दिसानायके की जीत भारत के खतरा? लेकिन चिंता की नहीं जरूरत, ये रही वजह
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दिसानायके की जीत भारत के खतरा? लेकिन चिंता की नहीं जरूरत, ये रही वजह

आर्थिक संकट से जूझ रहे श्रीलंका को नया राष्ट्रपति मिलने वाला है. राष्ट्रपति पद के चुनाव में मार्क्सवादी नेता अनुरा कुमारा दिसानायके ने जीत हासिल की है.


Sri Lanka presidential election: श्रीलंका में सत्ता परिवर्तन हो चुका है और आर्थिक संकट से जूझ रहे देश को नया राष्ट्रपति मिलने वाला है. राष्ट्रपति पद के चुनाव में मार्क्सवादी नेता अनुरा कुमारा दिसानायके ने जीत हासिल की है. ऐसे में कयास लगाए जा हैं कि जैसे मालदीव के राष्ट्रपति मोहम्मद मुइज्जू भारत विरोधी अभियान चलाकर सत्ता पर काबिज हुए थे. क्या चीन समर्थक अनुरा कुमारा भी उसी राह पर चलेंगे. हालांकि, भारत को श्रीलंका में सत्ता परिवर्तन से परेशान होने की जरूरत नहीं है. इसके पीछे कई वजह हैं.

जेवीपी की जीत का भारत के लिए मायने

भारत में कुछ लोगों को डर है कि नेशनल पीपुल्स पावर गठबंधन के शीर्ष पर बैठी दिसानायके की पार्टी जनता विमुक्ति पेरामुना ( जेवीपी या पीपुल्स लिबरेशन फ्रंट ) की जीत का मतलब यह होगा कि श्रीलंका तेजी से बीजिंग की ओर बढ़ेगा, वह भी नई दिल्ली की कीमत पर. हालांकि, ऐसा होना असंभव है. आज का जेवीपी वह जेवीपी नहीं है, जिसने 1971 में हिंसक तरीके से सत्ता हथियाने के लिए उत्तर कोरिया की मदद ली थी और यह उस समय का जेवीपी भी नहीं है, जब भारत विरोधी होना देशभक्ति का प्रतीक माना जाता था.

कायापलट

समय के साथ-साथ व्यक्ति, संस्थाएं, समाज और देश विकसित होते हैं और बेहतर या बदतर के लिए बदलते हैं. श्रीलंका के सबसे प्रभावशाली वामपंथी समूह जेवीपी ने भी मई 1965 में अपने जन्म के बाद से कायापलट का अपना हिस्सा देखा है. एक समय था, जब जेवीपी ने राष्ट्रीयता पर स्टालिन के विचारों के अनुरूप "तमिल आकांक्षाओं" को उचित ठहराया था. दशकों बाद, इसे तमिल विरोधी पार्टी के रूप में देखा जाने लगा. एक समय था, जब जेवीपी ने अन्य वामपंथी समूहों को संशोधनवादी बताया था, जो "बुर्जुआ पार्टियों" को अपनाने के लिए तैयार थे. उसने खुद भी कई साल बाद ऐसा ही किया.

चेंज ऑफ़ हार्ट

एक समय था, जब जेवीपी श्रीलंकाई सेना का हिंसक विरोध करता था. अब यह पूरी तरह से सेना के पक्ष में है और तमिल टाइगर्स के खिलाफ संघर्ष के अंतिम चरण के दौरान युद्ध अपराध करने के आरोपी सैन्य अधिकारियों को दंडित करने के बारे में बात करने की भी किसी को अनुमति नहीं देता है. एक समय था, जब जेवीपी कार्यकर्ताओं को दी जाने वाली पांच प्रमुख वैचारिक शिक्षाओं में से एक थी "भारतीय विस्तारवाद". आज, जेवीपी न केवल आमंत्रण पर नई दिल्ली का दौरा कर चुकी है, बल्कि भारत की सुरक्षा चिंताओं को भी समझती है. एक समय था, जब जेवीपी सभी अच्छे पुराने कम्युनिस्टों की तरह धर्म को प्रतिक्रिया का प्रतीक मानता था. आज जेवीपी भगवा वस्त्रधारी सिंहली बौद्ध भिक्षुओं के साथ बिना किसी रोक-टोक के सह-अस्तित्व में रहता है.

श्रीलंकाई मतदाताओं से प्रतिज्ञा

जेवीपी का मुख्य चुनावी वादा श्रीलंका में व्याप्त धोखाधड़ी और भ्रष्टाचार को ख़त्म करना था. जेवीपी उन सभी लोगों के लिए समान अवसर सुनिश्चित करना चाहता है, जो श्रीलंका के आर्थिक विकास में योगदान देना चाहते हैं तथा ठेकों और परियोजनाओं के आवंटन में रिश्वत लेने की प्रणाली को समाप्त करना चाहता है. जेवीपी के पास अभी संसद में बहुमत नहीं है. लेकिन वह उपरोक्त मुद्दों पर समझौता नहीं करेगी. वह अच्छी तरह जानती है कि इसी अपील ने उसे सत्ता तक पहुंचाया है और वह इसे कमजोर करने के लिए कुछ नहीं करेगी. दीर्घावधि में, यह मानते हुए कि जेवीपी संसदीय और अन्य स्थानीय चुनावों के बाद अपना प्रभुत्व मजबूत करने में सफल हो जाती है, वह श्रीलंका के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक पथ को नया आकार देने का प्रयास करेगी.

डरना नहीं

जब विदेश नीति की बात आती है तो यह स्पष्ट करने के लिए हरसंभव प्रयास किया जाएगा कि यह विशाल भारत या किसी अन्य देश की छाया में न हो. लेकिन यह सुनिश्चित किया जाएगा कि इससे नई दिल्ली की वैध सुरक्षा चिंताओं को ठेस न पहुंचे. इसे समझने के लिए यह उद्धृत करना आवश्यक है कि दिसानायके ने चुनाव प्रचार के दौरान एक भारतीय पत्रकार से क्या कहा था. उन्होंने भू-राजनीतिक वास्तविकताओं की अपनी समझ को दर्शाते हुए कहा कि यह सर्वविदित है कि हमारे क्षेत्र में भारत और चीन के बीच प्रतिस्पर्धा है. उन्होंने कहा कि हमारा दृष्टिकोण क्षेत्रीय सुरक्षा की रक्षा करना होगा और साथ ही आर्थिक अवसरों का लाभ उठाना होगा. हालांकि, हम अपनी संप्रभुता बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध हैं और इस भू-राजनीतिक दौड़ में किसी भी शक्ति के अधीन नहीं होंगे. एक दशक पहले तक भी जेवीपी का कोई नेता इस तरह से बात नहीं करता था.

प्रांतीय परिषद

जेवीपी भारतीय सरकार के प्रस्ताव से सहमत नहीं हो सकता. यह निश्चित रूप से तमिल मुद्दे सहित श्रीलंका के घरेलू मुद्दों में किसी भी तरह की दखलंदाजी को पसंद नहीं करेगा. भारत इस बात पर मुखर है कि श्रीलंका को संविधान में 13वें संशोधन को लागू करना चाहिए, जो 1987 के भारत-श्रीलंका समझौते के परिणामस्वरूप सामने आया था और जो प्रांतीय परिषदों के माध्यम से शक्तियों का हस्तांतरण करने का प्रयास करता है. जेवीपी ने पिछले कई वर्षों से प्रांतीय परिषदों को लेकर कभी गरम तो कभी ठंडा रुख अपनाया है. हालांकि, वे सफलतापूर्वक काम कर रही हैं और यह एक विडंबना है कि वे तमिल क्षेत्रों की तुलना में सिंहली क्षेत्रों में अधिक काम कर रही हैं, जिनके लिए वे बनी थीं. लेकिन यदि जेवीपी अपनी नई समझदारी के अनुसार प्रांतीय परिषदों को अपने पास बरकरार भी रखती है तो भी वह उन्हें पुलिस और भूमि संबंधी अधिकार नहीं देगी, जो तमिल क्षेत्रों में एक प्रमुख मांग है.

अन्य मुख्यधारा दलों के विपरीत, जेवीपी को पूर्व तमिल गुरिल्लाओं (सभी प्रकार के) से हाथ मिलाना आसान नहीं लगेगा, जिन्होंने बाद में संसदीय लोकतंत्र को अपना लिया. हालांकि, जेवीपी स्वयं उस रास्ते पर चल चुकी है. यह भी ध्यान में रखना होगा कि जेवीपी, चाहे उसकी अन्य सीमाएं कुछ भी हों, वैचारिक रूप से भारत की सत्तारूढ़ भाजपा के कुछ मूल मूल्यों के अनुरूप नहीं है. सिद्धांत रूप से जेवीपी किसी भी जातीय या धार्मिक समूह की जानबूझकर आलोचना को स्वीकार नहीं कर सकती. मुसलमानों से नफ़रत करना और उन्हें शैतान बताना भाजपा के एक वर्ग के लिए लगभग जीवन का तरीका बन गया है. जेवीपी के दृष्टिकोण से एक पार्टी और सरकार जो भारत के सबसे बड़े धार्मिक अल्पसंख्यक, मुसलमानों को नीची नजर से देखती है, उसे दूसरों को यह बताने का कोई अधिकार नहीं है कि उन्हें अपने अल्पसंख्यकों के साथ कैसे व्यवहार करना चाहिए.

श्रीलंका-भारत संबंध

दिसानायके को भले ही 50 प्रतिशत चुनावी समर्थन नहीं मिला हो. लेकिन उनका 42 प्रतिशत समर्थन एक बहुत बड़ा उछाल है, जिसके कारण पांच साल पहले उन्हें और जेवीपी को कुल वोटों का सिर्फ 3 प्रतिशत ही मिला था. जेवीपी राजनीतिक उत्थान की राह पर है. इसी समय पर मिली मान्यता के कारण भारत ने पिछले साल के अंत में इस ओर रुख किया, जिसके परिणामस्वरूप इस साल फरवरी में जेवीपी प्रतिनिधिमंडल ने नई दिल्ली, गुजरात और केरल का दौरा किया. निस्संदेह, यह हाल के समय में भारतीय प्रतिष्ठान द्वारा उठाए गए सबसे परिपक्व कदमों में से एक था. क्योंकि उसे पता था कि अतीत को नजरअंदाज करते हुए उसे जेवीपी को बेहतर ढंग से समझने की जरूरत है. जेवीपी को सभी भारतीयों की नहीं तो कुछ चिंताओं के प्रति सहानुभूति जताने का भी अच्छा अवसर मिला. यदि वह यात्रा नहीं हुई होती तो जेवीपी की तीव्र वृद्धि का भारत के लिए एक अलग ही अर्थ होता.

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