
ट्रूडो क्यों गए,कार्नी कैसे आए : कनाडा में कमान बदलने की इनसाइड स्टोरी
कनाडा में सत्ताधारी लिबरल पार्टी ने पीएम जस्टिन ट्रूडो की जगह नया नेता चुन लिया है। अब मार्क कार्नी कनाडा के नए पीएम होंगे। इस नेतृत्व परिवर्तन की पूरी कहानी।
कनाडा में लीडरशिप बदल गई है। बहुचर्चित प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो की जगह कनाडा को नया लीडर मिल गया है।इस पूरी प्रक्रिया में हालांकि करीब दो महीने लग गए, लेकिन कनाडा की कमान अब नए नेता के हाथ में आने वाली है, जिनका नाम है मार्क कार्नी।
लेकिन आखिर ये सब हुआ कैसे? इसके नेतृत्व परिवर्तन के मायने क्या हैं? ऐसे समय में जबकि कनाडा अमेरिका के साथ टैरिफ वॉर में उलझा हुआ है, कनाडा में प्रधानमंत्री बदलने की पूरी कहानी क्या है? ये आपको समझाते हैं।
कनाडा में हुआ क्या?
पहले आपको ये जानना जरूरी है कि कनाडा में असल में हुआ क्या?
कनाडा में रविवार रात को सत्ताधारी लिबरल पार्टी का सम्मेलन हुआ। जिसमें लिबरल पार्टी ने 59 साल के मार्क कार्नी को अपना नया नेता चुन लिया। यानी लिबरल पार्टी का नया मुखिया कार्नी हो गए हैं। वे अब बतौर पीएम जस्टिन ट्रूडो की जगह लेंगे और कनाडा के 24वें प्रधानमंत्री बनेंगे।
मार्क कार्नी को 85.9 फीसदी वोट मिले। मतलब उन्हें अपनी पार्टी के भीतर लैंडस्लाइड विक्ट्री मिली है। यानी उनके पास एक क्लियर मैंडेट है।
कौन हैं मार्क कार्नी?
अब आपमें ये जानने की जिज्ञासा होगी कि आखिर ये मार्क कार्नी हैं कौन, जिन्हें कनाडा का नया प्रधानमंत्री चुना गया है। तो आपको बता दें कि मार्क कार्नी मूल रूप से एक बैंकर और अर्थशास्त्री हैं। वे महज 42 साल की उम्र में साल 2008 में बैंक ऑफ कनाडा यानी जैसे भारत में रिजर्व बैंक है, वो उसके गवर्नर भी रह चुके हैं।
कनाडा को मंदी से निकालने में उनकी बड़ी भूमिका मानी जाती है। तब उन्होंने जो कदम उठाए थे, उससे प्रभावित होकर ही उन्हें ब्रिटेन ने अपने यहां बुला लिया था। मार्क कार्नी को साल 2013 में बैंक ऑफ इंग्लैंड का गवर्नर बनाया गया था।
कार्नी की नियुक्ति इतनी अहम क्यों है?
सवाल तो ये भी उठता है कि आखिर कार्नी ही क्यों? मार्क कार्नी ने तो कभी भी कोई निर्वाचित पद नहीं संभाला है और वे संसद के सदस्य भी नहीं हैं। उनकी कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि भी नहीं रही है।
तो फिर आखिर वो क्या वजह रही कि कार्नी को 85.9 फीसदी यानी करीब 86 परसेंट वोटों के प्रचंड बहुमत से इस पद के लिए चुना गया? जबकि प्रधानमंत्री पद की दौड़ में टोरंटो की सांसद और पूर्व उपप्रधानमंत्री क्रिस्टिया फ्रीलैंड को नाम सबसे टॉप पर चल रहा था।
लेकिन उन्हें सिर्फ 8 परसेंट वोट मिले, संसद के सदन की पूर्व नेता करीना गोल्ड भी दावेदार थीं, उन्हें 3.2 वोट पड़े और पूर्व सांसद फ्रैंक बेलिस को पड़े सिर्फ 3 फीसदी वोट। इस तरह कार्नी ने इन सबको पछाड़कर एकतरफा और बड़ी जीत दर्ज की।
आपको ये ध्यान दिलाना जरूरी है कि कार्नी की नियुक्ति ऐसे समय हो रही है, जब कनाडा, अमेरिका के साथ टैरिफ की लड़ाई में उलझा हुआ है और उसकी माली हालत भी ठीक नहीं है।
सबसे ज्यादा गौर करने वाली बात ये है कि कार्नी को ट्रंप का विरोधी माना जाता है। उन्होंने ट्रंप के कनाडा पर टैरिफ लगाने के फैसले की कड़ी आलोचना की थी। इसका मतलब ये हुआ कि कनाडा के लोग ऐसी लीडरशिप देखना चाहते हैं जोकि अमेरिका को और खासकर ट्रंप को माकूल जवाब दे सके। ऐसा कहा जा सकता है कि इस पूरे प्रकरण ने कनाडा के राष्ट्रवाद को हवा दी है।
कनाडा के अख़बार 'द ग्लोब एंड मेल' के मुताबिक अपनी प्रचंड जीत के बाद कॉर्नी ने कहा-"डोनाल्ड ट्रम्प को लगता है कि वह अपनी विभाजनकारी योजना से हमें कमज़ोर कर सकते हैं। कंजर्वेटिव पार्टी के नेता पियरे पोलीवरे की योजना हमें विभाजित कर देगी और हम पर विजय प्राप्त करने के लिए तैयार हो जाएंगे।"
कनाडा के एक अन्य अख़बार 'टोरंटो सन' के मुताबिक कार्नी ने ये भी कहा कि- अमेरिकी, हमारे संसाधन, हमारा पानी, हमारी ज़मीन, हमारा देश चाहते हैं अगर वे सफल हो गए, तो वे हमारी जीवन शैली को नष्ट कर देंगे।"
ट्रूडो को क्यों हटना पड़ा?
ये तो हो गई कार्नी के कनाडा का नया प्रधानमंत्री बनने की इनसाइड स्टोरी। लेकिन आप ये भी जरूर जानना चाहेंगे कि आखिर ट्रूडो को अपने पद से हटना क्यों पड़ा? आपको पता ही होगा कि ट्रूडो ने कनाडा पर लगभग 10 साल तक राज किया लेकिन उनकी पॉपुलैरिटी में भारी गिरावट आने की वजह से सत्ताधारी लिबरल पार्टी की चिंता बढ़ गई थी। ट्रूडो पिछले कुछ समय से न केवल विदेशी मोर्चे पर जूझ रहे थे बल्कि घरेलू राजनीति में भी उनके लिए कई मुश्किलें खड़ी होने लगी थीं.
भारत के साथ उनके तल्ख रिश्तों की बात तो जगजाहिर है ही, अमेरिका में डोनॉल्ड ट्रंप के सत्ता में आने के बाद कनाडा की हालत दयनीय होने लगी थी। वो इसलिए क्योंकि ट्रंप ने कनाडा पर 25 प्रतिशत टैरिफ यानी आयात शुल्क लगाने की चेतावनी दी हुई है. मतलब कनाडा से अमेरिका आने वाले सामान पर 25 फीसदी टैक्स वसूलने की बात कही थी।
यानी अगर कनाडा 100 रुपये का कोई सामान अमेरिका भेज रहा है, तो उस पर अमेरिका की सरकार 25 रुपये टैक्स ले लेगी। इस टैरिफ का असर क्या होगा, इसे कुछ ऐसे समझिए कि कनाडा जितना दुनिया को निर्यात करता है, उस कुल निर्यात का अकेले 75 फीसदी निर्यात तो अमेरिका में होता है. ऐसे में अगर अमेरिका कनाडा पर 25 फ़ीसदी टैरिफ़ लगा देगा तो कनाडा की हालत खराब हो जाएगी।
ट्रंप के टैरिफ लगाने के एलान से कनाडा की राजनीति में खलबली मच गई थी। कनाडा की उप प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री क्रिस्टिया फ़्रीलैंड ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था। उन्होंने अपना पद ये कहते हुए छोड़ा कि ट्रंप के संभावित टैरिफ़ लगाए जाने के मुद्दे पर मतभेद थे. फ्रीलैंड के इस्तीफ़े को ट्रूडो के लिए एक बड़ा झटका माना गया.
आग में घी का काम
ट्रंप ने जब कनाडा पर टैरिफ लगाने की धमकी दी थी तो जस्टिन ट्रूडो उनसे मिलने अमेरिका गए भी थे लेकिन ट्रंप से उन्हें कोई आश्वासन नहीं मिला था. जिससे कनाडा में ये संदेश गया कि ट्रूडो एक कमजोर लीडर हैं।
ट्रंप ने बतौर राष्ट्रपति अपने पिछले कार्यकाल के दौरान भी कनाडा से आयात होने वाले स्टील पर 25 फीसदी और एल्युमीनियम पर 10 प्रतिशत टैरिफ लगाया था। लेकिन इस टैरिफ वॉर में आग में घी का काम किया ट्रंप के उस बयान ने जिसमें उन्होंने कनाडा को अमेरिका का 51वां राज्य बताना शुरू कर दिया था. इससे कनाडा के लोगों को अपनी आजादी और अपनी संप्रभुता खतरे में नजर आने लगी। ये सारी बातें ट्रूडो के खिलाफ जाती रही।
कनाडा में इसी साल के अक्टूबर महीने से पहले चुनाव होने हैं औऱ ऐसे सर्वे आ रहे थे कि ट्रूडो के रहते लिबरल पार्टी चुनाव हार सकती है। कहा जा रहा है कि जस्टिन ट्रूडो पर इसी कारण लिबरल पार्टी के भीतर से ही इस्तीफ़े का दबाव था। इसीलिए जस्टिन ट्रूडो ने इसी साल जनवरी महीने में अपने पद से इस्तीफा देने की घोषणा की और नए नेता के चुनाव तक वो प्रधानमंत्री बने रहे।
कार्नी के सामने चुनौती क्या है?
जस्टिन ट्रूडो विदेश और घरेलू मोर्चे पर कनाडा को ऐसी अवस्था में छोड़कर गए हैं, जिससे दुरुस्त करने में नए प्रधानमंत्री मार्क कार्नी को काफी समय लग सकता है, जबकि कनाडा में यह चुनावी साल है।
नए प्रधानमंत्री के सामने अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की टैरिफ वाली चुनौती सबसे बड़ी चुनौती है..ट्रंप ने कनाडा पर जो 25 फीसदी आयात शुक्ल लगाने की घोषणा की है, उससे बचने के लिए कार्नी क्या रास्ता निकालेंगे? क्या वो टकराव मोल लेंगे या कोई डील करेंगे, ये देखना दिलचस्प होगा।
यही नहीं, इसी साल के आखिर में कनाडा में आम चुनाव भी होने हैं, इसमें अपनी लिबरल पार्टी को मार्क कार्नी फिर से सत्ता में लौटा पाते हैं या नहीं, ये उनके सामने एक बड़ा चैलेंज होगा।
जस्टिन ट्रूडो के कार्यकाल में भारत और कनाडा के रिश्ते बेहद खराब हो गए थे। मार्क कार्नी के आने से उसमें कैसे सुधार होगा, इस पर भी नजर रहेगी। भारत के साथ कनाडा के रिश्तों की बात इसलिए भी अहम है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि कनाडा में भारतीय मूल के लोगों का एक बड़ा वोटिंग ब्लॉक है।
कनाडा में भारतीय मूल के लोगों की आबादी करीब 4 प्रतिशत है, जिनमें आधी से ज्यादा आबादी तो सिखों की है। कनाडा में विपक्ष के नेता जगमीत सिंह की न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी के समर्थन से जस्टिन ट्रूडो ने सरकार भी चलाई।
जानकारों का मानना है कि अगर भारत के साथ रिश्ते और भी ख़राब होते हैं तो इससे कनाडा की ख़राब दौर से गुज़र रही अर्थव्यवस्था पर भी असर पड़ सकता है। कोई अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री ऐसा जोखिम मोल नहीं लेना चाहेगा।