तीन दशक तक यारी फिर इजरायल- ईरान बने दुश्मन, क्या थी वजह?
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तीन दशक तक यारी फिर इजरायल- ईरान बने दुश्मन, क्या थी वजह?

इजरायल और ईरान के बीच तनातनी नहीं थी। 30 साल तक ये दोनों मुल्क एक दूसरे के दोस्त रहे। लेकिन आज हालात ये है कि दोनों एक दूसरे को फूटी आंख नहीं सुहाते।


Israel Iran Relation: गहरी दोस्ती जब दुश्मनी में बदलती है तो नतीजा बेहद खौफनाक होता है। दरअसल यह बात सामान्य से लेकर खास लोगों पर लागू होती है। यही नहीं देश भी इससे अछूते नहीं है। मिडिल ईस्ट में तनाव चरम पर है। एक तरफ इजरायल तो दूसरी तरफ हमास, हिजबु्ल्ला,यमन के हुती और ईरान। पिछले साल सात अक्तूबर को हमास जब इजरायल में घुसा तो आगे क्या होने वाला है उसके संकेत मिल चुके थे। मौजूदा समय में इजरायल और ईरान के बीच तनाव हर दिन बढ़ता जा रहा है।

यहां जो हम आपको बताएंगे शायद उस पर यकीन करना मुश्किल होगा। 30 साल तक ईरान और इजरायल एक दूसरे के अजीत दोस्त रहे। अब सवाल यह है कि आखिर बात क्या हुई कि दोनों मुल्क एक दूसरे के दुश्मन बन बैठे। ईरान के शीर्ष पदों पर बैठे लोगों को इजरायल निशाना बनाने से नहीं चूक रहा तो दूसरी तरफ ईरान भी मिसाइल अटैक करने से बाज नहीं आ रहा है। लेकिन बात हम करेंगे की दो दोस्त दुश्मन कैसे बने।

ईरान ने जब 1 अक्तूबर की रात इजरायल पर हमला किया तो वो बहुत अप्रत्याशित नहीं था। इजरायल का दावा है कि मिसाइल हमले को नाकाम कर दिया गया। लेकिन मोसाद के हेडक्वॉर्टर को ईरान तबाह होने का दावा कर रहा है। उसका यह भी कहना है कि मिसाइल हमले के जरिए इस्माइल हानिया और हिजुबल्ला मुखिया हसन नसरल्ला की मौत का बदला भी ले चुका है। ये अलग बात है कि इजरायली पीएम बेंजामिन नेत्नयाहू ने कहा कि ईरान की तरफ बड़ी गलती हुई है और हम समय, जगह और मौके के हिसाब से बदला लेंगे। यानी आने वाले समय में दुनिया और घातक हमले का गवाह बनने जा रही है।

अमेरिका की भी अहम भूमिका
ईरान-इजरायल संबंधों में खटास की बड़ी वजह अमेरिका है। ऐसा कहा जाता है कि इराक के तेल कुओं के बाद ईरान के तेल भंडार पर अमेरिका की नजर थी। अमेरिका ने दबाव बनाने की कोशिश की लेकिन ईरान झुका नहीं। ऐसे में ईरान, अमेरिका को बड़ा शैतान मानने लगा। अब इजरायल और अमेरिका का रिश्ता दुनिया से अनजान नहीं है। लिहाजा ईरान, इजरायल को छोटा शैतान मानता है। उसे ऐसा लगता है कि मिडिल ईस्ट में इजरायल का वजूद नहीं होना चाहिए। लेकिन यहां सवाल यह भी है कि ईरान और इजरायल के बीच जब दोस्ती थी उस वक्त भी तो वो अमेरिका के साथ था। इजरायल, हिजबुल्ला, हमास, हुती को एक्सिस ऑफ रजिस्टेंस मानता है और उसका नेता और कोई नहीं बल्कि ईरान है। ईरान इन आतंकी सगंठनों को खुलेआम मदद करता है और बदले में यह लगातार उसके अस्तित्व के लिए खतरा बने हुए हैं। यह तो दुश्मनी की बात रही तो दोस्ती कब थी।

1979 से पहले इजरायल-ईरान में थी दोस्ती
ईरान-इजरायल दोस्ती को समझने के लिए साल 1979 से पहले चलना होगा। 1979 में ईरान में इस्लामी क्रांति से पहले पहलवी वंश का शासन था और यह वंश अमेरिका का समर्थक भी साथ। 1948 में जब इजरायल का उदय दुनिया के नक्शे पर हुआ तो तुर्की के बाद ईरान दूसरा ऐसा देश था जिसने उसे मान्यता दी। इजरायल को भी उस वक्त ऐसे दोस्त की जरूरत थी जो मध्य पूर्व में उसके खिलाफ ना बोल सके और उस मकसद को ईरान पूरा कर रहा था। लेकिन 1979 में जब अयातुल्लाह खुमैनी की अगुवाई में इस्लामी क्रांति हुई उसके बाद से दोनों देशों के बीच नफरत और शंका की दीवार खड़ी हो गई।

अयातुल्लाह खुमैनी ने इजरायल से संबंध तोड़े। इजरायली नागरिकों की पासपोर्ट को मानने से इनकार कर दिया। तेहरान में इजरायली दूतावास को जबरन फिलिस्तीनी लिबरेशन ऑर्गेनाइजेशन को दे दिया। यह सबको पता है कि पीएलओ, इजरायल के खिलाफ लड़ाई लड रहा था। ईरान ने पीएलओ के साथ मिलकर लेबनान में लड़ाई लड़ी। बता दें कि लेबनान में कैथोलिक ईसाइयों की बहुलता थी। लेकिन धीरे धीरे वो अल्पसंख्यक होते गए। यानी कि 1979 में इस्लामी क्रांति के बाद दोनों देशों के बीच रिश्ते खराब होने शुरू हो गए। 1979 में अयातुल्लाह खुमैनी भले ही इजरायल के साथ रिश्ते खराब करने की दिशा में आगे बढ़ चुके थे। लेकिन जब इराक ने ईरान पर 22 सितंबर 1980 को हमला किया तो अगले आठ साल तक इजरायल मदद करता रहा। इराक के परमाणु रिएक्टरों को तबाह कर दिया था ताकि ईरान को कम नुकसान हो।

क्या कैंप डेविड जैसा समझौता हो सकेगा

अब सवाल यह है कि क्या इजरायल और ईरान के बीच दोस्ती मुमकिन है। क्या अमेरिका कैंप डेविड जैसा समझौता करा पाएगा। दरअसल 17 सितंबर 1978 को इजरायल और मिस्र के बीच यह समझौता हुआ था जिसमें अमेरिका की भूमिका अहम थी। राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने मध्यस्थता की थी। कैंप डेविड समझौते पर मिस्र के तत्कालीन राष्ट्रपति अनवर सादात और इजरायल के प्रधानमंत्री मेनाकेम बेगिन ने मुहर लगाई। इसकी वजह से दोनों देशों में शांति कायम हुई। सादात और बेगिन को संयुक्त रूप से 1978 का नोबेल शांति पुरस्कार मिला था। लेकिन इजरायल और ईरान के बीच अभी इस तरह का समझौता होना आसान नहीं है। दोनों देशों के बीच के मुद्दे जटिल हैं। यही नहीं ईरान का परमाणु कार्यक्रम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चिंता की बड़ी वजह है।

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