पीटर नवारो कौन हैं? वे भारत और बाकी दुनिया से नाराज़ क्यों हैं?

ट्रम्प के शीर्ष व्यापार सलाहकार को व्यापार घाटे को पाटने के लिए पारस्परिक टैरिफ को बढ़ावा देने के लिए जाना जाता है; उन्हें कमजोरी की किसी भी धारणा के खिलाफ प्रतिरोध का संकेत देने के लिए तैनात किया गया है;

Update: 2025-08-24 18:34 GMT

India America Tariff Tension: हालांकि यह किसी झटके जैसा नहीं था, फिर भी कई भारतीयों को हैरानी हुई जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के प्रमुख व्यापार सलाहकार पीटर नवारो ने अचानक भारत पर निशाना साधना शुरू किया। नवारो लंबे समय से चीन के सबसे मुखर आलोचकों में गिने जाते रहे हैं, पर इस बार उन्होंने बीजिंग पर नरमी दिखाते हुए नई दिल्ली पर सख़्ती बरतने का विकल्प चुना। इस बदलाव ने भारत-अमेरिका व्यापारिक समीकरणों और भू-राजनीतिक रिश्तों में एक नई बहस को जन्म दे दिया है।

18 अगस्त को फ़ाइनेंशियल टाइम्स में लिखे अपने एक लेख में नवारो ने कहा कि भारत रूस से सस्ते दामों पर तेल खरीदकर और उसे उत्पादों के रूप में पुनः निर्यात कर के यूक्रेन के खिलाफ चल रहे युद्ध में मॉस्को को आर्थिक सहारा दे रहा है। उनके शब्दों में, “भारत रूसी तेल का वैश्विक क्लियरिंग हाउस है—वह प्रतिबंधित कच्चे तेल को ऊँचे दाम वाले निर्यात में बदलता है और मॉस्को को वह डॉलर उपलब्ध कराता है जिसकी उसे ज़रूरत है।”

यह बयान ऐसे समय आया जब भारत वैश्विक तेल बाज़ार में अपने बढ़ते प्रभाव को लेकर पहले ही पश्चिमी देशों की आलोचना झेल रहा है। नवारो ने न केवल भारत की रणनीति को ‘तेल मुनाफाखोरी’ बताया बल्कि इसे “क्रेमलिन का लॉन्ड्रोमैट” कहकर व्यंग्य भी किया।

नवारो के बारे में 10 त्वरित तथ्य

ट्रंप के व्यापार सलाहकार और पारस्परिक शुल्कों के कट्टर समर्थक।

चीन से ध्यान हटाकर भारत की आलोचना पर केंद्रित।

भारत को रूसी तेल व्यापार के लिए “क्रेमलिन लॉन्ड्रोमैट” कहा।

मुक्त व्यापार के रिकार्डियन सिद्धांत को अप्रासंगिक करार दिया।

सामान्य पृष्ठभूमि से आए, हार्वर्ड पीएचडी और यूसी के प्रोफेसर।

डेथ बाय चाइना नामक किताब के लेखक, ट्रंप की नीतियों पर गहरा असर।

कभी डेमोक्रेट रहे, बाद में रिपब्लिकन संरक्षणवादी धारा से जुड़े।

6 जनवरी कैपिटल हमले की जांच में सहयोग न करने पर चार महीने जेल।

एलन मस्क के साथ सार्वजनिक विवाद, उन्हें सिर्फ़ असेंबलर कहा।

ट्रंप के विश्वसनीय और विवादास्पद माने जाते हैं।

“क्रेमलिन के लिए लॉन्ड्रोमैट”

लेख प्रकाशित होने के चार दिन बाद, नवारो ने वाशिंगटन में संवाददाताओं से बातचीत की। उन्होंने साफ़ कहा कि 27 अगस्त से लागू होने वाले 25 प्रतिशत अतिरिक्त अमेरिकी टैरिफ से भारत को किसी भी तरह की राहत नहीं मिलेगी। साथ ही, उन्होंने दोहराया कि भारत को रूसी तेल की उतनी ज़रूरत नहीं है जितनी वह आयात कर रहा है। उनके मुताबिक, यह एक तरह की “लाभ-साझाकरण योजना” है जिसमें भारत अपनी ज़रूरत से कहीं ज़्यादा रूसी तेल खरीदकर उसे नए उत्पादों में बदलकर अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में बेच रहा है।

नवारो ने भारत की व्यापार नीतियों को “महाराजा टैरिफ और ऊँची गैर-टैरिफ बाधाएँ” बताया और आरोप लगाया कि भारत चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ “अनावश्यक नज़दीकियाँ” बढ़ा रहा है।

यह बयान भारत के लिए कूटनीतिक रूप से असहज स्थिति लेकर आया। मई 2025 में सीएनएन ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि ट्रंप नवारो को सार्वजनिक मंचों पर “चुनिंदा रूप से” इस्तेमाल करते हैं। रिपोर्ट के अनुसार, “ट्रंप नवारो की मौजूदगी को रणनीतिक नज़र से देखते हैं—वे तब सामने लाए जाते हैं जब किसी कठोर संदेश की ज़रूरत होती है या जब किसी भी तरह की कमजोरी की धारणा को दूर करना होता है।” इस संदर्भ में भारत को लेकर दिया गया नवारो का बयान भी ट्रंप प्रशासन की सुनियोजित रणनीति का हिस्सा माना जा रहा है।

चीन पर नरमी, भारत पर सख़्ती

दिलचस्प बात यह है कि इस बार नवारो ने चीन पर उतनी आक्रामक टिप्पणी नहीं की। उन्होंने पहले ही स्वीकार किया था कि अमेरिका चीन के ख़िलाफ़ सीधे कदम नहीं उठा सकता क्योंकि बीजिंग का उस पर आर्थिक और कूटनीतिक दबाव है। रूस का सबसे बड़ा तेल खरीदार चीन है और भारत उसके बाद आता है।

इस बिंदु पर अमेरिकी वित्त मंत्री स्कॉट बेसेंट का हालिया बयान ध्यान देने योग्य है। 19 अगस्त को उन्होंने कहा कि चीन ने यूक्रेन युद्ध के बाद अपने तेल आयात में केवल मामूली बदलाव किया है—युद्ध से पहले चीन का 13 प्रतिशत तेल आयात रूस से आता था, जो अब 16 प्रतिशत हुआ है। इसके विपरीत, भारत का आयात युद्ध से पहले 1 प्रतिशत से भी कम था, जो अब बढ़कर 42 प्रतिशत हो गया है।

बेसेंट के अनुसार, भारत ने इस रणनीति से 16 अरब डॉलर का अतिरिक्त मुनाफ़ा कमाया है और इसका सीधा लाभ देश के कुछ सबसे धनी परिवारों तक पहुँचा है। यही कारण है कि वॉशिंगटन में भारत को लेकर आलोचना तेज़ हो रही है, जबकि चीन को लेकर अपेक्षाकृत नरमी दिखाई जा रही है।


पीटर नवारो खुद को एक अर्थशास्त्री और नीतिगत विचारक मानते हैं, लेकिन आलोचक उन्हें ‘विचारधारा से प्रेरित संरक्षणवादी’ कहते हैं। मुक्त व्यापार के प्रबल समर्थकों के विपरीत, नवारो का मानना है कि वैश्विक व्यापार का मौजूदा ढांचा अमीर और शक्तिशाली देशों के कुछ गिने-चुने कॉरपोरेट घरानों को फायदा पहुँचाता है, जबकि आम नागरिक, मज़दूर और स्थानीय उद्योग हाशिए पर चले जाते हैं।

रिकार्डियन सिद्धांत की आलोचना

अपने हालिया बयान में भी नवारो ने 19वीं सदी के ब्रिटिश अर्थशास्त्री डेविड रिकार्डो के “तुलनात्मक लाभ” (Comparative Advantage) के सिद्धांत को अप्रासंगिक बताया। उनका कहना है कि यह सिद्धांत तब काम कर सकता था जब व्यापार में सरकारों का हस्तक्षेप न्यूनतम होता और उत्पादन का आधार निष्पक्ष प्रतिस्पर्धा पर टिका होता। लेकिन 21वीं सदी की दुनिया में, जहाँ राज्य-प्रायोजित पूँजीवाद, सब्सिडी और रणनीतिक नियंत्रण मौजूद हैं, वहां रिकार्डो का सिद्धांत लागू नहीं होता।

नवारो के मुताबिक, “आप किसी ऐसे देश से निष्पक्ष व्यापार की उम्मीद नहीं कर सकते जो अपनी मुद्रा को कृत्रिम रूप से नियंत्रित करता है, अपने उद्योगों को सरकारी मदद से खड़ा करता है और श्रमिकों के अधिकारों की अनदेखी करता है।” यह बयान भले ही चीन पर केंद्रित रहा हो, लेकिन हाल के दिनों में भारत को लेकर भी वे इसी तर्क का इस्तेमाल कर रहे हैं।

पारस्परिक शुल्क की वकालत

नवारो का एक और बड़ा विचार है “पारस्परिक शुल्क” (Reciprocal Tariffs)। उनके अनुसार, यदि कोई देश अमेरिका के सामान पर 100 प्रतिशत शुल्क लगाता है, तो अमेरिका को भी उसी देश से आने वाले सामान पर 100 प्रतिशत शुल्क लगाना चाहिए। इस तरह की नीति से वे “संतुलित व्यापार” की अवधारणा को आगे बढ़ाना चाहते हैं। ट्रंप प्रशासन के दौरान इसी सोच ने ‘ट्रेड वॉर’ की नींव रखी थी, विशेषकर चीन और यूरोप के साथ।

साधारण पृष्ठभूमि से वॉशिंगटन तक

पीटर नवारो का जन्म 15 जुलाई 1949 को मैसाचुसेट्स में हुआ। उनके पिता सैक्सोफोन बजाते थे और माँ एक सचिव के तौर पर काम करती थीं। माता-पिता का तलाक़ तब हो गया जब वे सिर्फ़ नौ साल के थे। इसके बाद नवारो अपने छोटे भाई के साथ अपनी माँ के पास रहे और आर्थिक रूप से संघर्षपूर्ण बचपन बिताया।

युवा अवस्था में उन्होंने हार्वर्ड विश्वविद्यालय से सार्वजनिक नीति (Public Policy) में पीएचडी की डिग्री हासिल की। उनका शोध ऊर्जा और औद्योगिक नीति पर केंद्रित था। शिक्षा पूरी करने के बाद वे कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय (UC) इरविन में अर्थशास्त्र और सार्वजनिक नीति पढ़ाने लगे।

अकादमिक करियर और लेखन

शोध और शिक्षण के साथ-साथ नवारो ने लेखन भी जारी रखा। उनकी किताबें मुख्यतः व्यापार, वैश्वीकरण और चीन की औद्योगिक नीतियों पर केंद्रित रहीं। द पॉलिसी गेम (1984), व्हाई एशिया विल डॉमिनेट (2001) और द कमिंग चाइना वॉर (2006) उनकी चर्चित किताबों में से हैं। हालांकि, उन्हें अंतरराष्ट्रीय पहचान डेथ बाय चाइना (2011) से मिली।

इस किताब में उन्होंने तर्क दिया कि चीन ने न केवल अमेरिकी विनिर्माण क्षेत्र को तबाह कर दिया है, बल्कि वह अपने ‘अनुचित’ व्यापारिक तरीकों, सस्ती श्रम शक्ति और नकली उत्पादों के ज़रिए वैश्विक अर्थव्यवस्था को भी अस्थिर कर रहा है। किताब इतनी प्रभावशाली साबित हुई कि ट्रंप प्रशासन की चीन-नीति का वैचारिक आधार बन गई।

राजनीति में शुरुआत

दिलचस्प है कि नवारो ने अपने करियर की शुरुआत एक डेमोक्रेट के तौर पर की थी। 1990 के दशक में उन्होंने सैन डिएगो से डेमोक्रेटिक पार्टी के टिकट पर कई बार चुनाव लड़ा, लेकिन हर बार हार गए। राजनीति में असफल रहने के बाद उन्होंने अपना रुख बदलकर रिपब्लिकन पार्टी और संरक्षणवादी विचारधारा की तरफ़ किया।

यहीं से उनकी मुलाक़ात ट्रंप से हुई और धीरे-धीरे वे ट्रंप के करीबी सलाहकारों में शामिल हो गए। ट्रंप को उनकी स्पष्टवादिता और चीन-विरोधी रुख भाया। 2016 के चुनाव प्रचार के दौरान ही नवारो ने ट्रंप को “मेक अमेरिका ग्रेट अगेन” नारे के आर्थिक तर्क दिए।


ट्रंप प्रशासन में भूमिका

डोनाल्ड ट्रंप ने 2016 के चुनाव में जीत हासिल करने के बाद पीटर नवारो को “नेशनल ट्रेड काउंसिल” का प्रमुख नियुक्त किया। इसके बाद वे व्हाइट हाउस में व्यापार और विनिर्माण नीति मामलों के निदेशक बने। नवारो की सबसे बड़ी भूमिका चीन के खिलाफ “ट्रेड वॉर” को आकार देने में रही।

ट्रंप प्रशासन ने चीनी सामान पर भारी टैरिफ लगाए, जिसे नवारो ने न सिर्फ़ सही ठहराया बल्कि उसे अमेरिकी अर्थव्यवस्था की सुरक्षा के लिए ज़रूरी बताया। उनका मानना था कि “अगर अमेरिका ने अभी कदम नहीं उठाए, तो आने वाले दशक में चीन वैश्विक विनिर्माण, तकनीक और ऊर्जा क्षेत्र में पूरी तरह हावी हो जाएगा।”

भारत को लेकर उनकी भूमिका इतनी कठोर नहीं रही, लेकिन वे लगातार भारत की ‘ट्रेड प्रैक्टिसेज़’ की आलोचना करते रहे। उनका मानना था कि भारत कई अमेरिकी उत्पादों पर ऊँचे शुल्क लगाकर “अमेरिकी कंपनियों के साथ अन्याय” करता है। ट्रंप ने भी कई बार भारत को “टैरिफ किंग” कहा था — इस बयान के पीछे नवारो की सोच मानी जाती है।

विवाद और आलोचनाएँ

नवारो का करियर विवादों से भरा रहा। आलोचकों का कहना है कि उनकी अर्थशास्त्र की समझ “राजनीतिक दृष्टिकोण से प्रेरित” है और वे आंकड़ों का चयन अपनी सुविधानुसार करते हैं। न्यूयॉर्क टाइम्स और वॉशिंगटन पोस्ट जैसी अख़बारों ने उनकी रिपोर्ट्स को “आंशिक और पक्षपाती” बताया।

उनकी किताब डेथ बाय चाइना पर भी कई विशेषज्ञों ने सवाल उठाए। आलोचकों का कहना था कि चीन की चुनौतियों को स्वीकार करने के बावजूद नवारो का समाधान सिर्फ़ “दीवार खड़ी करने” तक सीमित है, जबकि व्यावहारिक रूप से वैश्विक आपूर्ति शृंखला इतनी जटिल है कि अमेरिका अकेले इससे नहीं निकल सकता।

जेल और दंड

ट्रंप प्रशासन के अंतिम महीनों में, जब 2020 का चुनाव परिणाम घोषित हुआ और ट्रंप ने हार स्वीकार करने से इनकार किया, तब नवारो सबसे मुखर समर्थकों में शामिल थे। उन्होंने चुनावी धांधली का आरोप लगाया और कांग्रेस में परिणामों को पलटने की योजना का हिस्सा बने।

बाद में जब संसदीय समिति ने 6 जनवरी 2021 की कैपिटल हिंसा की जांच शुरू की, तो नवारो को समन भेजा गया। लेकिन उन्होंने गवाही देने से इनकार कर दिया। नतीजतन, 2022 में अदालत ने उन्हें “कांग्रेस की अवमानना” का दोषी ठहराया और चार महीने की जेल की सज़ा सुनाई। यह घटना नवारो की राजनीतिक और बौद्धिक छवि पर गहरा धब्बा बन गई।

एलन मस्क विवाद

हाल ही में नवारो का नाम तब फिर सुर्खियों में आया जब उन्होंने टेस्ला और स्पेसएक्स के सीईओ एलन मस्क पर आरोप लगाए। उन्होंने कहा कि “मस्क ने चीनी सरकार से मिलकर काम किया है और उनकी कंपनियाँ अमेरिकी सुरक्षा को खतरे में डाल रही हैं।” मस्क ने पलटवार करते हुए नवारो को “बेईमान और ध्यान खींचने वाला” कहा। इस विवाद ने एक बार फिर नवारो को चर्चा में ला दिया।

भारत के साथ संबंधों पर असर

अब सवाल उठता है कि नवारो के ताज़ा बयान का भारत पर क्या असर होगा। सबसे पहले तो यह साफ है कि भारत-रूस ऊर्जा संबंधों पर पश्चिमी आलोचना नई नहीं है, लेकिन नवारो का हमला अलग किस्म का है। वह सिर्फ़ रूस-यूक्रेन युद्ध तक सीमित नहीं है, बल्कि भारत को “वैश्विक व्यापार व्यवस्था का असंतुलित खिलाड़ी” बताने की कोशिश भी है।

भारत की विदेश नीति “रणनीतिक स्वायत्तता” (Strategic Autonomy) पर आधारित रही है। भारत पश्चिम से जुड़कर भी रूस से अपने ऐतिहासिक संबंध बनाए रखना चाहता है। नवारो की आलोचना इस नीति को सीधे चुनौती देती है।

हालाँकि, यह भी ध्यान रखना होगा कि नवारो अभी औपचारिक सत्ता में नहीं हैं। वे न तो अमेरिकी प्रशासन का हिस्सा हैं और न ही कांग्रेस के किसी प्रभावशाली गुट का। लेकिन, 2024 के चुनाव के बाद यदि ट्रंप सत्ता में लौटते हैं, तो नवारो जैसी आवाज़ें एक बार फिर नीति निर्माण पर असर डाल सकती हैं।

पीटर नवारो का भारत पर ताज़ा हमला भले ही चौंकाने वाला लगे, लेकिन यह उनके व्यापक दृष्टिकोण का हिस्सा है। वे मुक्त व्यापार की पुरानी अवधारणा को खारिज करते हैं और हर देश से “अमेरिका फर्स्ट” की कसौटी पर संतुलन चाहते हैं। चीन को लंबे समय तक अपना सबसे बड़ा लक्ष्य बनाने के बाद अब उन्होंने भारत पर उंगली उठाई है।

भारत-अमेरिका संबंध इस समय रक्षा, तकनीक और ऊर्जा सहयोग पर आधारित हैं। ऐसे में नवारो जैसे संरक्षणवादी विचारकों के बयान दोनों देशों के रिश्तों में अविश्वास का माहौल बना सकते हैं। परंतु यह भी सच है कि भारत की ऊर्जा ज़रूरतें और रणनीतिक हित उसे रूस से अलग नहीं होने देंगे।


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