
पुतिन–मोदी मुलाकात से अमेरिका बेचैन, क्या बदलेगा दुनिया का समीकरण?
रूस के राष्ट्रपति पुतिन के भारत दौरे ने वाशिंगटन की चिंता बढ़ाई है। ऊर्जा, व्यापार और सामरिक साझेदारी के संकेतों से अमेरिका भारत की रणनीतिक स्वायत्तता पर और सतर्क हुआ है।
फेडरल ने अपने कंसल्टिंग एडिटर और अंतरराष्ट्रीय मामलों के विश्लेषक के.एस. दक्षिणा मूर्ति से बातचीत की, ताकि समझा जा सके कि रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के हाई-प्रोफाइल भारत दौरे को वाशिंगटन में कैसे पढ़ा जाएगा। उन्होंने इस मुलाकात के भू-राजनीतिक संकेतों, ऊर्जा राजनीति, टैरिफ तनाव और बदले हुए अमेरिका–भारत–रूस समीकरण पर विस्तार से बात की।
मोदी–पुतिन की गर्मजोशी भरी तस्वीरों को अमेरिका कैसे देखेगा?
दक्षिणा मूर्ति के अनुसार, पुतिन का भारत आना और उन्हें मिला गर्मजोशी भरा स्वागत—अमेरिका को बिल्कुल रास नहीं आएगा।अमेरिका लंबे समय से भारत–रूस संबंधों को शंका की निगाह से देखता रहा है। डोनाल्ड ट्रंप द्वारा भारत पर लगाए गए टैरिफ और रूस से तेल खरीद पर की गई सख्ती उसी पुरानी अविश्वास की पृष्ठभूमि से आती है।
भारत और रूस के रिश्ते भारत–अमेरिका से कहीं लंबे और गहरे हैं। शीत युद्ध के दौर में जब अमेरिका विरोधी ध्रुव पर था, सोवियत संघ भारत के साथ खड़ा था। ऐसे में इस तरह का शिखर सम्मेलन वाशिंगटन में कई लोगों को असहज करता है—खासकर वे लॉबी समूह, जो भारत के प्रति थोड़े संशयपूर्ण रहते हैं।
ट्रंप भले ही व्यक्तिगत स्तर पर मोदी के प्रति गर्मजोशी दिखाएं, लेकिन उनकी नीतियां भारत के लिए कठिन रही हैं।इसलिए पुतिन का भारत में इस तरह स्वागत—अमेरिका में संदेह और नाराजगी दोनों ही पैदा करेगा। रूसी ईंधन को लेकर अमेरिकी “दोहरापन” पर पुतिन की टिप्पणी को वाशिंगटन कैसे लेगा?
पुतिन ने एक इंटरव्यू में पश्चिमी देशों की रूस के तेल को लेकर दोहरी नीति पर खुलकर बात की। हालांकि दुनिया पहले से यह जानती है—अमेरिका भी, यूरोप भी—लेकिन जब पुतिन इस पर सीधे बोलते हैं तो उसका वैश्विक असर बढ़ जाता है।रूसी तेल का बड़ा हिस्सा भारत में रिफाइन होकर यूरोप भेजा जाता है, जो यूरोप के ही हित में है।यूक्रेन युद्ध की शुरुआत में तेल को प्रतिबंधों की सूची में शामिल ही नहीं किया गया था, क्योंकि यूरोप इसे बंद करने की स्थिति में नहीं था।जब रूस पर प्रतिबंध बढ़े और भारत के आयात 2% से बढ़कर करीब 40% तक पहुँच गए, तब यह मामला संवेदनशील हुआ।
भारत अब ट्रंप को दिए गए अपने वादे धीरे-धीरे आयात कम करने पर चल रहा है। अक्टूबर में भारत द्वारा रूस से तेल की खरीद पिछले साल की तुलना में लगभग 30% कम रही। इसलिए अमेरिका के पास वस्तुतः आपत्ति का कोई ठोस आधार नहीं है, सिवाय ‘दिखावे’ (optics) के।
रूस के साथ भारत की ऊर्जा और आर्थिक साझेदारी को अमेरिका कैसे देखेगा?
दक्षिणा मूर्ति के मुताबिक, इस शिखर सम्मेलन ने स्पष्ट संकेत दिया कि भारत रूस के साथ अपनी साझेदारी कम नहीं, बल्कि और गहरी कर रहा है जो अमेरिका और यूरोप की अपेक्षाओं के खिलाफ जाता है। भारत–रूस लॉजिस्टिक पैक्ट इस पूरी प्रक्रिया में बेहद महत्वपूर्ण है। यह रूसी और भारतीय सैन्य कर्मियों को एक-दूसरे की सुविधाओं तक पहुँच देता है और भारत की पहुँच आर्कटिक क्षेत्र तक बढ़ाता है। इस समझौते के दीर्घकालिक सामरिक मायने हैं।
यह संकेत है कि भारत अपनी स्वतंत्र रणनीति अपना रहा है, न कि अमेरिका या यूरोप की पसंद के अनुसार चल रहा है। हालाँकि भारत अमेरिका और यूरोप को नाराज भी नहीं करना चाहता—यही कारण है कि उसने हाल ही में ब्रिटेन के साथ व्यापार समझौता किया और अमेरिका के साथ भी वार्ता जारी रखी है। लेकिन अमेरिका और यूरोप इसे उसी तरह नहीं देखेंगे। इसके परिणामों के लिए भारत को तैयार रहना होगा।
क्या अमेरिका भारत को ‘अविश्वसनीय’ मानेगा या ‘स्वायत्त’?
दक्षिणा मूर्ति कहते हैं दोनों तरह की राय बनी रहेंगी। अमेरिका भारत को अविश्वसनीय भी मानेगा और यह भी समझेगा कि भारत अपनी रणनीतिक स्वायत्तता बना रहा है। भारत QUAD का हिस्सा है—जिसे चीन के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए बनाया गया था। लेकिन साथ ही वह रूस के साथ लॉजिस्टिक समझौता कर रहा है और चीन के साथ भी कामकाजी संबंध बनाए हुए है।
भारत 2030 तक रूस के साथ व्यापार 100 अरब डॉलर तक पहुँचाने का लक्ष्य रखता है जो हमेशा अमेरिका–भारत संबंधों में तनाव का कारण रहेगा।
अमेरिका के लिए इस शिखर सम्मेलन का सबसे बड़ा संदेश क्या है?
इस बैठक से वाशिंगटन को तीन बड़े संकेत मिले रूस उतना अलग-थलग नहीं है, जितना अमेरिका दिखाना चाहता है। पुतिन ने ट्रंप को यूक्रेन संकट समाधान में ‘गुड फेथ’ में काम करने वाला बताया जो अमेरिका में मिश्रित संकेत पैदा करेगा। भारत ने फिर यह स्पष्ट कर दिया कि वह अपनी स्वतंत्र विदेश नीति जारी रखेगा चाहे टैरिफ हों या अमेरिकी दबाव।
रूस ने भारत को निर्बाध ईंधन आपूर्ति का भरोसा दिया है और डॉलर से बाहर एक विशेष मुद्रा व्यवस्था पर भी बातचीत हुई है। ये दोनों बातें अमेरिका के लिए असुविधाजनक संकेत हैं। लेकिन इसके बावजूद नई दिल्ली ने यह साफ कर दिया है कि वह किसी भी एक ब्लॉक से नहीं बंधेगी और अपनी पुरानी रणनीतिक स्वतंत्रता की नीति जारी रखेगी।

