
G7 में दरार: मैक्रों के फिलिस्तीन समर्थन के पीछे क्या है वजह?
फ्रांस की दलील है कि जब युद्ध रोकने की कोई कोशिश न हो तो यूरोपीय देशों को अपने प्रभाव का उपयोग कर गतिरोध तोड़ना चाहिए।
संयुक्त राष्ट्र महासभा (UNGA) के आगामी सत्र में फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों द्वारा फिलिस्तीन को स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में मान्यता देने की घोषणा ने पश्चिमी देशों के भीतर कूटनीतिक उथल-पुथल मचा दी है। फ्रांस के इस फैसले के बाद ब्रिटेन और कनाडा ने भी फिलिस्तीन को मान्यता देने की मंशा जाहिर की है, जिससे G7 देशों के बीच गंभीर मतभेद उभर आए हैं। इससे अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और उनके रुख को भी अलग-थलग पड़ने का खतरा बढ़ गया है।
ब्रिटिश प्रधानमंत्री कीयर स्टारमर ने साफ कहा कि यदि इजरायल ने हमास के साथ युद्धविराम नहीं किया और गाजा में युद्ध नहीं रोका तो वे फिलिस्तीन को आधिकारिक रूप से मान्यता देंगे। कनाडा के प्रधानमंत्री मार्क कार्नी ने भी कहा कि उनकी सरकार शुरू से ही "दो-राष्ट्र सिद्धांत" (Two-State Solution) की पक्षधर रही है और आगामी 80वें यूएन महासभा सत्र में फिलिस्तीन को समर्थन दिया जाएगा।
फिलिस्तीन को वैश्विक समर्थन
संयुक्त राष्ट्र के 193 सदस्य देशों में से 147 देश पहले ही स्वतंत्र फिलिस्तीनी राज्य का समर्थन कर चुके हैं। भारत उन शुरुआती गैर-अरब देशों में से एक है, जिसने 1988 में PLO नेता यासिर अराफात की घोषणा का समर्थन किया था। अब तक G7 देशों का इस मुद्दे पर रुख अस्पष्ट रहा है, लेकिन फ्रांस और ब्रिटेन के कदम के बाद अमेरिकी अलगाव और इजरायल के समर्थन में गिरावट की आशंका बढ़ गई है।
G7 देशों में मतभेद और बदलाव
गाज़ा में बच्चों की भूख से मौत और इजरायली हमलों की भयावह तस्वीरों ने पश्चिमी देशों की जनता को झकझोर दिया है। फ्रांस की दलील है कि जब युद्ध रोकने की कोई कोशिश न हो तो यूरोपीय देशों को अपने प्रभाव का उपयोग कर गतिरोध तोड़ना चाहिए। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री स्टारमर ने कहा कि स्थिति असहनीय हो चुकी है। कनाडा ने भी मानवीय संकट पर चिंता जताते हुए दो-राष्ट्र समाधान को दोहराया।
दो-राष्ट्र समाधान पर प्रस्ताव
फ्रांस और सऊदी अरब ने संयुक्त रूप से संयुक्त राष्ट्र में एक प्रस्ताव पेश किया है, जिसमें सभी देशों से गाज़ा युद्ध को समाप्त करने के लिए "दो-राष्ट्र समाधान" का समर्थन मांगा गया है। इजराइल ने इस विचार का विरोध करते हुए इसे अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बताया है। अमेरिका ने भी फिलिस्तीन को मान्यता देने का विरोध किया है। पेरिस में अमेरिकी राजदूत चार्ल्स कुशनर ने इसे हमास को तोहफा और शांति को चोट करार दिया। अगर यूके और फ्रांस जैसे शक्तिशाली देशों का रुख बदलता है तो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में इजरायल को केवल अमेरिका का ही समर्थन मिल सकता है।
इजराइल के समर्थन में गिरावट
इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू द्वारा युद्धविराम की अनदेखी ने कई देशों को यह विश्वास दिलाया है कि वे केवल राजनीतिक लाभ के लिए युद्ध को खींच रहे हैं। अगर नेतन्याहू सत्ता से हटते हैं तो उनके खिलाफ लंबित भ्रष्टाचार मामलों की सुनवाई शुरू हो सकती है, जिससे उनकी जेल जाने की भी आशंका है। गाजा में अब तक 60,000 से अधिक फिलिस्तीनी नागरिकों की मौत और भूख की मार ने वैश्विक जनमत को इजराइल के खिलाफ कर दिया है। हालिया गैलप सर्वेक्षण के मुताबिक, अमेरिका में इजरायल के समर्थन में गिरावट आकर 32% तक पहुंच चुकी है।
फिलिस्तीन को मान्यता
विशेषज्ञों के अनुसार, फिलिस्तीन 1933 के मोंटेवीडियो सम्मेलन में स्थापित स्वतंत्र राष्ट्र की सभी प्रमुख शर्तों को पूरा करता है। एक स्वतंत्र फिलिस्तीनी राज्य बनने से उसे स्वतंत्र विदेश नीति अपनाने, अन्य देशों से द्विपक्षीय समझौते करने और अपनी सीमाओं की रक्षा करने का अधिकार मिलेगा। अगर इजरायल द्वारा फिलिस्तीन की सीमा का उल्लंघन होता है तो वह अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन माना जाएगा और उस पर प्रतिबंध व बहिष्कार भी लग सकता है।
भारत का संतुलन
भारत पारंपरिक रूप से दो-राष्ट्र समाधान का समर्थन करता रहा है और उसने वेस्ट बैंक, गाज़ा पट्टी और पूर्वी यरूशलेम को फिलिस्तीन की राजधानी के रूप में मान्यता दी थी। हालांकि, 1992 में इज़रायल से पूर्ण राजनयिक संबंध स्थापित करने के बाद भारत को एक संतुलन नीति अपनानी पड़ी। एक पूर्व भारतीय राजनयिक ने कहा कि हमने लंबे समय तक इजरायल और फिलिस्तीन दोनों से संबंध बनाए रखे, लेकिन बाद में फिलिस्तीन पर हमारा रुख नरम पड़ने लगा। 2017 के बाद भारत ने अपने बयानों से पूर्वी यरूशलेम को फिलिस्तीन की राजधानी बताना भी बंद कर दिया।
प्रतीकात्मक समर्थन या ठोस कार्रवाई?
हाल ही के गाज़ा संकट ने भारत को भी अपनी नीति पर पुनर्विचार के लिए प्रेरित किया है। भारत ने अब युद्धविराम और शांति वार्ता की अपील की है। हालांकि, आलोचकों का मानना है कि यह केवल प्रतीकात्मक बयान है। अगर फ्रांस और ब्रिटेन वाकई गंभीर होते तो वे पहले इजरायल पर हथियार और व्यापार प्रतिबंध लगाते। केवल मान्यता देने की बात करने से फिलिस्तीन को कोई ठोस मदद नहीं मिलेगी — यह एक खोखला वादा बनकर रह जाएगा।