विधेयकों पर क्या समयसीमा बाध्यकारी है, राष्ट्रपति का SC से 14 सवाल

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट से पूछा है कि क्या राज्यपाल, मंत्रिपरिषद की सलाह मानने के लिए बाध्य है। क्या विधेयकों को मंजूरी देने के लिए समयसीमा की बाध्यता है।;

Update: 2025-05-15 05:15 GMT
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने अनुच्छेद का हवाला देते हुए सुप्रीम कोर्ट से पूछा कि किसी विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों को मंजूरी देने के लिए क्या राज्यपाल या राष्ट्रपति बाध्यकारी है।

तमिलनाडु मामले में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले के एक महीने बाद, जिसमें राष्ट्रपति और राज्यपालों को विधानसभा से पारित विधेयकों को मंजूरी देने की समयसीमा तय करने की बात कही गई थी, अब राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने इस मुद्दे पर खुद सुप्रीम कोर्ट से मार्गदर्शन मांगा है।राष्ट्रपति ने संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी है। यह अनुच्छेद राष्ट्रपति को महत्वपूर्ण कानूनी या सार्वजनिक मामलों में सर्वोच्च न्यायालय से परामर्श लेने का अधिकार देता है।

'क्या राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह मानने को बाध्य'

राष्ट्रपति ने अपने सवाल में पूछा है  जब कोई विधेयक अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है, तो क्या वह मंत्रिपरिषद की सलाह के अनुसार कार्य करने को बाध्य होते हैं? इसके साथ ही राष्ट्रपति ने यह भी जानना चाहा है कि क्या राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों का प्रयोग न्यायिक परीक्षण के अंतर्गत आता है? यानी क्या राज्यपाल द्वारा की गई संवैधानिक व्याख्या या निर्णय अदालत में चुनौती दी जा सकती है? उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 361 का हवाला दिया, जिसमें स्पष्ट किया गया है कि राष्ट्रपति या राज्यपाल अपने कार्यों के लिए किसी अदालत को उत्तरदायी नहीं होते।

1. विधेयक प्राप्त होने पर अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के पास कौन से संवैधानिक विकल्प उपलब्ध हैं?

2. क्या राज्यपाल को ऐसे विधेयकों से निपटने के लिए केवल मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह पर कार्य करना आवश्यक है?

3. क्या अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल का विवेक न्यायिक जांच के अधीन हो सकता है?

4. क्या अनुच्छेद 361 राज्यपाल के अनुच्छेद 200 के तहत निर्णयों को न्यायालय की समीक्षा से पूरी तरह से सुरक्षित करता है? 

5. संविधान में स्पष्ट समय-सीमा के अभाव में, क्या न्यायपालिका राज्यपालों पर विधेयकों पर कार्रवाई करने के लिए समय-सीमा लगा सकती है?

6. क्या अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति के विवेक की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है? 7. क्या संवैधानिक आदेशों के अभाव में राष्ट्रपति न्यायिक रूप से निर्धारित समय-सीमा से बंधे हैं?

8. क्या राज्यपाल द्वारा विधेयक आरक्षित किए जाने पर राष्ट्रपति को अनुच्छेद 143 के तहत सर्वोच्च न्यायालय की राय लेनी चाहिए?

9. क्या विधेयक कानून बनने से पहले राज्यपाल या राष्ट्रपति के फैसलों में अदालतें हस्तक्षेप कर सकती हैं?

10. क्या राष्ट्रपति या राज्यपाल के फैसलों को रद्द करना या प्रतिस्थापित करना अनुच्छेद 142 के तहत स्वीकार्य है? 

11. क्या राज्य विधानसभा द्वारा पारित विधेयक राज्यपाल की सहमति के बिना कानून बन जाता है?

12. क्या संवैधानिक व्याख्या के प्रश्नों को पहले अनुच्छेद 145(3) के तहत संविधान पीठ के पास भेजा जाना चाहिए?

13. क्या अनुच्छेद 142 प्रक्रियात्मक मामलों से आगे बढ़कर मौजूदा कानूनों या संवैधानिक प्रावधानों का खंडन करने वाले फैसलों की अनुमति देता है?

14. क्या केंद्र-राज्य विवादों को अनुच्छेद 131 के बाहर सुलझाया जा सकता है, जो सुप्रीम कोर्ट के विशेष अधिकार क्षेत्र का प्रावधान करता है

राष्ट्रपति ने Article 201 का भी किया जिक्र

एक और अहम सवाल राष्ट्रपति ने अनुच्छेद 201 को लेकर उठाया  जब संविधान में राष्ट्रपति द्वारा विवेकाधीन शक्ति प्रयोग के लिए कोई समयसीमा या प्रक्रिया स्पष्ट नहीं की गई है, तो क्या अदालत के आदेश के जरिए ऐसा तय किया जा सकता है?

तमिलनाडु मामले में सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप

इससे पहले अप्रैल में, सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की पीठ ने तमिलनाडु सरकार और राज्यपाल आर.एन. रवि के बीच विधेयकों को रोके जाने को लेकर उत्पन्न गतिरोध को सुलझाने के लिए अदालत की विशेष शक्तियों का प्रयोग किया था। अदालत ने 10 विधेयकों को मंजूरी न देने को "अवैध और मनमाना" करार दिया था और राष्ट्रपति एवं राज्यपालों को ऐसे विधेयकों को तीन महीने के भीतर मंजूरी देने की समयसीमा तय की थी।सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि संविधानिक मुद्दों पर राष्ट्रपति को अदालत से परामर्श लेना चाहिए।

'नीति नहीं, विधिक मामलों में दें राय'

अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि जहां मामला केवल नीतिगत हो, वहां सुप्रीम कोर्ट अपनी सलाह देने से परहेज़ कर सकता है। लेकिन ऐसे मामलों में, जहां कोई विधेयक संविधान की मूल आत्मा या लोकतांत्रिक सिद्धांतों के विरुद्ध हो, राज्यपाल उसे राष्ट्रपति के पास भेज सकते हैं।

अदालत ने कहा  यदि कोई विधेयक मुख्यतः संविधानिक सिद्धांतों के विरुद्ध होने के आधार पर रोका गया हो, तो कार्यपालिका को चाहिए कि वह इसकी वैधता तय करने का कार्य सुप्रीम कोर्ट को सौंपे।

अनुच्छेद 143 की गैर-बाध्यकारी प्रकृति

सुप्रीम कोर्ट ने माना कि अनुच्छेद 143 के तहत दी गई राय बाध्यकारी नहीं होती, लेकिन यह भी कहा कि इस राय को नजरअंदाज करना तभी उचित हो सकता है जब मामला केवल नीतिगत हो और उसमें कोई विधिक मुद्दा न हो।यदि राष्ट्रपति अदालत की राय के विपरीत बिल को मंजूरी नहीं देते हैं, तो उन्हें ठोस कारण और प्रमाण प्रस्तुत करने होंगे," आदेश में कहा गया।

आगे क्या?

अब यह सुप्रीम कोर्ट के विवेक पर निर्भर करता है कि वह राष्ट्रपति द्वारा उठाए गए इन संवैधानिक प्रश्नों पर विचार के लिए संविधान पीठ का गठन करता है या फिर अपने पहले के दो-जजों की पीठ के फैसले को ही दोहराता है। यह घटनाक्रम ऐसे समय में हुआ है जब देश को नया मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई मिला है, जिन्होंने हाल ही में पद की शपथ ली है। ऐसे में यह देखना रोचक होगा कि सुप्रीम कोर्ट इस संवैधानिक बहस को किस दिशा में ले जाता है, जो भारत के संघीय ढांचे और कार्यपालिका की जवाबदेही को लेकर अत्यंत महत्वपूर्ण है।

Tags:    

Similar News