
शेख मुजीबुर रहमान: महात्मा नहीं बल्कि बंधु हैं
बंगाली मुसलमानों की पहचान की तलाश का इतिहास बांग्लादेश का इतिहास है। यह शेख मुजीबुर रहमान के जीवन की भी कहानी है। चार भागों वाली श्रृंखला की पहली कड़ी
Five Decades Of Sheikh Mujibur Rahman's Assasination : आज से ठीक पचास साल पहले, 15 अगस्त 1975 को, नवगठित बांग्लादेश की राजनीति को गहरा आघात पहुँचा था। तख्तापलट की एक साजिश ने स्वतंत्रता की लड़ाई का चेहरा माने जाने वाले, देश के निर्माता और "बंगबंधु" (बंगालियों के मित्र) शेख मुजीबुर रहमान को उनके पूरे परिवार समेत मौत के घाट उतार दिया।
इस घटना ने न केवल एक नेता की हत्या की, बल्कि उस वादे की भी हत्या कर दी, जो बांग्लादेश के जन्म के समय किया गया था — आर्थिक मुक्ति और कट्टरता की हार का।
1971: मुक्ति संग्राम और बंगबंधु का सपना
1971 में बांग्लादेश का जन्म 20वीं सदी की सबसे अद्वितीय और हृदयस्पर्शी घटनाओं में गिना जाता है।
सात करोड़ की आबादी वाले इस छोटे से राष्ट्र ने पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान के नरसंहार के खिलाफ 10 महीने लंबा संघर्ष लड़ा। इस दौरान लगभग 30 लाख लोग मारे गए, लाखों महिलाएँ हिंसा का शिकार हुईं और करोड़ों नागरिक विस्थापित हुए।
संयुक्त राज्य अमेरिका के नैतिक और सैन्य समर्थन के बावजूद पाकिस्तान ने इस क्रूरता को "राष्ट्रीय अखंडता" के नाम पर अंजाम दिया, लेकिन बांग्लादेश के लोगों ने अपार साहस और बलिदान से अपनी किस्मत खुद लिखी।
कैद में बंगबंधु और रेडियो संदेश
युद्ध के दौरान शेख मुजीब पश्चिम पाकिस्तान की जेल में कैद रहे। 25-26 मार्च 1971 की रात को उन्हें ढाका स्थित घर से गिरफ्तार किया गया, लेकिन उससे पहले उन्होंने एक गुप्त रेडियो संदेश में बांग्लादेश को स्वतंत्र घोषित कर दिया था।
10 जनवरी 1972 को वे लंदन और दिल्ली होते हुए स्वतंत्र बांग्लादेश लौटे, जहाँ उनका स्वागत एक नायक की तरह हुआ।
वादे से मोहभंग तक
स्वतंत्रता के साथ जुड़ा वादा था — धर्मनिरपेक्ष बंगाली राष्ट्रवाद के तहत एक समृद्ध और समानतापूर्ण समाज का निर्माण।
लेकिन आज़ादी के बाद के वर्षों में बांग्लादेश हिंसा, अराजकता, आतंकवादी हमलों, बढ़ती महँगाई, बेरोजगारी, प्राकृतिक आपदाओं और अकाल से जूझता रहा।
बंगबंधु का समाजवादी आर्थिक कार्यक्रम अल्पावधि में असफल साबित हुआ, और सशस्त्र समूहों ने कानून-व्यवस्था को कमजोर कर दिया। धीरे-धीरे उनका नियंत्रण कमज़ोर होता गया।
हत्या और अतीत की वापसी
15 अगस्त 1975 की सुबह, सैनिकों ने धावा बोलकर मुजीब और उनके पूरे परिवार को मार डाला, सिवाय उनकी दो बेटियों के, जो उस समय जर्मनी में थीं।
इसके बाद बांग्लादेश "इस्लामिक गणराज्य" बनने की ओर मुड़ गया और देश की राजनीति में धर्म और सेना का असर और गहरा हो गया।
पाकिस्तान में बिताए गए संघर्षपूर्ण वर्षों के घाव इतने गहरे थे कि आधी सदी बाद भी उन्हें पूरी तरह मिटाना असंभव साबित हुआ है।
आज का बांग्लादेश और बदलता नजरिया
आज बांग्लादेश में शेख मुजीब को "राष्ट्रपिता" कहने से परहेज़ करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। उनकी कब्र तक को धमकियों से सुरक्षित नहीं माना जाता।
इसके बावजूद, 26 मार्च को बांग्लादेश अपना स्वतंत्रता दिवस मनाता है, मानो यह याद दिलाने के लिए कि राष्ट्र का अस्तित्व केवल भौतिक सीमाओं का नहीं, बल्कि उन मूल्यों का भी है, जिनके लिए वह बना था।
पाकिस्तान का इंतज़ार और शेख मुजीब का राजनीतिक आरंभ
शेख मुजीबुर रहमान की कहानी को समझने के लिए यह याद रखना ज़रूरी है कि उनका अपना जीवन उसी देश के जीवन का प्रतिबिंब था जिसे वे बांग्लादेश के रूप में बहुत पहले से पहचानते और पुकारते थे—यहाँ तक कि उस समय भी जब वह एक स्वतंत्र राष्ट्र नहीं बना था। यह समझने के लिए हमें उस दौर में लौटना होगा जब पूर्वी बंगाल के मुस्लिम बहुसंख्यक एक नए राष्ट्र—पाकिस्तान—की प्रतीक्षा में थे। यह था 1940 का दशक, और इसकी जड़ें भारत के अतीत में और गहरी थीं।
पूर्वी बंगाल में पाकिस्तान का सपना
उस दौर में उम्मीद थी कि एक मुस्लिम मातृभूमि का निर्माण पूर्वी बंगाल के मुस्लिम बहुसंख्यकों को न केवल आर्थिक मुक्ति दिलाएगा, बल्कि उन्हें एक सामाजिक और सांस्कृतिक पुनर्जागरण का भी अवसर देगा। इससे मुस्लिम समाज को गरिमा और सम्मान के साथ एक अलग राष्ट्रीय पहचान बनाने का मौका मिलेगा।
पूर्वी बंगाल में सामाजिक संरचना गहरी असमानताओं से घिरी थी। ज़मींदार वर्ग मुख्यतः उच्च जाति के हिंदू थे, जबकि छोटे किरायेदार और भूमिहीन किसान अधिकतर मुस्लिम और निचली जाति के हिंदू होते थे। इस वर्गीय विभाजन में धर्म और जाति की खाई भी गहरी थी। ग्रामीण इलाकों में पीढ़ी दर पीढ़ी चला आ रहा सामाजिक बहिष्कार और धार्मिक-कर्मकांडीय प्रतिबंध मुस्लिम बहुसंख्यकों में असंतोष को और गहरा करते थे। यही असंतोष बदलाव की आकांक्षा को जन्म देता था।
मुस्लिम लीग का उभार और पूर्वी बंगाल की भूमिका
युवा राजनीतिक कार्यकर्ताओं—जैसे शेख मुजीब—के लिए मुस्लिम लीग उस बदलाव की उम्मीद थी। वे मानते थे कि पाकिस्तान बनने पर मुस्लिम किसानों और मज़दूरों की स्थिति में बुनियादी सुधार होगा।
1940 में लाहौर प्रस्ताव पेश हुआ, जिसने एक अलग मुस्लिम मातृभूमि की नींव रखी। यह प्रस्ताव बंगाल के नेता ए.के. फजलुल हक ने रखा था। इसके बाद 1946 में दिल्ली में मुस्लिम लीग के निर्वाचित विधायकों के अधिवेशन में पाकिस्तान की मांग वाला प्रस्ताव भी बंगाल के ही नेता हुसैन शहीद सुहरावर्दी ने पेश किया। यह कोई संयोग नहीं था—पूर्वी बंगाल के राजनीतिक नेताओं और वहां के मुस्लिम बहुसंख्यकों ने मुस्लिम लीग के आंदोलन को निर्णायक जनाधार दिया।
1947: विभाजन और ढाका में नई राजनीति
अगस्त 1947 में जब पाकिस्तान बना, तो पूर्वी बंगाल के राजनीतिक रूप से जागरूक मुस्लिम बहुसंख्यकों को लगा कि अब उनका संघर्ष रंग लाएगा और पाकिस्तान उनके सपनों का देश साबित होगा। यही वे लोग थे जिन्होंने अविभाजित भारत में मुस्लिम लीग के आंदोलन को गति दी थी।
पाकिस्तान बनने के साथ ही ढाका में राजनीतिक उत्साह की लहर दौड़ गई। शेख मुजीब, जिनकी राजनीतिक शिक्षा-दीक्षा का केंद्र कलकत्ता था, पहले से ही मुस्लिम छात्र लीग के एक लोकप्रिय, मुखर और प्रतिबद्ध छात्र नेता के रूप में पहचान बना चुके थे। वे हुसैन शहीद सुहरावर्दी के नज़दीकी शिष्य भी थे।
हालाँकि उनकी जड़ें पूर्वी बंगाल में थीं, लेकिन विभाजन के बाद ही उन्होंने ढाका को अपनी राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र बनाया। यह शहर भी कलकत्ता की तरह राजनीतिक रूप से उत्तेजक और सक्रिय साबित हुआ।
मुस्लिम मध्यम वर्ग का विलंबित उदय और बंगाल का सामाजिक परिवर्तन
औपनिवेशिक बंगाल के संघर्षपूर्ण इतिहास में, एक साक्षर और संगठित मुस्लिम मध्यम वर्ग का उभार अपने हिंदू समकक्षों की तुलना में काफी देर से हुआ।
19वीं शताब्दी में ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन ने अंग्रेज़ी भाषा और आधुनिक शिक्षा प्रणाली को बढ़ावा देकर एक ऐसे हिंदू मध्यम वर्ग को पनपने में मदद की जो अंग्रेजी में दक्ष, प्रशासनिक काम में निपुण, और आधुनिक विचारधारा से परिचित था। इसके साथ ही, उन्होंने आधुनिक बंगाली गद्य के विकास को भी प्रोत्साहित किया, जिसे शिक्षित हिंदुओं ने तुरंत अपनाया और साहित्यिक भाषा के रूप में उल्लेखनीय सफलता से विकसित किया।
इसके विपरीत, बंगाल के मुसलमानों ने इस नई शिक्षा प्रणाली के प्रति प्रारंभिक संशय और अविश्वास दिखाया। धार्मिक और सामाजिक कारणों से वे लंबे समय तक पारंपरिक मदरसा शिक्षा पर निर्भर रहे और आधुनिक पाश्चात्य शिक्षा से दूरी बनाए रखी।
बदलाव की शुरुआत
19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में स्थितियां बदलने लगीं।
जब मुस्लिम समुदाय के कुछ हिस्सों ने अंग्रेजी शिक्षा अपनाना शुरू किया, तो उनके बीच राजनीतिक जागरूकता और एक नई पहचान का भाव पैदा हुआ। यह पहचान, उन्हें बंगाली हिंदुओं से अलग करने वाली एक विशिष्ट सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना का रूप लेने लगी।
1905 में बंगाल के विभाजन (Partition of Bengal) के समय, पूर्वी बंगाल के बहुसंख्यक बंगाली मुसलमानों ने इसे स्वागतयोग्य माना क्योंकि इससे उन्हें प्रशासनिक दृष्टि से अधिक प्रतिनिधित्व और अवसर मिलने की संभावना थी। लेकिन 1911 में जब विभाजन रद्द कर दिया गया, तो मुस्लिम समाज में असंतोष बढ़ा।
ढाका विश्वविद्यालय की स्थापना — एक मोड़
1921 में ढाका विश्वविद्यालय की स्थापना इसी असंतोष के परिप्रेक्ष्य में हुई। इसे बंगाल विभाजन रद्द होने के प्रतिपूरक कदम के रूप में देखा गया।
तत्कालीन समय में यह विश्वविद्यालय पूर्वी बंगाल का एकमात्र उच्च शिक्षा संस्थान था और इसने एक शिक्षित बंगाली मुस्लिम मध्यम वर्ग को विकसित करने तथा बुद्धिजीवी वर्ग के उदय में निर्णायक भूमिका निभाई।
आज जब निजी विश्वविद्यालयों की फीस अत्यधिक है, यह समझना कठिन हो सकता है कि कभी विश्वविद्यालय ऐसे केंद्र होते थे जहाँ युवा न केवल ज्ञान प्राप्त करते थे, बल्कि सोचने, सवाल करने, तर्क करने और सामाजिक मूल्यों को चुनौती देने की क्षमता भी विकसित करते थे।
बुद्धि मुक्ति आंदोलन
1920 और 1930 के दशक में ढाका में "बुद्धि मुक्ति आंदोलन" (Rationalist Humanist Movement) चला, जो परंपरागत सोच को चुनौती देता था।
यद्यपि इसमें काजी अब्दुल ओदुद जैसे प्रमुख तर्कवादी शामिल थे, आंदोलन में भाग लेने वाले कई लोगों ने अपनी मुस्लिम पहचान को गर्व से बनाए रखा। यह दर्शाता है कि धार्मिक पहचान और तर्कसंगत विचारधारा एक-दूसरे के विरोधी नहीं थे, बल्कि समानांतर रूप से अस्तित्व में रह सकते थे।
पहचान की बहुलता
पहचान कभी स्थिर नहीं रहती। व्यक्ति या समुदाय एक साथ कई पहचानों को धारण कर सकता है — कभी किसी एक को प्राथमिकता देता है, कभी दूसरी को। बंगाली मुसलमानों की पहचान का यह निरंतर खोज और पुनर्परिभाषा का सफर, बांग्लादेश के इतिहास से जुड़ा है।
और यह वही कहानी है जिसे शेख मुजीबुर रहमान के जीवन में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
बंगाल समझौता: एक अधूरा वादा
1923 में चित्तरंजन दास द्वारा किया गया बंगाल समझौता मुस्लिम बहुल बंगाल में हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच शक्ति और संसाधनों के न्यायसंगत बंटवारे का एक दूरदर्शी प्रयास था। यह समझौता प्रांत की वास्तविक जनसांख्यिकीय संरचना को ध्यान में रखकर तैयार किया गया था।
समझौते के मुख्य प्रावधान थे:
सरकारी नौकरियों में आरक्षण: बंगाल में 55% सरकारी पद मुसलमानों के लिए आरक्षित।
नई नियुक्तियों में प्राथमिकता: 55% के लक्ष्य तक पहुँचने तक, 80% नई सरकारी भर्तियाँ मुसलमानों से की जाएँगी।
स्थानीय निकायों में प्रतिनिधित्व: स्थानीय शासन संस्थाओं में मुसलमानों को 60% प्रतिनिधित्व दिया जाएगा।
कांग्रेस ने इस प्रस्ताव को आधिकारिक रूप से स्वीकार नहीं किया, लेकिन चित्तरंजन दास ने इसे बनाए रखने की कोशिश की। उन्हें एहसास था कि मुस्लिम बहुसंख्यक प्रांत में यह समझौता स्थिरता और विश्वास का आधार बन सकता है — खासकर उस समय जब मुस्लिम समाज एक नए जागृत मध्यम वर्ग के रूप में उभर रहा था, परंतु शिक्षा, रोज़गार और राजनीतिक प्रतिनिधित्व में अभी भी हिंदुओं से पीछे था।
लेकिन, जून 1925 में दास का निधन हो गया। उस समय उनके करीबी शिष्य सुभाष चंद्र बोस बर्मा में कैद थे। इधर, पूरे उत्तर भारत में हिंदू-मुस्लिम तनाव बढ़ रहा था। इन परिस्थितियों में, बंगाल समझौता टिक नहीं सका और जल्द ही इतिहास के पन्नों में दफ़न हो गया।
पहचान और प्राथमिकता
1940 के दशक में बंगाली मुसलमानों के बीच यह स्पष्ट था कि अपनी राजनीतिक जगह बनाने के लिए उन्हें अपनी मुस्लिम पहचान को केंद्र में रखना होगा। यह रुझान खासकर उस समय के साम्प्रदायिक तनाव और अविश्वास के माहौल में और गहरा गया।
मुजीब का नेटवर्क –
1947 में ढाका पहुँचने के बाद मुजीब ऐसे युवाओं के साथ जुड़े जो प्रगतिशील, लेकिन मुस्लिम लीग के भीतर सक्रिय थे। इन नामों में ताजुद्दीन अहमद, शम्सुद्दीन अहमद, शम्सुल हक, अबुल मंसूर अहमद, शौकत अली, मोहम्मद तोहा और ओली अहद जैसे लोग शामिल थे।
आगे चलकर इन सभी के रास्ते अलग हुए, पर 40 के दशक में ये एक ही राजनीतिक मंच के हिस्सेदार थे।
धर्मनिरपेक्ष-सामाजिक दृष्टिकोण –
मुस्लिम लीग के भीतर ही एक ऐसा गुट था जो पूरी तरह से प्रतिक्रियावादी नवाबी राजनीति के खिलाफ और धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी सोच के पक्ष में था।
उदाहरण: 1944 में इन्होंने ढाका के नवाबों द्वारा समर्थित उम्मीदवार के खिलाफ अबुल हाशिम का समर्थन किया, जो प्रगतिशील थे और जीते भी।
मुजीब की आत्मकथा से झलक –
उनकी किताब असमप्तो आत्मजीबोनी से पता चलता है कि छात्र जीवन में वे पूरी तरह से राजनीति में डूब चुके थे।
“बैठकें करता, भाषण देता… पाकिस्तान बनना ज़रूरी था, मुसलमानों को और कुछ नहीं बचा सकता था।”
इस दौर में आजाद अख़बार का असर उनके विचारों पर गहरा था।
पाकिस्तान का सपना (1940 के दशक की दृष्टि) –
उस समय के इन युवाओं के लिए पाकिस्तान का मतलब हिंदू-मुस्लिम अलगाव नहीं, बल्कि सम्मान और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व था।
विभाजन से पहले की बहस – पूर्वी बंगाल के प्रगतिशील मुस्लिम लीग कार्यकर्ता सोच रहे थे कि नए बनने वाले पाकिस्तान में बंगालियों की राजनीतिक हैसियत क्या होगी और उनका सामाजिक-आर्थिक रास्ता कैसा होना चाहिए।
गण आज़ादी लीग (पीपुल्स फ़्रीडम लीग) का उदय – जुलाई 1947 में, लीग के भीतर का एक छोटा वामपंथी धड़ा अलग घोषणापत्र लेकर आया। इसका केंद्रीय तर्क था कि केवल राजनीतिक स्वतंत्रता पर्याप्त नहीं है; असली आज़ादी तभी होगी जब आर्थिक मुक्ति भी हो, जिससे सामाजिक और सांस्कृतिक प्रगति संभव हो सके।
भाषाई पहचान की स्पष्ट घोषणा – घोषणापत्र में यह साफ लिखा था कि:
पूर्वी पाकिस्तान की राज्य भाषा बंगाली होगी।
शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होगा।
"बंगाली हमारी मातृभाषा है" — यह कथन केवल बंगालियों के लिए था, न कि पूरे पाकिस्तान के लिए।
बदरुद्दीन उमर का विश्लेषण – बदरुद्दीन उमर ने अपनी तीन-खंडों वाली शोधकृति "पूर्वी बंगाल भाषा आंदोलन ओ तत्कालिन राजनीति" में कहा कि यह घोषणापत्र सिर्फ पूर्वी बंगाल पर केंद्रित था और इसमें प्रयुक्त "हमारा" शब्द का मतलब केवल बंगाली जनता थी।
संघीय ढाँचे की कल्पना – अगस्त 1947 से पहले ही कुछ बंगाली नेता अपने प्रांत को स्वायत्त मानते थे। उनकी कल्पना में पूर्वी बंगाल, पाकिस्तान का हिस्सा होते हुए भी, उससे केवल एक ढीले संघीय ढाँचे में जुड़ा रहेगा।
1947 में पाकिस्तान के गठन के बाद मुस्लिम लीग के जिस गुट ने सत्ता संभाली, उसने एक समावेशी और व्यावहारिक दृष्टि अपनाने के बजाय एक संकीर्ण, केंद्रीकृत और पहचान-आधारित दृष्टिकोण चुना। देश की संरचना ही भौगोलिक रूप से असामान्य थी — पूर्वी पाकिस्तान (आज का बांग्लादेश) और पश्चिमी पाकिस्तान के बीच लगभग 1,600 किलोमीटर का भारतीय भूभाग था।
ऐसी स्थिति में तार्किक रणनीति यह होती कि दोनों हिस्सों को सांस्कृतिक, भाषाई और क्षेत्रीय विविधताओं को मान्यता देकर जोड़ा जाए। लेकिन इसके बजाय, नेतृत्व ने "एकल इस्लामी पहचान" को गढ़ने की कोशिश की और पाकिस्तानियों के "भारतीय" अतीत से जुड़े सभ्यतागत, भाषाई और ऐतिहासिक संबंधों को नकार दिया।
इस एकरूप पहचान थोपने के प्रयास का पहला निशाना भाषा बनी — और वहीं से पूर्वी पाकिस्तान में असंतोष की नींव पड़ी, जो आगे चलकर बांग्लादेश मुक्ति संग्राम का एक बड़ा कारण बनी।
प्रस्ताव और विरोध : 25 फरवरी 1948 — कांग्रेस के नेता धीरेंद्रनाथ दत्ता ने पाकिस्तान की संविधान सभा में प्रस्ताव रखा कि उर्दू के साथ बंगाली को भी आधिकारिक राज्यभाषा बनाया जाए।
इस पर इतना शोर-शराबा हुआ कि दत्ता को बोलने नहीं दिया गया।
पूर्वी पाकिस्तान के कई सदस्य (यहाँ तक कि मुख्यमंत्री ख्वाजा नज़ीमुद्दीन) भी प्रस्ताव के विरोध में थे।
प्रधानमंत्री लियाक़त अली ख़ान ने इसे “उर्दू की एकता की शक्ति पर हमला” बताया और कहा कि उर्दू ही देश के दोनों हिस्सों को “एक साथ” रख सकती है।
2. ढाका में छात्र प्रतिक्रिया
प्रतिक्रिया तुरंत और तीखी थी। छात्रों ने "राष्ट्रभाषा बांग्ला संग्राम परिषद" बनाई।
11 मार्च 1948 — विरोध प्रदर्शन का ऐलान किया। इस दिन शेख मुजीबुर रहमान भी गिरफ्तार हुए, पाँच दिन जेल में रहे — यह पाकिस्तान में उनकी पहली गिरफ्तारी थी।
3. जिन्ना का रुख और टकराव
कुछ दिन बाद गवर्नर जनरल मुहम्मद अली जिन्ना ने ढाका का दौरा कर फिर से साफ कहा — उर्दू ही एकमात्र राज्यभाषा होगी। ढाका विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में जब जिन्ना ने भाषण दिया तो छात्रों ने बीच में “ना, ना” के नारे लगाए।
यह पूर्वी पाकिस्तान में भविष्य के आंदोलनों (विशेषकर 1969 के जन-विद्रोह) में छात्रों की सक्रिय भूमिका का शुरुआती संकेत था।
4. प्रतीकात्मक पल
कहा जाता है कि नारेबाज़ी के बाद जिन्ना कुछ पल खामोश और अचंभित खड़े रहे। शायद उन्हें उम्मीद थी कि बंगालियों से भी वही आज्ञाकारी समर्थन मिलेगा जो केंद्र और प्रांत में मुस्लिम लीग सरकार को मिलता था।
लेकिन बंगालियों के मन में अब पहचान का केंद्र बदल चुका था —
अगस्त 1947 से पहले: "मुसलमान" होना प्रमुख पहचान।
कुछ महीनों बाद: "बंगाली" होना वह पहचान बन गया जिसकी रक्षा करनी थी।
1952 का भाषा आंदोलन