
B-2 बमवर्षक हमले और बिखरा भरोसा, अमेरिका-ईरान तनाव की पूरी कहानी
ईरान, अमेरिका और इजराइल के संबंधों की यह यात्रा, जो कभी साझा वैज्ञानिक प्रगति से शुरू हुई थी, अब परमाणु संघर्ष की भयावहता तक आ पहुंची है। वर्तमान हमले केवल एक रणनीतिक कदम नहीं, बल्कि तीनों देशों की भरोसे की टूटन और लंबे समय से पल रहे अविश्वास का नतीजा हैं।
ईरान के परमाणु ठिकानों पर अमेरिका द्वारा किए गए ताज़ा हवाई हमलों ने पहले से ही तनावग्रस्त अमेरिका-ईरान-इजराइल संबंधों को और भड़का दिया है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के आदेश पर B-2 बॉम्बर् ने ईरान के नतांज, इस्फहान और फोर्दो जैसे प्रमुख परमाणु केंद्रों को निशाना बनाया, जिससे क्षेत्रीय संघर्ष के व्यापक रूप लेने की आशंका फिर से गहराने लगी है। यह घटनाक्रम एक ऐसे रिश्ते में नया मोड़ है, जो कभी सहयोग से शुरू हुआ था और अब एक पूर्ण युद्ध की कगार पर आ चुका है।
सहयोग से संघर्ष तक
1957 में अमेरिका के राष्ट्रपति ड्वाइट आइज़नहावर की 'एटम्स फॉर पीस' योजना के तहत वाशिंगटन ने ईरान को परमाणु कार्यक्रम की शुरुआत में मदद दी थी। अमेरिका ने न केवल एक न्यूक्लियर रिएक्टर दिया, बल्कि यूरेनियम भी प्रदान किया। लेकिन यह दोस्ती ज्यादा समय तक नहीं टिक पाई। इस रिश्ते की जड़ें और गहराई से समझने के लिए 1953 का तख्तापलट अहम है, जिसमें अमेरिका और ब्रिटेन ने मिलकर तत्कालीन लोकतांत्रिक प्रधानमंत्री मोहम्मद मोसद्देक को सत्ता से हटा दिया। मोसद्देक ने ईरान की तेल कंपनियों का राष्ट्रीयकरण किया था, जिससे ब्रिटिश पेट्रोलियम (BP) के हितों को नुकसान हुआ। इसके बाद अमेरिका ने शाह मोहम्मद रज़ा पहलवी को सत्ता में बैठाया, जिससे अगले 26 वर्षों तक ईरान पर अमेरिकी प्रभाव बना रहा।
क्रांति और रिश्तों का टूटना
1979 की इस्लामी क्रांति ने ईरान-अमेरिका संबंधों में निर्णायक मोड़ लाया। ईरान में अमेरिकी दूतावास पर हुए बंधक संकट के बाद दोनों देशों के बीच कूटनीतिक संबंध टूट गए। इस दौरान इज़राइल, जो अमेरिका का प्रमुख सहयोगी रहा है, का भी ईरान से संपर्क पूरी तरह खत्म हो गया। हालांकि 1980 के दशक में रीगन प्रशासन ने "आर्म्स फॉर होस्टेज" जैसे गुप्त समझौतों से संपर्क बनाए रखने की कोशिश की थी।
परमाणु कार्यक्रम और बढ़ती शंका
1990 के दशक में जब दुनिया का ध्यान इराक और अफगानिस्तान की ओर था, तब ईरान ने चुपचाप अपना परमाणु कार्यक्रम आगे बढ़ाया। 2005 में कट्टरपंथी राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद के सत्ता में आने के बाद ईरान ने इज़राइल के अस्तित्व को नकारते हुए टकराव की नीति अपनाई। उनकी बयानबाज़ी ने अमेरिका और इज़राइल को ईरान के परमाणु इरादों पर खुलकर विरोध करने का आधार दिया। दक्षिण एशिया मामलों के विशेषज्ञ केएस दक्षिणा मूर्ति के अनुसार, ईरान, अमेरिका और इज़राइल के बीच हालिया 12 दिवसीय संघर्ष दरअसल इस दीर्घकालिक टकराव का पहला हिंसक परिणाम है।
डिप्लोमेसी और धोखा
2015 में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने ईरान से परमाणु समझौता किया, जिससे उम्मीद जगी थी कि तनाव कम होगा। लेकिन 2018 में ट्रंप प्रशासन ने इस समझौते से एकतरफा वापसी कर ली, जिससे टकराव फिर से तेज हो गया।
2014-17 के बीच ईरान ने आईएसआईएस के खिलाफ अमेरिका के साथ सहयोग किया, पर यह मेल लंबे समय तक नहीं चल सका। 2020 में जनरल कासिम सुलेमानी की अमेरिकी ड्रोन हमले में हत्या और परमाणु वैज्ञानिक मोसेन फखरीजादेह की इज़राइल द्वारा हत्या ने रिश्तों को और जहरीला बना दिया।
अब क्या होगा आगे?
विशेषज्ञ केएस दक्षिणा मूर्ति कहते हैं कि हाल ही में खत्म हुआ 12 दिन का संघर्ष तीनों देशों के बीच हिंसा के एक और चक्र का अंत है, लेकिन यह अस्थायी शांति भी हो सकती है या फिर नए टकराव की शुरुआत। उनके अनुसार, इतिहास की जटिल परतों और वर्तमान की राजनीतिक स्थिति को देखते हुए कोई भी विकल्प खुला है — अस्थायी शांति, कूटनीति या खुला युद्ध।