शेख मुजीबुर रहमान: महात्मा नहीं बल्कि बंधु हैं
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शेख मुजीबुर रहमान: महात्मा नहीं बल्कि बंधु हैं

बंगाली मुसलमानों की पहचान की तलाश का इतिहास बांग्लादेश का इतिहास है। यह शेख मुजीबुर रहमान के जीवन की भी कहानी है। चार भागों वाली श्रृंखला की पहली कड़ी


Five Decades Of Sheikh Mujibur Rahman's Assasination : आज से ठीक पचास साल पहले, 15 अगस्त 1975 को, नवगठित बांग्लादेश की राजनीति को गहरा आघात पहुँचा था। तख्तापलट की एक साजिश ने स्वतंत्रता की लड़ाई का चेहरा माने जाने वाले, देश के निर्माता और "बंगबंधु" (बंगालियों के मित्र) शेख मुजीबुर रहमान को उनके पूरे परिवार समेत मौत के घाट उतार दिया।

इस घटना ने न केवल एक नेता की हत्या की, बल्कि उस वादे की भी हत्या कर दी, जो बांग्लादेश के जन्म के समय किया गया था — आर्थिक मुक्ति और कट्टरता की हार का।

1971: मुक्ति संग्राम और बंगबंधु का सपना

1971 में बांग्लादेश का जन्म 20वीं सदी की सबसे अद्वितीय और हृदयस्पर्शी घटनाओं में गिना जाता है।

सात करोड़ की आबादी वाले इस छोटे से राष्ट्र ने पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान के नरसंहार के खिलाफ 10 महीने लंबा संघर्ष लड़ा। इस दौरान लगभग 30 लाख लोग मारे गए, लाखों महिलाएँ हिंसा का शिकार हुईं और करोड़ों नागरिक विस्थापित हुए।

संयुक्त राज्य अमेरिका के नैतिक और सैन्य समर्थन के बावजूद पाकिस्तान ने इस क्रूरता को "राष्ट्रीय अखंडता" के नाम पर अंजाम दिया, लेकिन बांग्लादेश के लोगों ने अपार साहस और बलिदान से अपनी किस्मत खुद लिखी।

कैद में बंगबंधु और रेडियो संदेश

युद्ध के दौरान शेख मुजीब पश्चिम पाकिस्तान की जेल में कैद रहे। 25-26 मार्च 1971 की रात को उन्हें ढाका स्थित घर से गिरफ्तार किया गया, लेकिन उससे पहले उन्होंने एक गुप्त रेडियो संदेश में बांग्लादेश को स्वतंत्र घोषित कर दिया था।

10 जनवरी 1972 को वे लंदन और दिल्ली होते हुए स्वतंत्र बांग्लादेश लौटे, जहाँ उनका स्वागत एक नायक की तरह हुआ।

वादे से मोहभंग तक

स्वतंत्रता के साथ जुड़ा वादा था — धर्मनिरपेक्ष बंगाली राष्ट्रवाद के तहत एक समृद्ध और समानतापूर्ण समाज का निर्माण।

लेकिन आज़ादी के बाद के वर्षों में बांग्लादेश हिंसा, अराजकता, आतंकवादी हमलों, बढ़ती महँगाई, बेरोजगारी, प्राकृतिक आपदाओं और अकाल से जूझता रहा।

बंगबंधु का समाजवादी आर्थिक कार्यक्रम अल्पावधि में असफल साबित हुआ, और सशस्त्र समूहों ने कानून-व्यवस्था को कमजोर कर दिया। धीरे-धीरे उनका नियंत्रण कमज़ोर होता गया।

हत्या और अतीत की वापसी

15 अगस्त 1975 की सुबह, सैनिकों ने धावा बोलकर मुजीब और उनके पूरे परिवार को मार डाला, सिवाय उनकी दो बेटियों के, जो उस समय जर्मनी में थीं।

इसके बाद बांग्लादेश "इस्लामिक गणराज्य" बनने की ओर मुड़ गया और देश की राजनीति में धर्म और सेना का असर और गहरा हो गया।

पाकिस्तान में बिताए गए संघर्षपूर्ण वर्षों के घाव इतने गहरे थे कि आधी सदी बाद भी उन्हें पूरी तरह मिटाना असंभव साबित हुआ है।

आज का बांग्लादेश और बदलता नजरिया

आज बांग्लादेश में शेख मुजीब को "राष्ट्रपिता" कहने से परहेज़ करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। उनकी कब्र तक को धमकियों से सुरक्षित नहीं माना जाता।

इसके बावजूद, 26 मार्च को बांग्लादेश अपना स्वतंत्रता दिवस मनाता है, मानो यह याद दिलाने के लिए कि राष्ट्र का अस्तित्व केवल भौतिक सीमाओं का नहीं, बल्कि उन मूल्यों का भी है, जिनके लिए वह बना था।


पाकिस्तान का इंतज़ार और शेख मुजीब का राजनीतिक आरंभ

शेख मुजीबुर रहमान की कहानी को समझने के लिए यह याद रखना ज़रूरी है कि उनका अपना जीवन उसी देश के जीवन का प्रतिबिंब था जिसे वे बांग्लादेश के रूप में बहुत पहले से पहचानते और पुकारते थे—यहाँ तक कि उस समय भी जब वह एक स्वतंत्र राष्ट्र नहीं बना था। यह समझने के लिए हमें उस दौर में लौटना होगा जब पूर्वी बंगाल के मुस्लिम बहुसंख्यक एक नए राष्ट्र—पाकिस्तान—की प्रतीक्षा में थे। यह था 1940 का दशक, और इसकी जड़ें भारत के अतीत में और गहरी थीं।

पूर्वी बंगाल में पाकिस्तान का सपना

उस दौर में उम्मीद थी कि एक मुस्लिम मातृभूमि का निर्माण पूर्वी बंगाल के मुस्लिम बहुसंख्यकों को न केवल आर्थिक मुक्ति दिलाएगा, बल्कि उन्हें एक सामाजिक और सांस्कृतिक पुनर्जागरण का भी अवसर देगा। इससे मुस्लिम समाज को गरिमा और सम्मान के साथ एक अलग राष्ट्रीय पहचान बनाने का मौका मिलेगा।

पूर्वी बंगाल में सामाजिक संरचना गहरी असमानताओं से घिरी थी। ज़मींदार वर्ग मुख्यतः उच्च जाति के हिंदू थे, जबकि छोटे किरायेदार और भूमिहीन किसान अधिकतर मुस्लिम और निचली जाति के हिंदू होते थे। इस वर्गीय विभाजन में धर्म और जाति की खाई भी गहरी थी। ग्रामीण इलाकों में पीढ़ी दर पीढ़ी चला आ रहा सामाजिक बहिष्कार और धार्मिक-कर्मकांडीय प्रतिबंध मुस्लिम बहुसंख्यकों में असंतोष को और गहरा करते थे। यही असंतोष बदलाव की आकांक्षा को जन्म देता था।

मुस्लिम लीग का उभार और पूर्वी बंगाल की भूमिका

युवा राजनीतिक कार्यकर्ताओं—जैसे शेख मुजीब—के लिए मुस्लिम लीग उस बदलाव की उम्मीद थी। वे मानते थे कि पाकिस्तान बनने पर मुस्लिम किसानों और मज़दूरों की स्थिति में बुनियादी सुधार होगा।

1940 में लाहौर प्रस्ताव पेश हुआ, जिसने एक अलग मुस्लिम मातृभूमि की नींव रखी। यह प्रस्ताव बंगाल के नेता ए.के. फजलुल हक ने रखा था। इसके बाद 1946 में दिल्ली में मुस्लिम लीग के निर्वाचित विधायकों के अधिवेशन में पाकिस्तान की मांग वाला प्रस्ताव भी बंगाल के ही नेता हुसैन शहीद सुहरावर्दी ने पेश किया। यह कोई संयोग नहीं था—पूर्वी बंगाल के राजनीतिक नेताओं और वहां के मुस्लिम बहुसंख्यकों ने मुस्लिम लीग के आंदोलन को निर्णायक जनाधार दिया।

1947: विभाजन और ढाका में नई राजनीति

अगस्त 1947 में जब पाकिस्तान बना, तो पूर्वी बंगाल के राजनीतिक रूप से जागरूक मुस्लिम बहुसंख्यकों को लगा कि अब उनका संघर्ष रंग लाएगा और पाकिस्तान उनके सपनों का देश साबित होगा। यही वे लोग थे जिन्होंने अविभाजित भारत में मुस्लिम लीग के आंदोलन को गति दी थी।

पाकिस्तान बनने के साथ ही ढाका में राजनीतिक उत्साह की लहर दौड़ गई। शेख मुजीब, जिनकी राजनीतिक शिक्षा-दीक्षा का केंद्र कलकत्ता था, पहले से ही मुस्लिम छात्र लीग के एक लोकप्रिय, मुखर और प्रतिबद्ध छात्र नेता के रूप में पहचान बना चुके थे। वे हुसैन शहीद सुहरावर्दी के नज़दीकी शिष्य भी थे।

हालाँकि उनकी जड़ें पूर्वी बंगाल में थीं, लेकिन विभाजन के बाद ही उन्होंने ढाका को अपनी राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र बनाया। यह शहर भी कलकत्ता की तरह राजनीतिक रूप से उत्तेजक और सक्रिय साबित हुआ।


मुस्लिम मध्यम वर्ग का विलंबित उदय और बंगाल का सामाजिक परिवर्तन

औपनिवेशिक बंगाल के संघर्षपूर्ण इतिहास में, एक साक्षर और संगठित मुस्लिम मध्यम वर्ग का उभार अपने हिंदू समकक्षों की तुलना में काफी देर से हुआ।

19वीं शताब्दी में ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन ने अंग्रेज़ी भाषा और आधुनिक शिक्षा प्रणाली को बढ़ावा देकर एक ऐसे हिंदू मध्यम वर्ग को पनपने में मदद की जो अंग्रेजी में दक्ष, प्रशासनिक काम में निपुण, और आधुनिक विचारधारा से परिचित था। इसके साथ ही, उन्होंने आधुनिक बंगाली गद्य के विकास को भी प्रोत्साहित किया, जिसे शिक्षित हिंदुओं ने तुरंत अपनाया और साहित्यिक भाषा के रूप में उल्लेखनीय सफलता से विकसित किया।

इसके विपरीत, बंगाल के मुसलमानों ने इस नई शिक्षा प्रणाली के प्रति प्रारंभिक संशय और अविश्वास दिखाया। धार्मिक और सामाजिक कारणों से वे लंबे समय तक पारंपरिक मदरसा शिक्षा पर निर्भर रहे और आधुनिक पाश्चात्य शिक्षा से दूरी बनाए रखी।

बदलाव की शुरुआत

19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में स्थितियां बदलने लगीं।

जब मुस्लिम समुदाय के कुछ हिस्सों ने अंग्रेजी शिक्षा अपनाना शुरू किया, तो उनके बीच राजनीतिक जागरूकता और एक नई पहचान का भाव पैदा हुआ। यह पहचान, उन्हें बंगाली हिंदुओं से अलग करने वाली एक विशिष्ट सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना का रूप लेने लगी।

1905 में बंगाल के विभाजन (Partition of Bengal) के समय, पूर्वी बंगाल के बहुसंख्यक बंगाली मुसलमानों ने इसे स्वागतयोग्य माना क्योंकि इससे उन्हें प्रशासनिक दृष्टि से अधिक प्रतिनिधित्व और अवसर मिलने की संभावना थी। लेकिन 1911 में जब विभाजन रद्द कर दिया गया, तो मुस्लिम समाज में असंतोष बढ़ा।

ढाका विश्वविद्यालय की स्थापना — एक मोड़

1921 में ढाका विश्वविद्यालय की स्थापना इसी असंतोष के परिप्रेक्ष्य में हुई। इसे बंगाल विभाजन रद्द होने के प्रतिपूरक कदम के रूप में देखा गया।

तत्कालीन समय में यह विश्वविद्यालय पूर्वी बंगाल का एकमात्र उच्च शिक्षा संस्थान था और इसने एक शिक्षित बंगाली मुस्लिम मध्यम वर्ग को विकसित करने तथा बुद्धिजीवी वर्ग के उदय में निर्णायक भूमिका निभाई।

आज जब निजी विश्वविद्यालयों की फीस अत्यधिक है, यह समझना कठिन हो सकता है कि कभी विश्वविद्यालय ऐसे केंद्र होते थे जहाँ युवा न केवल ज्ञान प्राप्त करते थे, बल्कि सोचने, सवाल करने, तर्क करने और सामाजिक मूल्यों को चुनौती देने की क्षमता भी विकसित करते थे।

बुद्धि मुक्ति आंदोलन

1920 और 1930 के दशक में ढाका में "बुद्धि मुक्ति आंदोलन" (Rationalist Humanist Movement) चला, जो परंपरागत सोच को चुनौती देता था।

यद्यपि इसमें काजी अब्दुल ओदुद जैसे प्रमुख तर्कवादी शामिल थे, आंदोलन में भाग लेने वाले कई लोगों ने अपनी मुस्लिम पहचान को गर्व से बनाए रखा। यह दर्शाता है कि धार्मिक पहचान और तर्कसंगत विचारधारा एक-दूसरे के विरोधी नहीं थे, बल्कि समानांतर रूप से अस्तित्व में रह सकते थे।

पहचान की बहुलता

पहचान कभी स्थिर नहीं रहती। व्यक्ति या समुदाय एक साथ कई पहचानों को धारण कर सकता है — कभी किसी एक को प्राथमिकता देता है, कभी दूसरी को। बंगाली मुसलमानों की पहचान का यह निरंतर खोज और पुनर्परिभाषा का सफर, बांग्लादेश के इतिहास से जुड़ा है।

और यह वही कहानी है जिसे शेख मुजीबुर रहमान के जीवन में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।


बंगाल समझौता: एक अधूरा वादा

1923 में चित्तरंजन दास द्वारा किया गया बंगाल समझौता मुस्लिम बहुल बंगाल में हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच शक्ति और संसाधनों के न्यायसंगत बंटवारे का एक दूरदर्शी प्रयास था। यह समझौता प्रांत की वास्तविक जनसांख्यिकीय संरचना को ध्यान में रखकर तैयार किया गया था।

समझौते के मुख्य प्रावधान थे:


सरकारी नौकरियों में आरक्षण: बंगाल में 55% सरकारी पद मुसलमानों के लिए आरक्षित।


नई नियुक्तियों में प्राथमिकता: 55% के लक्ष्य तक पहुँचने तक, 80% नई सरकारी भर्तियाँ मुसलमानों से की जाएँगी।


स्थानीय निकायों में प्रतिनिधित्व: स्थानीय शासन संस्थाओं में मुसलमानों को 60% प्रतिनिधित्व दिया जाएगा।

कांग्रेस ने इस प्रस्ताव को आधिकारिक रूप से स्वीकार नहीं किया, लेकिन चित्तरंजन दास ने इसे बनाए रखने की कोशिश की। उन्हें एहसास था कि मुस्लिम बहुसंख्यक प्रांत में यह समझौता स्थिरता और विश्वास का आधार बन सकता है — खासकर उस समय जब मुस्लिम समाज एक नए जागृत मध्यम वर्ग के रूप में उभर रहा था, परंतु शिक्षा, रोज़गार और राजनीतिक प्रतिनिधित्व में अभी भी हिंदुओं से पीछे था।

लेकिन, जून 1925 में दास का निधन हो गया। उस समय उनके करीबी शिष्य सुभाष चंद्र बोस बर्मा में कैद थे। इधर, पूरे उत्तर भारत में हिंदू-मुस्लिम तनाव बढ़ रहा था। इन परिस्थितियों में, बंगाल समझौता टिक नहीं सका और जल्द ही इतिहास के पन्नों में दफ़न हो गया।


पहचान और प्राथमिकता

1940 के दशक में बंगाली मुसलमानों के बीच यह स्पष्ट था कि अपनी राजनीतिक जगह बनाने के लिए उन्हें अपनी मुस्लिम पहचान को केंद्र में रखना होगा। यह रुझान खासकर उस समय के साम्प्रदायिक तनाव और अविश्वास के माहौल में और गहरा गया।

मुजीब का नेटवर्क

1947 में ढाका पहुँचने के बाद मुजीब ऐसे युवाओं के साथ जुड़े जो प्रगतिशील, लेकिन मुस्लिम लीग के भीतर सक्रिय थे। इन नामों में ताजुद्दीन अहमद, शम्सुद्दीन अहमद, शम्सुल हक, अबुल मंसूर अहमद, शौकत अली, मोहम्मद तोहा और ओली अहद जैसे लोग शामिल थे।

आगे चलकर इन सभी के रास्ते अलग हुए, पर 40 के दशक में ये एक ही राजनीतिक मंच के हिस्सेदार थे।

धर्मनिरपेक्ष-सामाजिक दृष्टिकोण

मुस्लिम लीग के भीतर ही एक ऐसा गुट था जो पूरी तरह से प्रतिक्रियावादी नवाबी राजनीति के खिलाफ और धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी सोच के पक्ष में था।

उदाहरण: 1944 में इन्होंने ढाका के नवाबों द्वारा समर्थित उम्मीदवार के खिलाफ अबुल हाशिम का समर्थन किया, जो प्रगतिशील थे और जीते भी।

मुजीब की आत्मकथा से झलक

उनकी किताब असमप्तो आत्मजीबोनी से पता चलता है कि छात्र जीवन में वे पूरी तरह से राजनीति में डूब चुके थे।

“बैठकें करता, भाषण देता… पाकिस्तान बनना ज़रूरी था, मुसलमानों को और कुछ नहीं बचा सकता था।”

इस दौर में आजाद अख़बार का असर उनके विचारों पर गहरा था।

पाकिस्तान का सपना (1940 के दशक की दृष्टि)

उस समय के इन युवाओं के लिए पाकिस्तान का मतलब हिंदू-मुस्लिम अलगाव नहीं, बल्कि सम्मान और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व था।

अबुल हाशिम का विज़न: पाकिस्तान का असली उद्देश्य दोनों समुदायों को भाईचारे से साथ जीने लायक माहौल देना था, और मुस्लिम लीग को ज़मींदारों व प्रतिक्रियावादी ताकतों से मुक्त करना था।

बंगाली आकांक्षाएँ बनाम लीग की योजनाएँ

विभाजन से पहले की बहस – पूर्वी बंगाल के प्रगतिशील मुस्लिम लीग कार्यकर्ता सोच रहे थे कि नए बनने वाले पाकिस्तान में बंगालियों की राजनीतिक हैसियत क्या होगी और उनका सामाजिक-आर्थिक रास्ता कैसा होना चाहिए।

गण आज़ादी लीग (पीपुल्स फ़्रीडम लीग) का उदय – जुलाई 1947 में, लीग के भीतर का एक छोटा वामपंथी धड़ा अलग घोषणापत्र लेकर आया। इसका केंद्रीय तर्क था कि केवल राजनीतिक स्वतंत्रता पर्याप्त नहीं है; असली आज़ादी तभी होगी जब आर्थिक मुक्ति भी हो, जिससे सामाजिक और सांस्कृतिक प्रगति संभव हो सके।

भाषाई पहचान की स्पष्ट घोषणा – घोषणापत्र में यह साफ लिखा था कि:

पूर्वी पाकिस्तान की राज्य भाषा बंगाली होगी।

शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होगा।

"बंगाली हमारी मातृभाषा है" — यह कथन केवल बंगालियों के लिए था, न कि पूरे पाकिस्तान के लिए।

बदरुद्दीन उमर का विश्लेषण – बदरुद्दीन उमर ने अपनी तीन-खंडों वाली शोधकृति "पूर्वी बंगाल भाषा आंदोलन ओ तत्कालिन राजनीति" में कहा कि यह घोषणापत्र सिर्फ पूर्वी बंगाल पर केंद्रित था और इसमें प्रयुक्त "हमारा" शब्द का मतलब केवल बंगाली जनता थी।

संघीय ढाँचे की कल्पना – अगस्त 1947 से पहले ही कुछ बंगाली नेता अपने प्रांत को स्वायत्त मानते थे। उनकी कल्पना में पूर्वी बंगाल, पाकिस्तान का हिस्सा होते हुए भी, उससे केवल एक ढीले संघीय ढाँचे में जुड़ा रहेगा।


पाकिस्तान की भू-राजनीतिक मूर्खता

1947 में पाकिस्तान के गठन के बाद मुस्लिम लीग के जिस गुट ने सत्ता संभाली, उसने एक समावेशी और व्यावहारिक दृष्टि अपनाने के बजाय एक संकीर्ण, केंद्रीकृत और पहचान-आधारित दृष्टिकोण चुना। देश की संरचना ही भौगोलिक रूप से असामान्य थी — पूर्वी पाकिस्तान (आज का बांग्लादेश) और पश्चिमी पाकिस्तान के बीच लगभग 1,600 किलोमीटर का भारतीय भूभाग था।

ऐसी स्थिति में तार्किक रणनीति यह होती कि दोनों हिस्सों को सांस्कृतिक, भाषाई और क्षेत्रीय विविधताओं को मान्यता देकर जोड़ा जाए। लेकिन इसके बजाय, नेतृत्व ने "एकल इस्लामी पहचान" को गढ़ने की कोशिश की और पाकिस्तानियों के "भारतीय" अतीत से जुड़े सभ्यतागत, भाषाई और ऐतिहासिक संबंधों को नकार दिया।

इस एकरूप पहचान थोपने के प्रयास का पहला निशाना भाषा बनी — और वहीं से पूर्वी पाकिस्तान में असंतोष की नींव पड़ी, जो आगे चलकर बांग्लादेश मुक्ति संग्राम का एक बड़ा कारण बनी।


भाषा पर हमला

प्रस्ताव और विरोध : 25 फरवरी 1948 — कांग्रेस के नेता धीरेंद्रनाथ दत्ता ने पाकिस्तान की संविधान सभा में प्रस्ताव रखा कि उर्दू के साथ बंगाली को भी आधिकारिक राज्यभाषा बनाया जाए।

इस पर इतना शोर-शराबा हुआ कि दत्ता को बोलने नहीं दिया गया।

पूर्वी पाकिस्तान के कई सदस्य (यहाँ तक कि मुख्यमंत्री ख्वाजा नज़ीमुद्दीन) भी प्रस्ताव के विरोध में थे।

प्रधानमंत्री लियाक़त अली ख़ान ने इसे “उर्दू की एकता की शक्ति पर हमला” बताया और कहा कि उर्दू ही देश के दोनों हिस्सों को “एक साथ” रख सकती है।

2. ढाका में छात्र प्रतिक्रिया

प्रतिक्रिया तुरंत और तीखी थी। छात्रों ने "राष्ट्रभाषा बांग्ला संग्राम परिषद" बनाई।

11 मार्च 1948 — विरोध प्रदर्शन का ऐलान किया। इस दिन शेख मुजीबुर रहमान भी गिरफ्तार हुए, पाँच दिन जेल में रहे — यह पाकिस्तान में उनकी पहली गिरफ्तारी थी।

3. जिन्ना का रुख और टकराव

कुछ दिन बाद गवर्नर जनरल मुहम्मद अली जिन्ना ने ढाका का दौरा कर फिर से साफ कहा — उर्दू ही एकमात्र राज्यभाषा होगी। ढाका विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में जब जिन्ना ने भाषण दिया तो छात्रों ने बीच में “ना, ना” के नारे लगाए।

यह पूर्वी पाकिस्तान में भविष्य के आंदोलनों (विशेषकर 1969 के जन-विद्रोह) में छात्रों की सक्रिय भूमिका का शुरुआती संकेत था।

4. प्रतीकात्मक पल

कहा जाता है कि नारेबाज़ी के बाद जिन्ना कुछ पल खामोश और अचंभित खड़े रहे। शायद उन्हें उम्मीद थी कि बंगालियों से भी वही आज्ञाकारी समर्थन मिलेगा जो केंद्र और प्रांत में मुस्लिम लीग सरकार को मिलता था।

लेकिन बंगालियों के मन में अब पहचान का केंद्र बदल चुका था —

अगस्त 1947 से पहले: "मुसलमान" होना प्रमुख पहचान।

कुछ महीनों बाद: "बंगाली" होना वह पहचान बन गया जिसकी रक्षा करनी थी।


1952 का भाषा आंदोलन

हालाँकि, मार्च 1948 का भाषा आंदोलन छात्रों, शिक्षकों और बुद्धिजीवियों के एक सीमित दायरे से आगे नहीं बढ़ पाया। यह प्रांतीय राजधानी से बाहर नहीं फैला। ढाका में भी, प्रदर्शनकारी छात्रों को ज़्यादा जनसमर्थन नहीं मिला। लेकिन 1952 की शुरुआत में द्वितीय भाषा आंदोलन के समय तक स्थिति बदल चुकी थी।
इस बार यह चिंगारी नज़ीमुद्दीन ने भड़काई, जिन्होंने प्रधानमंत्री के रूप में ढाका की अपनी पहली यात्रा पर16 घोषणा की कि उर्दू ही एकमात्र राजकीय भाषा रहेगी, और साथ ही यह भी कहा कि लिखित बंगाली के लिए अरबी लिपि अपनाने पर शोध चल रहा है।
21 फ़रवरी, 1952 को ढाका में छात्रों द्वारा कर्फ्यू का उल्लंघन और उसके बाद पुलिस की गोलीबारी में युवाओं का खून बहाना एक किंवदंती है, और हमें यहाँ इस पर ज़्यादा देर तक चर्चा करने की ज़रूरत नहीं है। शेख मुजीब इस आंदोलन के दौरान क़ैद रहे17 – अक्टूबर 1949 में प्रधानमंत्री अली की ढाका यात्रा के दौरान हुए विरोध प्रदर्शनों के दौरान पुलिस से हुई झड़प के बाद, लगभग 27 महीनों तक ढाका, गोपालगंज, खुलना और फ़रीदपुर की जेलों में घूमते रहे।
हालाँकि, वे अपने राजनीतिक सहयोगियों के संपर्क में थे और 21 फ़रवरी को, जिस दिन प्रांतीय विधानसभा की बैठक होनी थी, कार्रवाई के लिए बुलाई गई चर्चाओं में शामिल थे।
1948 के विपरीत, इस बार आंदोलन को ढाका में भारी जनसमर्थन मिला और 22 फ़रवरी से यह राजधानी से बाहर तक फैल गया, और सभी सामाजिक वर्गों के लोगों को अपनी ओर आकर्षित किया। यह एक स्वतःस्फूर्त और अदम्य विस्फोट था – यहाँ तक कि स्कूली बच्चे भी इससे अछूते नहीं रहे।

बीच के चार वर्षों में ऐसा क्या बदलाव आया जिससे यह संभव हो पाया?
उमर की किताब बताती है कि कैसे प्रांतीय मुस्लिम लीग सरकार द्वारा उन शुरुआती वर्षों में पूर्वी बंगाल में लहरों की तरह फैल रहे जन आंदोलनों पर किए गए दमन ने लोगों की राजनीतिक चेतना को आमूल-चूल रूप से बदल दिया।
मातृभाषा के प्रति चिंता अब केवल शिक्षित वर्ग तक ही सीमित नहीं रही। 1952 तक, सभी सामाजिक वर्गों के लोग इसे एक ऐसे मुद्दे के रूप में पहचानने लगे थे जो सीधे तौर पर उन्हें और उस व्यवस्था में उनकी संभावनाओं को प्रभावित करता था जिसमें उर्दू में दक्षता की आवश्यकता होती थी।

मोहभंग और गुस्सा
इस समय तक, उनकी आँखों से पर्दा भी उठ चुका था। पूरे प्रांत में, मजदूर वर्गों के हित - रेलवे कर्मचारी, डाक और तार कर्मचारी, चाय बागान कर्मचारी, कपास मिल कर्मचारी, गोदी कर्मचारी - सरकार की प्राथमिकताओं की सूची में सबसे ज़्यादा उपेक्षित प्रतीत होते थे।18
1948 और 1950 के बीच, लोगों ने देखा था कि कैसे राज्य मशीनरी ने असाधारण और अनावश्यक क्रूरता के साथ जन आंदोलनों पर प्रहार किया: सिलहट में नानकार आंदोलन, जहाँ किसान व्यावहारिक रूप से बंधुआ मजदूरी के खिलाफ उठ खड़े हुए; मैमनसिंह और सिलहट में हाजोंग जनजाति का आंदोलन; और सिलहट में संथाल आंदोलन।
1948 से, पूर्वी बंगाल की जेलों में कैदियों पर सोची-समझी क्रूरता आम बात हो गई थी। राजशाही में तेभागा आंदोलन की कम्युनिस्ट नेता, प्रसिद्ध इला मित्रा का मामला और नाचोले पुलिस स्टेशन में उनके द्वारा झेली गई यातना और यौन हिंसा सर्वविदित है। ऐसी ही कई और भी भयावह कहानियाँ थीं। ढाका, खुलना और राजशाही जिलों की जेलों के अंदर कैदियों की हत्या कर दी गई।
एक विशेष रूप से विचलित करने वाली घटना में, राजशाही जेल के अंदर हुई गोलीबारी में अनवर हुसैन नामक एक युवा छात्र की खोपड़ी उड़ गई, जिसमें नौ अन्य लोग भी मारे गए।
आश्चर्य की बात नहीं कि 1952 में मुस्लिम लीग को वह समर्थन नहीं मिला जो उसे 1940 के दशक में मिला था, जब पाकिस्तान के वादे से जगी उम्मीदों ने उसे बंगाल में एक विशाल जन संगठन बनने के लिए प्रेरित किया था।
उमर के वर्णन में, "उन्हें [बंगाली मुसलमानों को] उम्मीद थी कि एक बार पाकिस्तान नामक स्वतंत्र मुस्लिम राज्य की स्थापना हो जाने पर, किसानों को जमीन मिलेगी, मजदूरों को काम और जीविका मजदूरी का आश्वासन मिलेगा, छात्रों को सस्ती और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्त करने में मदद मिलेगी, और शिक्षित युवा उपयुक्त नौकरियां और आजीविका की सुरक्षा प्राप्त करें। उन्हें यह भी उम्मीद थी कि पाकिस्तान में वे एक स्वस्थ संस्कृति का पोषण कर पाएँगे जो उनके जीवन को पूर्णता प्रदान करेगी।”
1952 तक, यह स्पष्ट हो गया था कि उनकी उम्मीदें टूट चुकी थीं।
जिस उल्लेखनीय गति से मुस्लिम लीग ने अपनी स्वीकार्यता खोई, उसे 1947 में पूर्वी बंगाल में पड़े अकाल के संदर्भ में भी देखा जाना चाहिए। इससे हुई शारीरिक पीड़ा के अलावा, यह उस आबादी के लिए मनोवैज्ञानिक रूप से विनाशकारी था जिसकी 1943 के अकाल की यादें अभी भी ताज़ा थीं।
अगले कुछ वर्षों तक, प्रांत को दोषपूर्ण नीतियों, सीमा पार भारत (जहाँ कीमतें अधिक थीं) में अनाज की तस्करी, और जमींदारों और अनाज व्यापारियों द्वारा अनैतिक भंडारण के कारण पैदा हुई कृत्रिम कमी के साथ खाद्य संकट का सामना करना पड़ा।
बदनाम शासन में इन सब पर नियंत्रण करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं थी। नियमित चुनावों के वादे के साथ एक लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था, अभी भी कुछ हद तक गति पकड़ सकती थी और लीग के पतन को धीमा कर सकती थी। लेकिन शासन राजनीतिक रूप से आत्मघाती रास्ते पर चल पड़ा। सभी विरोधों को, चाहे बलपूर्वक या छल-कपट से, कुचलने की कोशिश की जा रही थी, और चुनाव नहीं कराए जा रहे थे।
इस बात का संकेत निश्चित रूप से यह था कि हालात किस ओर जा रहे थे, मुस्लिम लीग उस समय हुए एकमात्र चुनाव में हार गई - अप्रैल 1949 में तंगैल में एक प्रांतीय विधानसभा सीट के लिए उपचुनाव, जो उस समय मैमनसिंह जिले का हिस्सा था।
मुस्लिम लीग के उम्मीदवार, स्थानीय जमींदार खुर्रम खान पन्नी, जिनके अधिकांश मतदाता किरायेदार थे, शम्सुल हक से हार गए, जो कुछ महीने बाद अवामी लीग के गठन के समय इसके पहले महासचिव थे।

केंद्रीय और प्रांतीय दोनों अधिकारियों ने विश्वसनीयता खो दी।
न केवल प्रांतीय सरकार और उसकी अधिकांशतः गैर-बंगाली नौकरशाही ने विश्वसनीयता खो दी, बल्कि केंद्र सरकार जल्द ही आम धारणा में खलनायक बन गई। निश्चित रूप से कराची, ढाका में कठपुतली प्रशासन को नियंत्रित करने की डोर पकड़े हुए था।
ऐसी स्थिति स्वाभाविक रूप से एक व्यवहार्य विपक्ष की मांग करती थी, चाहे मुस्लिम लीग ने खुद को मैदान में उतारने की कितनी भी कोशिश की हो। विभाजन के बाद पूर्वी बंगाल में केवल दो राजनीतिक इकाइयाँ मुस्लिम थीं। लीग और कम्युनिस्ट पार्टी।21 जहाँ एक ने आम धारणा में अपनी वैधता खो दी थी, वहीं दूसरी आम जनता के साथ पूरी तरह तालमेल नहीं बिठा पा रही थी।
इस प्रकार उत्पन्न राजनीतिक शून्य में पूर्वी पाकिस्तान अवामी मुस्लिम लीग का उदय हुआ, जिसका गठन जून 1949 में मौलाना अब्दुल हमीद खान भसानी को अध्यक्ष और हक को महासचिव बनाकर किया गया। 29 वर्षीय शेख मुजीब, जो पार्टी की स्थापना के समय जेल में थे22, कई संयुक्त महासचिवों में से एक थे।23 लगभग सभी संस्थापक सदस्य पूर्व (मोहभंग) मुस्लिम लीगी थे।
अगले भाग में चर्चा की जाएगी कि कैसे पूर्वी पाकिस्तान में लोकतंत्र और प्रांतीय स्वायत्तता का संघर्ष धर्मनिरपेक्ष बंगाली राष्ट्रवाद के उदय से अभिन्न रूप से जुड़ गया, जिसका प्रतिनिधित्व शेख मुजीबुर रहमान के नेतृत्व में अवामी लीग ने किया।

अंतिम टिप्पणियाँ

1- 15 अगस्त, 1975 की सुबह, बांग्लादेश के लोग मेजर दलिम के एक रेडियो प्रसारण से जागे, जो पार्टी के प्रमुख नेताओं में से एक थे। सैन्य तख्तापलट के योजनाकारों ने ही इस हत्या को अंजाम दिया। यह इस प्रकार था: "मैं मेजर दलिम बोल रहा हूँ। शेख मुजीब की हत्या कर दी गई है। बांग्लादेश की सेना ने लोकप्रिय नेता खोंडकर मुस्ताक अहमद के नेतृत्व में सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया है। पूरे देश में मार्शल लॉ लागू कर दिया गया है और कर्फ्यू लगा दिया गया है। अब से बांग्लादेश एक इस्लामी गणराज्य होगा।" (लेखक द्वारा अनुवादित)

2- पाकिस्तान बनने के बाद, पूर्वी क्षेत्र को पूर्वी बंगाल कहा जाता था, जब तक कि 1956 के संविधान ने इसका नाम बदलकर पूर्वी पाकिस्तान नहीं कर दिया। इस बदलाव का मुजीब जैसे बंगाली राष्ट्रवादियों ने विरोध किया।

3 - मुजीब का जन्म 1920 में फरीदपुर जिले के गोपालगंज उपखंड (जिसे अब एक जिला बना दिया गया है) के तुंगीपारा गाँव में हुआ था। मुजीब का पार्थिव शरीर तुंगीपारा में ही दफन है।

4 - वास्तव में, विश्वविद्यालय ने उस बुनियादी ढाँचे पर कब्ज़ा कर लिया था जो नई प्रांतीय राजधानी ढाका के लिए बनाया जा रहा था। ढाका विश्वविद्यालय का विशाल परिसर, जिसमें शिक्षकों के लिए आवासीय क्वार्टर और छात्रों के लिए छात्रावासों वाले कई "हॉल" थे, एक प्रांतीय राजधानी द्वारा छोड़ी गई विरासत थी जो 1911 में अप्रासंगिक हो गई थी।

5 - राजशाही विश्वविद्यालय की स्थापना 1953 में और चटगाँव विश्वविद्यालय की स्थापना 1966 में हुई थी। जहाँगीरनगर विश्वविद्यालय का उद्घाटन जनवरी 1971 में हुआ था।

6- इस आंदोलन को चलाने वाले समूह को शिखा गोष्ठी के नाम से जाना जाता था। (शिखा समूह) ढाका के मुस्लिम साहित्य समाज द्वारा प्रकाशित बंगाली पत्रिका शिखा (ज्वाला) के नाम पर।

7 - भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 1923 के कोकोनाडा अधिवेशन ने बंगाल समझौते को अस्वीकार कर दिया।

8- मुजीब ने कलकत्ता के इस्लामिया कॉलेज, जिसका नाम अब मौलाना आज़ाद कॉलेज है, से स्नातक की पढ़ाई पूरी की थी। विभाजन के बाद, उन्होंने ढाका विश्वविद्यालय में कानून के छात्र के रूप में दाखिला लिया।

9- ताजुद्दीन अहमद, जो 1960 के दशक के मध्य से अवामी लीग के महासचिव के रूप में कार्यरत थे, ने बांग्लादेश की निर्वासित सरकार का नेतृत्व किया, जिसने 17 अप्रैल, 1971 को कुश्तिया के मुजीबनगर नामक स्थान पर प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली। मुजीब की अनुपस्थिति में, उनके कुशल नेतृत्व और कूटनीतिक कौशल ने ही मुक्ति संग्राम को दिशा दी और गुटीय झगड़ों के बावजूद उसे एकजुट रखा।

10 - अबुल हाशिम ने हुसैन शहीद सुहरावर्दी, कांग्रेस के शरत चंद्र बोस और किरण शंकर रॉय के साथ मिलकर मई 1947 में बंगाल के विभाजन को रोकने और इसके बजाय एक स्वायत्त प्रांत बनाने का अंतिम प्रयास किया, जिसे यह चुनने का अधिकार होगा कि वह स्वतंत्र रहना चाहता है या भारत और पाकिस्तान में से किसी एक में शामिल होना चाहता है।

11- यूनिवर्सिटी प्रेस लिमिटेड, ढाका द्वारा जून 2012 में प्रकाशित, मुजीब की सबसे बड़ी बेटी और तत्कालीन बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना द्वारा लिखित भूमिका सहित।

12 - बंगाली भाषा का यह समाचार पत्र 1936 में कलकत्ता से प्रकाशित होना शुरू हुआ, जिसका संपादन मौलाना अकरम खान ने किया था। यह 1940 के दशक में बंगाल और असम में मुस्लिम आकांक्षाओं के लिए एक महत्वपूर्ण जनसंचार माध्यम था। विभाजन के बाद यह समाचार पत्र ढाका चला गया और भाषा के पक्ष में और बाद में पूर्वी पाकिस्तान में राष्ट्रवादी आंदोलन के पक्ष में खड़ा हो गया।

13 - पृष्ठ 15. लेखक द्वारा अनुवादित। ढाका विश्वविद्यालय के प्रोफेसर फकरुल आलम द्वारा लिखित पुस्तक 'अधूरे संस्मरण' का अंग्रेजी अनुवाद।

14- असमप्तो आत्मजीबोनी, पृष्ठ 28.

15- यह अधिवेशन तत्कालीन पाकिस्तान की राजधानी कराची में आयोजित किया गया था, जिसकी अध्यक्षता तत्कालीन गवर्नर-जनरल मुहम्मद अली जिन्ना ने की थी।

16 - ख्वाजा नजीमुद्दीन, जो पाकिस्तान में पूर्वी बंगाल के पहले मुख्यमंत्री थे, सितंबर 1948 में जिन्ना की मृत्यु के बाद पाकिस्तान के गवर्नर-जनरल बने और अक्टूबर 1951 में लियाकत अली की हत्या के बाद प्रधानमंत्री बने।

17- मुजीब ने 16 फ़रवरी को जेल में अनशन शुरू किया। 28 फ़रवरी को उनकी हालत इतनी गंभीर हो गई कि जेल के डॉक्टर उन्हें संभाल नहीं पाए, जिसके बाद उन्हें रिहा कर दिया गया।

18- बदरुद्दीन उमर की पुस्तक के दूसरे खंड में इस पर विस्तृत चर्चा है।

19- बदरुद्दीन उमर, पूर्वी बंगाल का भाषा आंदोलन और समकालीन राजनीति।

20- विपक्षी राजनीतिक गतिविधियों को विफल करने के लिए, मुस्लिम लीग के भाड़े के गुंडे अक्सर राजनीतिक विरोधियों द्वारा सार्वजनिक सभाएँ आयोजित करने की कोशिश करने पर माइक्रोफोन छीन लेते थे और हिंसा के माध्यम से ऐसी सभाओं को बाधित करने का भी प्रयास करते थे। सरकारी निकायों ने अक्सर सार्वजनिक भवनों के उपयोग से आंतरिक बैठकों के लिए इनकार कर दिया।

21- विभाजन के बाद कांग्रेस अपनी प्रासंगिकता खो बैठी।

22- मुजीब को अप्रैल 1949 में ढाका विश्वविद्यालय के चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों की मांगों के समर्थन में एक आंदोलन के दौरान ढाका में गिरफ्तार किया गया था।

23- अन्य संयुक्त सचिवों में अताउर रहमान, अब्दुस सलाम खान, अली अहमद खान और अली अमजद खान शामिल थे।


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