अमेरिका के टैरिफ का भारत कैसे देगा जवाब? रिचर्ड कोज़ुल-राइट से खास बातचीत
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अमेरिका के टैरिफ का भारत कैसे देगा जवाब? रिचर्ड कोज़ुल-राइट से खास बातचीत

कोज़ुल-राइट का मानना है कि मौजूदा संकट एक अवसर भी हो सकता है। 1970 के दशक की तरह आज भी विकासशील देशों को एकजुट होकर नया आर्थिक ढांचा खड़ा करने की जरूरत है।


जैसे-जैसे अमेरिका द्वारा लगाए गए नए टैरिफ वैश्विक व्यापार में तनाव बढ़ा रहे हैं, विकासशील देशों के लिए हालात और भी चुनौतीपूर्ण हो गए हैं। भारत जहां संभावित रूप से 50 प्रतिशत तक के टैरिफ का सामना कर सकता है। वहीं, वैश्विक आर्थिक ढांचे में उभरती संरक्षणवादी लहर चिंता का कारण बनी हुई है। इस ज्वलंत मुद्दे पर The Federal के डी. रवि कंठ ने संयुक्त राष्ट्र के पूर्व अधिकारी और वर्तमान में लंदन विश्वविद्यालय और बोस्टन यूनिवर्सिटी में पढ़ा रहे रिचर्ड कोज़ुल-राइट से विस्तार से बात की।

बिगड़ैल ताकत का व्यवहार

कोज़ुल-राइट का मानना है कि वैश्विक व्यापार व्यवस्था पूरी तरह उलट चुकी है। अमेरिका, जो अब तक वैश्विक व्यापार व्यवस्था का मुखिया रहा है, अब एक अस्थिर और अनियंत्रित शक्ति की तरह काम कर रहा है। यह ऐसा दौर है, जहां निर्णय तार्किक आर्थिक आधार पर नहीं, बल्कि राजनीतिक और व्यक्तिगत कारणों से लिए जा रहे हैं। उनका कहना है कि टैरिफ से नुकसान उतना नहीं जितना डर फैलाया गया है, बल्कि असली समस्या अमेरिका की नीतिगत अनिश्चितता है।


ढांचा दोषपूर्ण

ट्रंप प्रशासन का यह दावा कि अमेरिका को बाकी देशों ने "धोखा दिया" है, कोज़ुल-राइट खारिज करते हैं। उनके अनुसार, पिछले 40 वर्षों में विकासशील देशों ने विश्व बैंक, IMF और WTO के दबाव में टैरिफ में भारी कटौती की है। आज वे पहले से कहीं अधिक खुले हैं। अमेरिकन कंपनियां — खासकर बहुराष्ट्रीय निगम — इस व्यवस्था से सबसे अधिक लाभ में रही हैं। आज जब Google और Amazon जैसी कंपनियां आगे हैं तो उनके फायदे आम जनता तक नहीं पहुंचते। यह धोखा नहीं, बल्कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था की संरचनात्मक समस्या है।

भारत की रणनीतिक भूल

जब पूछा गया कि क्या भारत का ट्रंप प्रशासन के साथ कृषि क्षेत्र को लेकर समझौता करने का प्रयास शुरू से ही गलत था, कोज़ुल-राइट ने कहा, “हां। भारत ने अमेरिकी दोहरे मानकों को नजरअंदाज किया, जैसे कि रूस से आयात को लेकर अमेरिका की लचीलापन और भारत पर कठोरता। भारत को पहले ही इस पाखंड को समझ लेना चाहिए था।

कोज़ुल-राइट स्पष्ट कहते हैं, “भारत ने अपने कृषि क्षेत्र की रक्षा कर बिल्कुल सही किया। अमेरिका और यूरोप अपने किसानों को भारी सब्सिडी देते हैं, जबकि दूसरों को मुक्त व्यापार की नसीहत देते हैं। यह पाखंड दशकों से WTO में विवाद का कारण रहा है। उनका मानना है कि ट्रंप ने नियम आधारित व्यवस्था का दिखावा खत्म कर दिया है, असल में अमेरिका हमेशा अपने हितों के अनुसार नियमों को तोड़ता रहा है।

ग्लोबल साउथ के लिए नया अवसर

कोज़ुल-राइट का मानना है कि मौजूदा संकट एक अवसर भी हो सकता है। 1970 के दशक की तरह आज भी विकासशील देशों को एकजुट होकर नया आर्थिक ढांचा खड़ा करने की जरूरत है। उन्हें दो-स्तरीय रणनीति अपनानी चाहिए: एक, साउथ सहयोग को मजबूती देना, और दो, बाहरी ताकतों पर निर्भरता कम कर घरेलू संसाधनों और संस्थानों पर भरोसा बढ़ाना।

UNCTAD कमज़ोर

वे बताते हैं कि UNCTAD (संयुक्त राष्ट्र व्यापार और विकास सम्मेलन) की भूमिका धीरे-धीरे खत्म हो रही है और G7 समूह ने उसे पहले ही लगभग छोड़ दिया है। अब BRICS जैसे समूहों को आगे आना होगा। उन्हें एक स्वतंत्र सचिवालय बनाना चाहिए, जो केवल समन्वय न करे, बल्कि रणनीतिक और बौद्धिक नेतृत्व भी दे सके। साथ ही यह सचिवालय किसी एक ताकतवर सदस्य के अधीन न हो।

भारत को BRICS की अध्यक्षता

भारत इस वर्ष BRICS की अध्यक्षता कर रहा है। कोज़ुल-राइट का सुझाव है कि भारत को अपने ऐतिहासिक नेतृत्व की परंपरा को फिर से जीवित करना चाहिए — जैसा कि 1960-70 के दशकों में देखा गया था। भारत को दक्षिण-दक्षिण सहयोग को संस्थागत रूप देना चाहिए और घरेलू लचीलापन बढ़ाने वाली आर्थिक नीतियों को प्राथमिकता देनी चाहिए।

भुगतान प्रणाली पर भारत की चूक?

उन्होंने खुलासा किया कि रूस द्वारा प्रस्तावित साझा भुगतान प्रणाली को भारत ने समर्थन नहीं दिया। यह डॉलर को हटाने का नहीं, बल्कि दक्ष भुगतान प्रणाली बनाने का प्रयास था जो विकासशील देशों को लाभ पहुंचा सकता था।

आखिर में कोज़ुल-राइट कहते हैं कि वैश्वीकरण की वापसी या उसका अंत नहीं हो रहा, बल्कि हमें उस व्यवस्था से बाहर आना होगा जिसे 1980 के बाद बड़े कॉर्पोरेट हितों के लिए बनाया गया था। हमें अब फिर से औद्योगिक नीति, पूंजी नियंत्रण और कराधान सुधारों पर गंभीर चर्चा करनी होगी — जैसा UNCTAD पहले से करता रहा है। जब तक हम बड़ी पूंजी के प्रभाव को नियंत्रित नहीं करेंगे, प्रगतिशील एजेंडा संभव नहीं होगा।

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