बस्तर की जंग भाग-2: कैसे बहुपक्षीय रणनीति से बदली बाजी
'क्लियर और होल्ड' की सामरिक नीति और प्रशासनिक-विकासात्मक शून्य को भरने की कोशिश । पांच भागों की श्रृंखला का दूसरा भाग बस्तर को माओवादियों से मुक्त कराने की रणनीति को उजागर करता है;
लगभग डेढ़ दशक पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा माओवादी उग्रवाद को भारत की सबसे बड़ी आंतरिक सुरक्षा चुनौती करार दिए जाने के बाद 2010 में शुरू किए गए ऑपरेशन ग्रीन हंट के वर्षों बाद अब राज्य की बहुस्तरीय और बहु-एजेंसी सुरक्षा व्यवस्था ने माओवादियों के तथाकथित "मुक्त क्षेत्र" को लगभग पूरी तरह से मुक्त कर दिया है।
सीपीआई (माओवादी) आज अस्तित्व के संकट से जूझ रही है। उनके प्रभाव वाले क्षेत्र तेजी से घटते जा रहे हैं, उनका राजनीतिक कामकाज ठप पड़ गया है, दर्जनों कैडर पिछले दो वर्षों में पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर चुके हैं, और बस्तर से लेकर महाराष्ट्र के पड़ोसी जिले गढ़चिरौली और अन्य राज्यों में हुए सुरक्षा अभियानों में उनके शीर्ष सैन्य और केंद्रीय समिति के सदस्य मारे जा चुके हैं, यह जानकारी हाल में आत्मसमर्पण करने वाले कैडरों, पुलिस और खुफिया अधिकारियों तथा बस्तर व गढ़चिरौली के ग्रामीणों से बातचीत में सामने आई है।
हालांकि यह बदलाव कई बार सुरक्षा बलों को भारी नुकसान झेलने के बाद आया है, सैकड़ों जवान माओवादी हमलों में शहीद हुए हैं, लेकिन पिछले तीन वर्षों में परिस्थितियां निर्णायक रूप से सुरक्षा बलों के पक्ष में जाती दिख रही हैं।
संसाधन और समन्वय में बड़ा इज़ाफ़ा
सुरक्षा बलों के निचले से ऊपरी स्तर तक बातचीत में जो बात बार-बार सामने आती है, वह है माओवादियों पर निर्णायक कार्रवाई करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति में स्पष्ट बदलाव। दिसंबर 2023 से अब तक एक समन्वित रणनीति अपनाई गई है, जो पूर्व की रणनीतियों पर आधारित है:
संसाधनों में इजाफा: केंद्र और राज्य सरकारें नक्सल प्रभावित इलाकों में भारी खर्च करने के साथ-साथ अतिरिक्त संसाधन भी उपलब्ध करा रही हैं। इनमें सुरक्षा बलों में नई भर्तियाँ, बहुआयामी प्रशिक्षण, खुफिया जानकारी जुटाना, आधुनिक हथियारों की खरीद, सूचनादाताओं और आत्मसमर्पण करने वाले माओवादियों के लिए भारी इनाम, और बुनियादी ढांचे का विकास शामिल है।
संस्थाओं के बीच समन्वय: राज्यों की एंटी-नक्सल एजेंसियों, पुलिस बलों, केंद्रीय अर्धसैनिक बलों और अन्य विभागों के बीच समन्वय में उल्लेखनीय सुधार हुआ है।
सिर्फ शीर्ष सशस्त्र माओवादी कैडरों को चिन्हित कर अभियानों में मार गिराना ही सुरक्षा बलों के लिए जरूरी नहीं है, बल्कि हथियारों और गोला-बारूद के भंडारों की बरामदगी और कैडरों को उनके हथियारों सहित आत्मसमर्पण के लिए प्रेरित करना भी एक प्रमुख उद्देश्य बन गया है।
माओवादी आंदोलन को हथियारविहीन करने पर फोकस
एक शीर्ष खुफिया अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया, “फोकस आंदोलन को निरस्त्र करने पर है।”
शीर्ष सशस्त्र कैडरों को चिन्हित कर मारना जितना जरूरी है, उतना ही अहम है हथियारों और गोला-बारूद के भंडारों को जब्त करना और कैडरों को हथियारों समेत आत्मसमर्पण के लिए प्रेरित करना।
गृह मंत्री अमित शाह ने 31 मार्च 2026 तक वामपंथी उग्रवाद को समाप्त करने की समय-सीमा तय की है। हालाँकि, यह समय-सीमा माओवादियों की गहरी पैठ को देखते हुए कुछ हद तक अव्यावहारिक मानी जा रही है, लेकिन सरकार और सुरक्षा एजेंसियां उन्हें फिर से संगठित होने का कोई मौका नहीं देना चाहतीं।
स्थानीय समर्थन में गिरावट
जैसे-जैसे सुरक्षा बल माओवादी क्षेत्रों के केंद्र में नई चौकियाँ खोल रहे हैं — बस्तर व महाराष्ट्र, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, ओडिशा के आसपास — वहां माओवादियों को मिल रहा स्थानीय समर्थन, जो गुरिल्ला रणनीति के लिए जरूरी होता है, तेजी से घट रहा है।
कई पूर्व माओवादी कैडरों के अनुसार, नए कैडरों की भर्ती लगभग रुक गई है। इसी के चलते निचले और मध्य स्तर के कई सशस्त्र माओवादी आत्मसमर्पण कर रहे हैं।
शिविरों की संख्या में कई गुना वृद्धि
बिजापुर के एसपी जितेंद्र यादव ने The Federal को बताया कि पिछले डेढ़ साल में माओवादियों के बचे-खुचे गढ़ों में 20 नए सुरक्षा शिविर (फॉरवर्ड बेस) खोले गए हैं।
एक सुरक्षित शिविर खोलने में सड़क निर्माण, बाड़बंदी, आवासीय क्वार्टर और वार रूम की व्यवस्था जैसी कई जटिल प्रक्रियाएं शामिल होती हैं। शिविरों की यह वृद्धि सुरक्षा बलों को तेज कार्रवाई की क्षमता देती है , जो हाल के अभियानों की खासियत रही है और माओवादियों के लिए अपने प्रभाव वाले गांवों में बैठकें करना मुश्किल बनाती है।
सुरक्षा व्यवस्था के स्थापित होने के बाद अब जो सेवाएं उसके पीछे-पीछे आने लगी हैं, वे हैं , स्वास्थ्य, स्कूल, बैंक और सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) जैसी अन्य बुनियादी सुविधाएं।
एक बार जब सुरक्षा शिविर स्थापित हो जाते हैं, तो वही शिविर प्रशासनिक और विकासात्मक गतिविधियों के केंद्र बन जाते हैं। यहां मोबाइल टावर लगाए जाते हैं, आधार कार्ड बनते हैं, बैंक खाते खोले जाते हैं और ग्रामीणों के अन्य बुनियादी काम भी पूरे होते हैं।
बहुपक्षीय रणनीति
बस्तर रेंज के पुलिस महानिरीक्षक (आईजी) सुंदरराज पाट्टीलिंगम बताते हैं, “अब हम बस्तर क्षेत्र के 70 प्रतिशत हिस्से में प्रभावी रूप से अपनी पकड़ बना चुके हैं, जो एक दशक पहले तक सुरक्षा बलों के लिए ‘नो-गो’ एरिया था। हमारा संचालन अब सौ प्रतिशत क्षेत्रों तक पहुंच चुका है और जल्द ही पूरे क्षेत्र को अपने नियंत्रण में ले आएंगे।”
हां पुलिस स्टेशन या फॉरवर्ड बेस नहीं हैं, वे क्षेत्र हैं, अबूझमाड़ (नारायणपुर जिला), इंद्रावती टाइगर रिज़र्व (बीजापुर), कर्रेगुट्टा हिल्स (बीजापुर और तेलंगाना की सीमा), और महाराष्ट्र से सटे इंद्रावती नदी के किनारे के दूरस्थ इलाके।
खाई को पाटना
2013 तक पुलिस और अर्धसैनिक बलों की मौजूदगी बेहद सीमित थी। लेकिन 2025 तक बस्तर में 300 सुरक्षा शिविर (फॉरवर्ड बेस) और 100 से अधिक पुलिस स्टेशन हैं, जिससे सुरक्षा बलों को व्यापक अभियान बढ़त मिली है। आईजी के अनुसार, “इससे दो फायदे हुए — सुरक्षा के खालीपन को भरा गया और लॉन्च बेस व लक्ष्य के बीच की दूरी घटी।”
दूसरा बड़ा बदलाव मोबाइल टावर नेटवर्क है: आज बस्तर में 800 मोबाइल टावर हैं, जो पूरे क्षेत्र को मोबाइल और इंटरनेट नेटवर्क से जोड़ते हैं — जबकि 10 साल पहले तक यहां नेटवर्क नाम की चीज नहीं थी।
डोर्नापाल-जगरगुंडा-बासागुड़ा जैसी सड़क संपर्क लाइनों या संवेदनशील नारायणपुर-बासागुड़ा-दंतेवाड़ा मार्ग को फिर से चालू कर दिया गया है। इसके साथ ही एक नया राष्ट्रीय राजमार्ग जल्द ही नारायणपुर को गढ़चिरौली से जोड़ेगा, जो अबूझमाड़ की तलहटी से होकर गुजरेगा (मानचित्र में सफेद रेखा से दिखाया गया है)। मानचित्र के बाईं ओर की तस्वीर में नया भोपालपट्टनम पुल दिखाया गया है, जो बस्तर को दक्षिण गढ़चिरौली से जोड़ता है, जबकि दाईं ओर की तस्वीर में नई बनी डोर्नापाल-जगरगुंडा सड़क दर्शाई गई है।
सड़कें और पुल: आज़ादी की राह
पुरानी सड़कें जैसे डोर्नापाल-जगरगुंडा-बासागुड़ा या संवेदनशील नारायणपुर-बासागुड़ा-दंतेवाड़ा को फिर से चालू किया गया है। अब एक नया नेशनल हाईवे नारायणपुर को गढ़चिरौली से जोड़ेगा, जो अबूझमाड़ की पहाड़ियों के पास से गुजरता है। एक ओर भोपालपट्टनम पुल ने बस्तर को दक्षिण गढ़चिरौली से जोड़ दिया है, तो दूसरी ओर डोर्नापाल-जगरगुंडा सड़क तैयार की गई है।
आईजी कहते हैं, “हमने डोर्नापाल-जगरगुंडा-बासागुड़ा जैसी सड़कों को फिर से चालू कर सड़क संपर्क को काफी हद तक बहाल किया है। इसी तरह अबूझमाड़ की तलहटी से होकर नारायणपुर-गढ़चिरौली राष्ट्रीय राजमार्ग बनेगा जो महाराष्ट्र के लहेरी और भामरागढ़ से जुड़ेगा।” साथ ही, बिजली कनेक्टिविटी में भी सुधार हो रहा है। "कनेक्टिविटी ही इस समस्या की सबसे बड़ी दवा है। यह अलगाव को खत्म करता है।"
अब बारी है सेवा देने की
अब जब सुरक्षा ढांचा स्थापित हो गया है, तो अब स्वास्थ्य, शिक्षा, बैंक और सार्वजनिक वितरण प्रणाली जैसी सेवाएं पहुंचनी शुरू हुई हैं। इससे अब बाकी सरकारी विभागों की जिम्मेदारी है कि वे बिना देरी के सेवाएं देने का काम शुरू करें।
जगरगुंडा अब तहसील बन गया है, लेकिन यहां न तहसीलदार है, न राजस्व कर्मचारी। गांव वालों को अब भी अपने बुनियादी कामों के लिए सुकमा जाना पड़ता है। राज्य सरकार को इस मोर्चे पर और मेहनत करनी होगी, क्योंकि बस्तर के आदिवासी आज भी मुख्यधारा से दूर हैं। स्वास्थ्य व्यवस्था लगभग नहीं के बराबर है।
15 साल की कड़ी मेहनत से मिली सफलता
पिछले 15 वर्षों में सुरक्षा बलों को कई बार नुकसान हुआ, कई जवान अपरिचित और कठिन भौगोलिक परिस्थितियों में माओवादी घातक हमलों में मारे गए। लेकिन रणनीति और तैयारी में लगातार सुधार करते हुए अब वे माओवादियों को सीमित करने में सफल रहे हैं।
सुकमा और एक सुदूर गांव पुवर्ती के बीच शुरू हुई यात्री बस सेवा ने स्थानीय लोगों के जीवन को काफी आसान और कुछ हद तक आरामदायक बना दिया है, जो पहले सुकमा पहुंचने के लिए मीलों और कई दिनों तक पैदल चलने को मजबूर थे
नई बस सेवा
आज का ताड़मेतला पहले जैसी सन्नाटा और डरभरी स्थिति से बाहर आ चुका है — इसका श्रेय उस सड़क को जाता है जो इसे एक ओर डोर्नापाल के रास्ते सुकमा और दूसरी ओर जगरगुंडा तहसील मुख्यालय से जोड़ती है।
यहां एक स्थानीय निजी ऑपरेटर को सौंपी गई यात्री बस सेवा ने स्थानीय लोगों का जीवन काफी आसान और कुछ हद तक आरामदायक बना दिया है, जो पहले सुकमा पहुंचने के लिए मीलों तक पैदल चलते थे और कई दिन लग जाते थे।
यह बस हर दिन सुकमा से एक दूरस्थ गांव पुवर्ती तक और वापस चलती है। सरकारी अधिकारियों का कहना है कि इसकी आवृत्ति (फ्रीक्वेंसी) आने वाले समय में और बढ़ाई जाएगी।
बस्तर के कई पूर्व माओवादी-प्रभावित इलाकों के ग्रामीणों से बात करने के बाद जो बात साफ़ झलकती है, वह है उनका माओवादियों से समर्थन का लगातार घटना — जो बदले हुए सुरक्षा परिदृश्य का एक अहम कारण है।
और यदि सब कुछ योजना के मुताबिक चला, तो सुरक्षा अधिकारियों का मानना है कि मार्च 2026 तक वे कम से कम माओवादी आंदोलन को निशस्त्र (disarm) करने में सफल हो जाएंगे, यदि उसे पूरी तरह समाप्त न भी कर सकें।
क्लियर एंड होल्ड रणनीति
बस्तर में माओवादियों के खिलाफ अभियान की सफलता का मूल मंत्र रहा है “क्लियर एंड होल्ड” (साफ़ करो और बनाए रखो) रणनीति। इस रणनीति के तहत सुरक्षा बल लगातार नए इलाकों में आगे बढ़ते गए, हर 5 किलोमीटर की दूरी पर फॉरवर्ड पोस्ट (अग्रिम चौकियाँ) स्थापित की गईं और एक जाल जैसी ग्रिड संरचना तैयार की गई, जो सुरक्षा के साथ-साथ नागरिक प्रशासन के केंद्र के रूप में भी काम करती है।
इस मजबूत सुरक्षा जाल के कारण माओवादी अब उन गलियारों से लगभग पूरी तरह कट गए हैं, जिनका इस्तेमाल वे पहले एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र या एक राज्य से दूसरे राज्य तक बेधड़क आवाजाही के लिए करते थे।
आईजी ने बताया, “आज हमारे पास 70,000 से अधिक सुरक्षा बलों की तैनाती है। इनमें स्थानीय पुलिस के अलावा, मध्य बस्तर में भारत-तिब्बत सीमा पुलिस (ITBP) और सीमा सुरक्षा बल (BSF), उत्तर बस्तर में सशस्त्र सीमा बल (SSB), और दक्षिण बस्तर में केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल (CRPF) शामिल हैं।”
आईजी सुंदरराज पाट्टीलिंगम, जो बस्तर में सुरक्षा अभियानों का समन्वय कर रहे हैं, ने कहा,“प्रशासनिक दृष्टिकोण से हम इन चौकियों के आसपास विकास केंद्र स्थापित कर रहे हैं ताकि सरकारी योजनाएं स्थानीय लोगों तक पहुंचाई जा सकें। इससे हमें ग्रामीणों के साथ विश्वास कायम करने में मदद मिल रही है।”
कभी भय का प्रतीक रही डोर्नापाल-जगरगुंडा सड़क पर अब एक पुल का निर्माण कार्य चल रहा है।
बाहरी दुनिया से जुड़ाव
बस्तर के ऐसे कई ग्रामीण, जो कभी बाहरी दुनिया की एक झलक तक नहीं देख पाए थे और जिन्हें माओवादियों ने यह विश्वास दिला दिया था कि बाहरी दुनिया उनके लिए शोषक है, अब स्वयं उस दुनिया का दूसरा पक्ष देख पा रहे हैं।
एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, "सरकारी कल्याणकारी योजनाओं के लाभ मिलने से ग्रामीणों का नजरिया और सरकार के प्रति रवैया बदलने लगा है।"
कर्रेगुट्टा और अबूझमाड़ ऑपरेशन में सुरक्षा बलों ने 31 और 28 माओवादियों को मार गिराया, जिनमें 29 महिला कैडर थीं। बड़ी मात्रा में हथियार बरामद हुए: SLR, INSAS राइफल, .303, 12 बोर, बैरल ग्रेनेड लॉन्चर और IED में इस्तेमाल होने वाला विस्फोटक।
संघर्ष का आंकड़ा
2001 से अब तक बस्तर में सुरक्षा बलों और माओवादियों के बीच 3,300 से अधिक मुठभेड़ें हुईं, जिनमें 1,323 जवान और 1,503 माओवादी मारे गए। 2001-2015 के बीच सुरक्षा बलों को ज्यादा नुकसान हुआ, जबकि 2015 से माओवादियों को लगातार झटका लगा है।
2016 से मई 2025 तक — 923 माओवादी मारे गए, जिनमें से 400 पिछले 17 महीनों में, जब ऑपरेशन तेज हुआ।
2016 के बाद से बड़ा बदलाव
पिछले 25 वर्षों का डेटा दिखाता है कि माओवादी संघर्ष में कई उतार-चढ़ाव आए, लेकिन 2016 के बाद सुरक्षा बलों का पलड़ा भारी हुआ।
2001 से अब तक 7,000 से ज्यादा माओवादी आत्मसमर्पण कर चुके हैं, जिनमें से करीब 5,400 आत्मसमर्पण 2016 के बाद हुए। इनमें से 800 ने 2024 में और 555 ने 2025 में (मई तक) आत्मसमर्पण किया।
आईजी सुंदरराज पाट्टीलिंगम कहते हैं, “पिछले दो वर्षों में आत्मसमर्पण की गुणवत्ता में सुधार हुआ है — यानी न केवल निचले स्तर के, बल्कि शीर्ष और महत्वपूर्ण कैडर भी हथियार छोड़ रहे हैं।”
सरकार द्वारा आत्मसमर्पण करने वालों को दी जाने वाली सहायता राशि में भी कई गुना वृद्धि की गई है।
आज बस्तर में मोबाइल और इंटरनेट कनेक्टिविटी की भरमार, जबकि 10 साल पहले नेटवर्क की कल्पना भी नहीं थी
आज बस्तर क्षेत्र में लगभग 800 मोबाइल टावर सक्रिय हैं, जो इसके कोने-कोने को मोबाइल और इंटरनेट कनेक्टिविटी से जोड़ते हैं। यह बीते दस वर्षों की तुलना में एक बड़ा बदलाव है — जब यहां के अधिकांश हिस्सों में मोबाइल नेटवर्क पकड़ना भी मुश्किल था।
आज बस्तर क्षेत्र में लगभग 800 मोबाइल टावर सक्रिय हैं, जो इसके कोने-कोने को मोबाइल और इंटरनेट कनेक्टिविटी से जोड़ते हैं। यह स्थिति आज से महज 10 साल पहले की उस हकीकत से एक बड़ा बदलाव है, जब यहां के बड़े हिस्सों में मोबाइल फोन सिग्नल पकड़ना भी संभव नहीं था।
ग़लत गिरफ्तारियां और फ़र्ज़ी मुठभेड़ों पर विवाद
माओवादी कैडरों की गिरफ्तारी को लेकर भी काफी विवाद रहा है। पुलिस का दावा है — और उपलब्ध आंकड़े भी यही दिखाते हैं — कि 2001 से अब तक उन्होंने 13,000 से अधिक माओवादियों को गिरफ्तार किया है, जिनमें से लगभग 6,600 गिरफ्तारी 2016 के बाद हुई हैं।
हालांकि, इन गिरफ्तारियों और कुछ मुठभेड़ों को लेकर स्थानीय नागरिक समाज के कार्यकर्ताओं और आदिवासी नेताओं का कहना है कि इनमें से कई गिरफ्तार या मारे गए लोग माओवादी नहीं, बल्कि आम ग्रामीण थे।
पुलिस इन आरोपों को खारिज करती है।
2012 में सुकमा कलेक्टर एलेक्स पॉल मेनन के अपहरण के बाद राज्य सरकार ने इन गिरफ्तारियों की सत्यता की जांच के लिए एक आयोग गठित किया था। यह आयोग प्रतिबंधित संगठन की शर्तों के तहत कलेक्टर की रिहाई के बदले बनाया गया था। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कई गिरफ्तार लोगों को निर्दोष पाया और उन पर चल रहे मामलों को समाप्त करने की सिफारिश की थी।
हाल ही में पांच वामपंथी दलों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर बस्तर में फर्जी मुठभेड़ों और न्यायेतर हत्याओं (extrajudicial killings) को रोकने की मांग की है।