एआई के पीछे छिपी मजदूरी, ‘ह्यूमैन्स इन द लूप’ ऑस्कर दौड़ में
अरन्या सहाय की फिल्म ‘ह्यूमैन्स इन द लूप’ को स्लोन ग्रांट के बाद ऑस्कर पात्रता मिली। यह एआई के पीछे आदिवासी महिलाओं की छिपी मेहनत और सांस्कृतिक संघर्ष को दिखाती है।
भारतीय फिल्ममेकर अरन्या सहाय की फिल्म ‘ह्यूमैन्स इन द लूप’ को ऑस्कर की आधिकारिक पात्रता मिल गई है। यह उपलब्धि उसे फिल्म इंडिपेंडेंट स्लोन डिस्ट्रीब्यूशन ग्रांट मिलने के बाद हासिल हुई है। यह सम्मान किसी भारतीय इंडी फिल्म के लिए बड़ी उपलब्धि है, जो आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) के पीछे छिपी मानव श्रम की परतों को उजागर करती है।
फिल्म इंडिपेंडेंट और अल्फ्रेड पी. स्लोन फाउंडेशन द्वारा दिया जाने वाला यह ग्रांट उन फिल्मों को समर्थन देता है जो विज्ञान और टेक्नोलॉजी के मुद्दों को गहराई से समझती हैं। इससे पहले The Imitation Game, Hidden Figures, The Man Who Knew Infinity, और Oppenheimer जैसी वैश्विक फिल्मों को यह समर्थन मिल चुका है। इस मान्यता के साथ अरन्या सहाय और निर्माता मथिवानन राजेन्द्रन अब फिल्म इंडिपेंडेंट फेलोज़ बन गए हैं।
झारखंड की आदिवासी महिला की कहानी
174 मिनट लंबी यह फिल्म नेहमा (अभिनेत्री सोनल मधुशंकर) की कहानी को सामने लाती है, जो झारखंड की उराँव जनजाति से संबंध रखती है। वह ‘धुकु’ विवाह (लिव-इन जैसे रिश्ते) में रहने के बाद पति से अलग होकर दो बच्चों के साथ अपने गाँव लौटती है। परिवार चलाने के लिए वह एक छोटे एनोटेशन सेंटर में डेटा-लेबलर की नौकरी करती है।
धीरे-धीरे वह आय बढ़ाने के लिए एक टेक कॉन्ट्रैक्टर द्वारा बनाए गए डेटा-एनोटेशन हब में रिमोट काम भी करती है — जहाँ उसका मुख्य काम होता है एआई सिस्टम को ट्रेन करने वाले इमेज और वीडियो टैग करना।
फिल्म इसी काम के ज़रिए मशीन लर्निंग की रीढ़ बनने वाले छिपे हुए ‘मानवीय श्रम’ को केंद्र में लाती है। सायह की लिखी और निर्देशित यह फिल्म हिंदी और कुरुख (उराँव समुदाय की भाषा) दोनों भाषाओं में संवाद रखती है, जिससे इसका सांस्कृतिक संसार और गहरा होता है।
एआई को आकार देने वाले मानव चयन
5 सितंबर को थिएटरों में रिलीज़ और अब Netflix पर स्ट्रीमिंग, यह फिल्म उस "अदृश्य श्रम" को दिखाती है जो एआई के पीछे मौजूद है — वह कार्यबल जिसके दोहराए जाने वाले, सटीक और नीरस कामों का उल्लेख वैश्विक बातचीतों में शायद ही होता है।
नेहमा की दिनचर्या बताती है कि कैसे जीवन के अनुभवों को कठोर एनोटेशन टेम्पलेट्स में फिट होने पर मजबूर किया जाता है, जिन्हें समुदाय से दूर बैठे डिजाइनर तय करते हैं। यहीं से बड़ा सवाल स्थानीय पारिस्थितिक ज्ञान और एल्गोरिदमिक वर्गीकरण में टकराव का उठता है।
डाटा सेट में किसी कीड़े को “pest” (कीट) कहा जाता है, जबकि नेहमा के क्षेत्र में उसका सांस्कृतिक और पारिस्थितिक अर्थ बिल्कुल अलग होता है। इससे पता चलता है कि एआई अक्सर स्थानीय ज्ञान को मिटा देता है और दुनिया को एकरूप बनाकर देखना चाहता है।
एआई प्रशिक्षण और इंसानी अनुभवों के बीच पुल
फिल्म का शीर्षक “Humans in the Loop” उसी प्रणाली से आता है जिसमें मानव बुद्धि और विशेषज्ञता को एआई के सीखने और निर्णयों में शामिल किया जाता है। यह फिल्म बताती है कि मशीन लर्निंग में पक्षपात (bias) कोई तकनीकी गलती नहीं बल्कि मानव चयन का परिणाम हैडाटासेट में शामिल लोगों के पूर्वाग्रह, मान्यताएँ, छूटे हुए संदर्भ और सांस्कृतिक सीमाएँ तय करती हैं कि एआई दुनिया को कैसे देखेगा। जर्नलिस्ट करिश्मा मेहरोत्रा की लंबी रिपोर्ट “Human Touch” से प्रेरित यह फिल्म श्रम के सूक्ष्म विवरणों को पकड़ती है
फ्लोरोसेंट लाइट वाले कमरे
धीमे कंप्यूटर लक्ष्य पूरा करने का दबाव और भाषाई-सांस्कृतिक अंतर से जूझती महिलाएँ यह उन ग्रामीण, अक्सर महिला डेटा-लेबलर्स की तस्वीर पेश करती है जिनकी मेहनत से एआई बनता है, लेकिन जो दिखाई किसी को नहीं देतीं।
एआई को ‘बच्चे’ की तरह ट्रेन करना — फिल्म का सबसे मार्मिक पक्ष
फिल्म का सबसे दिलचस्प रूपक है — “AI को ट्रेन करना बच्चे को पालने जैसा है। डाटा सेंटर में यही सरल उदाहरण इस्तेमाल होता है आप मशीन को उदाहरण दिखाते हैं, वह सीखती है; उसकी गलतियाँ सुधारते हैं, वह और बेहतर होती है। सायह ने इस रूपक को नेहमा की निजी जिंदगी से जोड़ दिया —एक तरफ वह एल्गोरिद्म को पैटर्न सिखाती है, दूसरी तरफ वह अपनी बेटी के भावनात्मक पैटर्न समझने में संघर्ष करती है। इस रूपक के ज़रिए फिल्म यह बड़ा सवाल उठाती है:अगर एआई बच्चा है, तो उसका ‘माता-पिता’ कौन है? नियम किसके मूल्य तय करेंगे? एआई और सांस्कृतिक मिटावट की राजनीति
फिल्म आगे बढ़ते हुए दिखाती है कि कैसे स्थानीय ज्ञान को “मानक” लेबलों में फिट होने के लिए लगातार दबाव डाला जाता है।एक दृश्य में एक अनजान कीड़े को “pest” टैग न करने पर नेहमा को फटकार मिलती है, क्योंकि उसके समुदाय के अनुसार वह फसल के लिए हानिकारक नहीं है।यह घटना बताती है कि एआई अक्सर स्थानीय, आदिवासी और पारंपरिक ज्ञान को मिटा देता है। फिल्म यह भी दिखाती है कि कैसे डेटासेट नियम, क्लाइंट ब्रीफ और ऑफिस की श्रम-हीन पदानुक्रम सिस्टम में ताकतवर लोगों के नजरिए को एम्बेड कर देते हैं। एआई की “निष्पक्षता” भी उन लोगों द्वारा लिखा गया नियम बन जाती है जो चीज़ों को नाम देते हैं।हालाँकि कभी-कभी फिल्म में कुछ बातें समझाने के लिए सरल रूपक अधिक हो जाते हैं, लेकिन इसकी सिनेमैटोग्राफी, कहानी कहने की शैली और कलाकारों की ईमानदार अदाकारी इसे बेहद प्रभावशाली बनाते हैं।
एआई पर बनी एक सामाजिक फिल्म, सिर्फ टेक फिल्म नहीं
‘ह्यूमैन्स इन द लूप’ सिर्फ एआई पर फिल्म नहीं है, बल्कि यह आदिवासी महिलाओं के श्रम, पहचान, मातृत्व और सांस्कृतिक अस्तित्व की कहानी है। यह बताती है कि किसी भी तरह की बुद्धिमत्ता कृत्रिम हो या मानवीय अपने ‘शिक्षकों’ के निशान अपने भीतर लिए चलती है। यदि वे शिक्षक अदृश्य हों, अनसुने हों या उनके ज्ञान को महत्व न दिया गया हो तो एआई भी उसी अदृश्यता और पूर्वाग्रह को आगे बढ़ाएगा।