगारी थी." "इसके पीछे कुछ अंतर्निहित मुद्दे थे. पिछले एक दशक से नाराज़गी बढ़ रही है, जब आवामी लीग ने तीन आम चुनावों में नेतृत्व किया, जिन्हें सभी धांधली के रूप में देखा गया. लोगों ने मताधिकार से वंचित महसूस किया और सरकार, खासकर हसीना को अहंकारी मानने लगे," वे कहते हैं.

कोटा से हटकर हसीना पर क्यों ध्यान केंद्रित किया गया?
सरकार ने राजनीतिक और सामाजिक संदर्भ में छात्रों के मूड को गलत तरीके से समझा, जहां युवा जनसांख्यिकी में 40 प्रतिशत बेरोजगारी है. पुलिस बल का क्रूर प्रयोग जिसके कारण इतनी सारी हत्याएं हुईं (रविवार को एक दिन में 100 से अधिक), इतना प्रतिकूल था कि छात्र नेतृत्व ने कोटा मुद्दे को एक तरफ रख दिया और घोषणा की कि अब से हसीना को बाहर करना ही आंदोलन का केंद्र होगा.
मुस्तफा कहते हैं, "कोविड-19 महामारी के बाद, आर्थिक संकट ने गुस्से की सामान्य भावना को और बढ़ा दिया, खास तौर पर जीवन-यापन की बढ़ती लागत, नौकरियों की कमी, खासकर शिक्षित युवाओं के लिए, और दूसरी तरफ सरकारी उच्च-पदस्थ लोगों के बीच व्याप्त भ्रष्टाचार। इसलिए अलग-अलग क्षेत्रों के लोग भड़कने के लिए तैयार थे."
लंदन में रहने वाले वरिष्ठ स्वतंत्र बांग्लादेशी पत्रकार कमाल अहमद का भी कहना है कि उच्च स्तर का भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा था, जिसकी वजह से हसीना सरकार से लोगों का मोहभंग हुआ. इसके अलावा, 2008 में सत्ता में आने के बाद उनके शासन ने चुनावों की निगरानी के लिए तटस्थ तंत्र (कार्यवाहक सरकार) को हटा दिया, जिससे भी वह अलोकप्रिय हो गईं, उन्होंने कहा.

'शासन की तानाशाही शैली' पर गुस्सा
एक अन्य कारक जिसने हसीना की मदद नहीं की, वो था उनकी तानाशाही शासन शैली. मुस्तफा कहते हैं कि 1996-2001 के अपने पहले कार्यकाल के दौरान उन्होंने तानाशाह की तरह व्यवहार नहीं किया. लेकिन 2008 में भारी जीत के बाद उनकी शासन शैली बदल गई.
मुस्तफा कहते हैं, "न्यायिक हत्याओं की घटनाएं, जो उनकी प्रतिद्वंद्वी खालिदा जिया के शासन में शुरू हुई थीं, हसीना के शासन में नियंत्रण से बाहर हो गईं. जबरन गायब किए जाने की घटनाओं ने मानवाधिकारों के हनन को और बढ़ा दिया, जो आम बात हो गई."

हसीना के बाद बांग्लादेश में सेना की भूमिका
तो, बांग्लादेश में आगे क्या होगा? क्या बांग्लादेश की सेना, जो 1975 से लेकर 1990 तक राष्ट्रीय नियति का निर्णायक हुआ करती थी और अब फिर से आगे आई है, इस अवसर का उपयोग सरकार पर अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए करेगी?
मुस्तफा ऐसा मानने को तैयार नहीं हैं. वे कहते हैं, "बांग्लादेश में पूर्ण सैन्य शासन की संभावना बहुत कम है. मौजूदा सेना प्रमुख से ऐसा नहीं लगता कि वे वास्तव में सत्ता संभालना चाहते हैं. हालांकि, सेना हसीना के बाद बांग्लादेश को आगे बढ़ाने में अहम भूमिका निभाना चाहेगी."
मुस्तफा का ये भी मानना है कि सेना स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने का अपना वादा पूरा करेगी.

अवामी लीग के पतन से किसे लाभ होगा?
बांग्लादेश में द्विध्रुवीय राजनीति का क्या मतलब है कि लंबे समय से दबा हुआ मुख्य विपक्षी दल बांग्लादेश नेशनल पार्टी (बीएनपी) स्वाभाविक लाभार्थी होगा? या फिर एक तीसरी ताकत (असम छात्र आंदोलन की तरह जो एक राजनीतिक दल बन गया) के उभरने की संभावना है?
मुस्तफा जैसे बांग्लादेशी पर्यवेक्षक किसी तीसरी ताकत के उभरने की संभावना को तुरंत खारिज करते हैं. वे कहते हैं, "बीएनपी के जीतने की संभावना सबसे ज़्यादा है क्योंकि वे अवामी लीग के बाद सबसे मज़बूत हैं. अतीत में तीसरी पार्टी बनाने की कोशिशें हुई हैं, जो दो बड़ी पार्टियों का विकल्प हो, लेकिन ये कोशिशें कामयाब नहीं हुईं. लोग हसीना को उखाड़ फेंकने वाले छात्र आंदोलन के नेताओं की ओर देखेंगे और सोचेंगे कि क्या वे खुद को एक राजनीतिक पार्टी के रूप में संगठित कर सकते हैं."

भारत को क्या करना चाहिए?
बांग्लादेश के राजनीतिक परिदृश्य में टेक्टोनिक प्लेट की हलचल का दक्षिण एशियाई पड़ोस, खासकर भारत पर क्या प्रभाव पड़ेगा? ऐतिहासिक रूप से भारत को अवामी लीग का प्रमुख समर्थक माना जाता रहा है और नरेंद्र मोदी सरकार भी इस परंपरा का अपवाद नहीं रही है.
अहमद ने कहा कि न केवल भारत, बल्कि चीन, रूस और अमेरिका जैसी अन्य बड़ी शक्तियों ने लंबे समय तक हसीना सरकार का समर्थन किया, उनकी ज्यादतियों को बर्दाश्त किया, और उन्होंने कहा कि भविष्य में उन्हें "बांग्लादेश के प्रति अपनी नीति को नए सिरे से तय करने की जरूरत है."


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