नफरत की आग में ढाका का धानमंडी-32 तबाह, भारत से भी था अटूट रिश्ता
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नफरत की आग में ढाका का धानमंडी-32 तबाह, भारत से भी था अटूट रिश्ता

अब इसे नफरत की आग ना कहा जाए तो फिर क्या कहना चाहिए। ढाका में उग्र लोगों की भीड़ ने उस धानमंडी 32 में तोड़फोड़ की और उसे जला दिया जिसका अपना एक समृद्ध इतिहास था।


Dhanmondi-32 History: आज का बांग्लादेश 1971 से पहले पूर्वी पाकिस्तान आज के मौजूदा पाकिस्तान का हिस्सा था। नाता सिर्फ हिस्से भर का ही था। तब का पश्चिमी पाकिस्तान अपने इस हिस्से को हिकारत के नजरिए से ही देखता था और यह बात यहां के बाशिंदों को खटकती थी। उपेक्षा का भाव सहते सहते शेख मुजीबुर्ररहमान की अगुवाई में धानमंडी 32 से आवाज उठनी शुरू हुई और नतीजा यह हुआ कि 1917 में बांग्लादेश का दुनिया के नक्शे पर उदय हुआ। आज हम बात उसी धानमंडी-32 की करेंगे जो जिसे नफरत की आग ने जला कर खाक कर दिया है।

धानमंडी-32, पांच फरवरी तक बांग्लादेश के इतिहास में दो महत्वपूर्ण क्षणों का गवाह रहा है। सोशल मीडिया पर बुलडोजर जुलूस के ऐलान के बाद पांच फरवरी को इस इमारत में तोड़फोड़ की गई क्योंकि रहमान की बेटी और अपदस्थ प्रधानमंत्री शेख हसीना ने सरकार के खिलाफ प्रतिरोध का भाषण दिया था। शेख हसीना, पिछले अगस्त में अपने पद से हटने के बाद से भारत में रह रही हैं। एक ऑडियो संबोधन में तोड़फोड़ के बारे में बात करते हुए रोती हुई दिखाई दीं। उन्होंने अपने संबोधन में कहा था कि आप एक एक संरचना को मिटा सकते हैं लेकिन इतिहास को मिटाया नहीं जा सकता।

भारत का भी नाता
भारत, इस इमारत के इतिहास का हिस्सा रहा है। भारत ने तोड़फोड़ निंदा करते हुए कहा था कि यह बांग्लादेश के लोगों के वीर प्रतिरोध का प्रतीक था। विदेश मंत्रालय ने कहा था कि जो लोग स्वतंत्रता संग्राम को महत्व देते हैं जिसने बांग्ला पहचान और गौरव को पोषित किय वे बांग्लादेश की राष्ट्रीय चेतना के लिए निवास के महत्व से अवगत हैं। यह इमारत न केवल बांग्लादेश के इतिहास में महत्वपूर्ण है, बल्कि एक भारतीय सैनिक द्वारा किए गए चुनौतीपूर्ण बचाव अभियान का केंद्र भी है, जो पाकिस्तानी गार्डों की बार-बार चेतावनी के बावजूद अकेले और निहत्थे अंदर गया था।

1971 का प्रकरण

1971 में बांग्लादेश को स्वतंत्रता तब मिली जब पाकिस्तानी सैनिकों ने भारतीय सेना के सामने अपने हथियार डाल दिए। 16 दिसंबर को पाकिस्तान के लेफ्टिनेंट जनरल एएके नियाज़ी ने भारतीय सेना के लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के सामने ढाका में आत्मसमर्पण के दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए। धानमंडी में रहमान की पत्नी और तीन बच्चे - जिनमें हसीना भी शामिल थीं अभी भी बंदी थे क्योंकि पाकिस्तानी सैनिक इस बात से अनजान थे कि उनके सैनिकों ने अपने हथियार डाल दिए हैं और वास्तव में बांग्लादेश अब आजाद हो गया है। उस समय रहमान पाकिस्तान में कैदथे।

जब अगली सुबह भारतीय सैनिकों को इसकी सूचना मिली, तो चार सैनिकों की टुकड़ी बंधकों को छुड़ाने के लिए पहुंची। ऐसा माना जाता है कि पाकिस्तानी सैनिकों को आदेश दिया गया था कि अगर हार का खतरा हो तो वे सभी बंदियों को मार डालें।टुकड़ी का नेतृत्व कर रहे मेजर अशोक तारा ने अपने लोगों को पीछे रहने को कहा और गार्डों के पास जाने का कठिन काम अपने ऊपर ले लिया।

सैनिकों ने भारतीय अधिकारी पर अपनी बंदूकें तानते हुए चेतावनी देते हुए कहा कि एक और कदम और हम तुम्हें गोली मार देंगे ।लेकिन वह शांत रहा और हिंदी और पंजाबी में उनसे बात करने की कोशिश की। उन्हें नहीं पता था कि पाकिस्तानी सेना ने आत्मसमर्पण कर दिया है और ढाका गिर गया है। मैंने उनसे कहा कि अगर ऐसा नहीं होता तो एक निहत्था भारतीय अधिकारी उनके सामने खड़ा नहीं होता।

मेजर तारा के यह विश्वास दिलाने के बाद कि वे सुरक्षित अपने परिवारों के पास वापस लौट आएंगे, सैनिकों ने आखिरकार उन्हें अंदर जाने दिया। बाकी इतिहास है। भारतीय अधिकारी को 2012 में तत्कालीन प्रधानमंत्री हसीना द्वारा बांग्लादेश के मित्र पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

1975 का प्रकरण

धानमंडी घर 1975 में फिर से सुर्खियों में आया। 15 अगस्त की सुबह बांग्लादेशी सेना के जवानों के एक समूह ने घर में प्रवेश किया और उस समय वहां मौजूद सभी लोगों की हत्या कर दी। इसमें रहमान और उनके परिवार के 18 सदस्य शामिल थे। इस नरसंहार ने बांग्लादेश में सनसनी फैला दी और देश राजनीतिक उथल-पुथल के दौर में डूब गया। सेना ने कमान संभाली और जनरल जियाउर रहमान राष्ट्रपति बने।

इस नरसंहार के दौरान हसीना और उनकी बहन शेख रेहाना यूरोप में थीं और इसलिए बच गईं। दिल्ली लौटने पर उन्हें हत्याओं के बारे में पता चला और उनके पति, बच्चों और रेहाना सहित उनके परिवार को भारत ने शरण दी। बाद में उन्होंने दिल्ली में अपने प्रवास को गुप्त निवासी के रूप में वर्णित किया था। 1981 में बांग्लादेश लौटने पर हसीना ने इस मकान को नीलामी से बचाया और इसे बंगबंधु मेमोरियल ट्रस्ट को सौंप दिया जिसने बाद में इस भवन को बंगबंधु शेख मुजीबुर रहमान मेमोरियल संग्रहालय में बदल दिया।

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