कैसे ‘श्रम शक्ति नीति’ मज़दूरों को कमजोर करती है और केंद्र को संवैधानिक दायित्वों से बचाती है

नई श्रम नीति का मसौदा केंद्र को मज़दूरों के अधिकारों के नियामक की भूमिका से मुक्त करता है और उद्योग को खुली छूट देता है। तीन-भाग की श्रृंखला का पहला भाग: ‘हिंदू अर्थशास्त्र’

Update: 2025-11-03 04:38 GMT
जब श्रम शक्ति नीति 2025 ‘धर्म’, ‘राजधर्म’ और ‘सभ्यतागत आचार-विचार व मार्गदर्शक सिद्धांतों’ जैसे शब्दों का उपयोग करती है — जो प्राचीन भारतीय ग्रंथों से लिए गए हैं — तो यह वास्तव में राज्य को उसकी संवैधानिक जिम्मेदारियों से और दूर ले जाती है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार स्पष्ट रूप से अर्थव्यवस्था को प्राचीन हिंदू ग्रंथों के बताए रास्ते पर ढालने के मिशन पर है। सत्तारूढ़ दल के लिए यह मायने नहीं रखता कि वे ग्रंथ सदियों पहले लिखे गए थे — कुछ तो लिखे भी नहीं गए थे, बल्कि मौखिक परंपरा से चले आए — और 21वीं सदी में उनकी प्रासंगिकता संदिग्ध है।

चाहे बात श्रम संहिता की हो, संपत्ति वितरण की हो या नीतिगत ढांचे की रचना की — मोदी सरकार ‘हिंदू अर्थशास्त्र’ की दिशा में बढ़ती दिख रही है। यह दृष्टिकोण उस संवैधानिक राज्य से बिल्कुल विपरीत है, जिसे भारत ने 1950 में संविधान लागू करते समय अपनाया था। उदाहरण के लिए, श्रम शक्ति नीति 2025 का झुकाव उन राजतंत्रीय व्यवस्थाओं की ओर है, जिनका वर्णन प्राचीन ग्रंथों में है — जो भारत के संवैधानिक राज्य की भावना और जिम्मेदारियों के बिल्कुल खिलाफ हैं।

फेडरल इस विषय पर तीन-भाग की श्रृंखला प्रस्तुत कर रहा है, जिसमें बीजेपी सरकार के ‘हिंदू अर्थशास्त्र’ की पड़ताल की गई है। पहला भाग इस नई श्रम नीति पर केंद्रित है, जो भारतीय राज्य को उसकी संवैधानिक जिम्मेदारियों से दूर ले जाती है और मज़दूर को अपने हाल पर छोड़ देती है।

‘पवित्र कर्तव्य’

कई लोगों के लिए यह चौंकाने वाला हो सकता है कि श्रम शक्ति नीति 2025 — जो 8 अक्टूबर को जारी की गई राष्ट्रीय श्रम एवं रोजगार नीति का मसौदा है — ‘धर्म’, ‘राजधर्म’ और “सभ्यतागत आचार-विचार और मार्गदर्शक सिद्धांतों” जैसे शब्दों का इस्तेमाल करती है, जो प्राचीन भारतीय ग्रंथों से लिए गए हैं, ताकि भारतीय राज्य की भूमिका को परिभाषित किया जा सके।

यह मसौदा ‘श्रम’, ‘कार्य’ या ‘श्रमिक’ की वैसी परिभाषा नहीं देता जैसी मौजूदा भारतीय कानूनों में दी गई है। यहां तक कि 2019 और 2020 की चार श्रम संहिताएं — जिन्हें अब ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है — भी विभिन्न और जटिल परिभाषाएं देती थीं।

लेकिन नई नीति ‘श्रम’ को केवल “एक पवित्र कर्तव्य और सामाजिक मूल्य” के रूप में परिभाषित करती है, जो “धर्म (नैतिक कर्तव्य) की व्यापक व्यवस्था” का हिस्सा है और मनुस्मृति, याज्ञवल्क्यस्मृति, नारदस्मृति, शुक्रनीति और अर्थशास्त्र जैसे ग्रंथों से “प्रेरणा लेती है”।

अंतिम अनुच्छेद कहता है कि यह “श्रम शासन में एक नए प्रतिमान परिवर्तन (paradigm shift)” को चिह्नित करती है — “नियमन और निरीक्षण से सुविधा और सशक्तिकरण की ओर।”

मसौदा यह जरूर कहता है कि यह “संवैधानिक मूल्यों और चार श्रम संहिताओं पर आधारित” है, लेकिन वास्तविक आधार ‘धर्म’ और प्राचीन ग्रंथों की अवधारणाएं हैं।

यह बात स्पष्ट होती है नीति में दिए गए वर्णनों से, जहां श्रम एवं रोजगार मंत्रालय को “सुविधादाता” (facilitator) के रूप में बताया गया है, जो “अवसर और प्रतिभा के बीच राष्ट्रीय सेतु” के रूप में कार्य करेगा।

सरकार पीछे हट रही है

इसका अर्थ यह है कि श्रम मंत्रालय अपनी मौजूदा “विजन” और “मिशन” से पीछे हट जाएगा, जो वर्तमान में इस प्रकार हैं:

विजन: “मज़दूरों के लिए बेहतर कार्य परिस्थितियां और जीवन की गुणवत्ता प्रदान करना।”

मिशन: “सामाजिक सुरक्षा और कल्याण के लिए नीतियां/कार्यक्रम/योजनाएं/परियोजनाएं बनाना और लागू करना; कार्य की शर्तों, व्यावसायिक स्वास्थ्य और सुरक्षा को नियंत्रित करना; बाल श्रम को समाप्त करना; औद्योगिक संबंधों में सामंजस्य बढ़ाना; श्रम कानूनों के प्रवर्तन को सुनिश्चित करना और रोजगार सेवाओं को बढ़ावा देना।”

श्रम संहिताएँ: कुछ प्रमुख बिंदु

♦ अधिकांश श्रमिकों को सार्वभौमिक न्यूनतम वेतन के दायरे से बाहर रखा गया है।

♦ वेतन को श्रम उत्पादकता से नहीं जोड़ा गया है; “समान कार्य के लिए समान वेतन” के सिद्धांत को मान्यता नहीं दी गई है, और सामान्य परिस्थितियों में कार्य के घंटे 8 से बढ़ाकर 12 कर दिए गए हैं।

♦ करोड़ों प्रवासी, गिग/प्लेटफ़ॉर्म, स्वरोज़गार और घरेलू श्रमिक सामाजिक सुरक्षा कवरेज के पात्र हैं, लेकिन आज तक उनके लिए कोई कोष या योजना नहीं बनाई गई है।

♦ “हायर एंड फायर” (भर्ती और छंटनी) कानून का दायरा बढ़ा दिया गया है — अब यह उन संस्थानों पर भी लागू होगा जिनमें 300 या अधिक कर्मचारी कार्यरत हैं।

♦ नियोक्ताओं को “ठेकेदार” (contractors) के रूप में परिभाषित किया गया है, जिससे वे श्रमिक अधिकारों की जवाबदेही से बच सकते हैं।

केंद्र की भूमिका से पल्ला झाड़ना

यह मसौदा 2019 और 2020 में मंत्रालय द्वारा लाए गए चार “श्रम संहिताओं” (जिन्हें “सुधार” कहा गया है) के कार्यान्वयन की जिम्मेदारी भी राज्यों पर डाल देता है। ये चारों संहिताएँ अभी तक लागू नहीं हुई हैं:

1. वेतन संहिता, 2019 (The Code on Wages, 2019)

2. व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्य स्थितियाँ संहिता, 2020 

3. सामाजिक सुरक्षा संहिता, 2020 (The Code on Social Security, 2020)

4. औद्योगिक संबंध संहिता, 2020 (The Industrial Relations Code, 2020)

इन चारों संहिताओं ने 44 केंद्रीय श्रम कानूनों को समेकित किया है। इनके लागू होते ही राज्य सरकारों के अपने श्रम कानून अप्रभावी हो जाएंगे और उन्हें इन्हीं संहिताओं के अनुरूप कार्य करना पड़ेगा।

श्रमिक अधिकारों का क्षरण

इन संहिताओं के मुख्य बिंदुओं पर नज़र डालने से यह स्पष्ट हो जाता है कि केंद्र सरकार इनकी ज़िम्मेदारी लेने से क्यों बच रही है:

• अधिकांश श्रमिक न्यूनतम वेतन के अधिकार से वंचित रह गए हैं।

कई श्रमिकों को “वर्कर” के रूप में परिभाषित ही नहीं किया गया — जैसे गिग/प्लेटफ़ॉर्म वर्कर, घरेलू श्रमिक आदि — और लाखों अन्य (जैसे पांच या उससे कम श्रमिकों वाले कृषि प्रतिष्ठान, आंगनवाड़ी, आशा और मनरेगा कर्मी) को सूचीबद्ध नहीं किया गया। ये लोग “मानदेय” या वैधानिक न्यूनतम वेतन से कम भुगतान पर काम करते हैं, जबकि वे सरकार के रोल पर हैं।

अगर इनका समावेश किया गया होता, तो इन्हें वैधानिक न्यूनतम वेतन का अधिकार मिल जाता। उदाहरण के लिए — अमेरिका, यूरोपीय संघ और ब्रिटेन ने अपने कानूनों में संशोधन करके गिग वर्करों को “कर्मचारी” या “वर्कर” घोषित किया है ताकि उन्हें न्यूनतम वेतन और अन्य लाभ मिल सकें।

• वेतन को श्रम उत्पादकता से नहीं जोड़ा गया है। “समान कार्य के लिए समान वेतन” को मान्यता नहीं दी गई।

सामान्य स्थिति में कार्य घंटे 8 से बढ़ाकर 12 कर दिए गए हैं। यद्यपि वेतन संहिता इस पर मौन है, लेकिन यह प्रावधान “मसौदा नियमों” के माध्यम से लागू किया गया है, जिन्हें जारी तो किया गया है पर अधिसूचित नहीं।

कार्य समय को “स्प्रेड ओवर टाइम” के नाम पर 16 घंटे तक बढ़ाया जा सकता है — बीच में केवल छोटा सा अंतराल देकर। राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात और उत्तर प्रदेश जैसे कई राज्यों ने इस “स्प्रेड ओवर” प्रावधान को अपनाकर कार्य घंटे 10 से 12 तक बढ़ा दिए हैं।

स्वास्थ्य और सुरक्षा मानकों की सीमा

स्वास्थ्य और सुरक्षा मानकों की सीमा अब उन प्रतिष्ठानों के लिए बढ़ा दी गई है जिनमें बिजली नहीं है — 20 श्रमिकों तक — और जिनमें बिजली है — 40 श्रमिकों तक। पहले यह सीमा क्रमशः 10 और 20 श्रमिकों या उससे अधिक की थी।

• करोड़ों प्रवासी, गिग/प्लेटफ़ॉर्म, स्वरोज़गार और घरेलू श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा कवरेज के लिए पात्र तो बनाया गया है, लेकिन अब तक कोई कोष या योजना लागू नहीं की गई।

• “हायर एंड फायर” कानून (भर्ती और छंटनी संबंधी प्रावधान) का दायरा बढ़ाकर अब यह 300 या उससे अधिक कर्मचारियों वाले संस्थानों पर लागू कर दिया गया है — पहले यह 100 या उससे अधिक पर लागू था।

• स्थायी रोजगार को बढ़ावा देने के बजाय, ठेका प्रणाली (contractualisation) को और मजबूत किया गया है। इसमें एक नई श्रेणी जोड़ी गई है — “फिक्स्ड टर्म एम्प्लॉयमेंट” (Fixed Term Employment या FTE)।

• नियोक्ता की परिभाषा में “ठेकेदार” (contractor) को भी शामिल किया गया है — जिससे नियोक्ता श्रमिक अधिकारों और सुरक्षा से जुड़ी जवाबदेही से बच सकते हैं।

• हड़ताल — जो श्रमिकों की मांगों को मनवाने का अंतिम उपाय होती है — को लगभग प्रतिबंधित कर दिया गया है।

औद्योगिक संबंध संहिता (Industrial Relations Code) में अग्रिम सूचना देने, मध्यस्थता (arbitration) आदि की बात तो है, लेकिन इसमें इतने अधिक “ना करने योग्य” प्रावधान (don’ts) रखे गए हैं कि हड़ताल की कोई वास्तविक गुंजाइश नहीं बचती।

इन शर्तों का उल्लंघन करने पर भारी जुर्माना या कारावास का प्रावधान है।

• सामूहिक सौदेबाज़ी (collective bargaining) को प्रोत्साहित करने की कोई व्यवस्था नहीं की गई है। इसके विपरीत, नियोक्ताओं और ट्रेड यूनियनों के हस्तक्षेप को “अवांछित श्रम व्यवहार” (unfair labour practices) की श्रेणी में रखा गया है।

न्यूनतम वेतन तय करने का कोई प्रयास नहीं

न्यूनतम वेतन निर्धारण को लेकर कोई ठोस प्रयास नहीं हुआ है। गिग वर्करों के लिए एक समिति गठित की गई थी (लेकिन प्रवासी, स्वरोज़गार या घरेलू श्रमिकों के लिए नहीं), जिसने अब तक अपनी रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की।

फरवरी 2025 के बजट में यह घोषणा की गई थी कि “ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर कार्यरत गिग वर्करों” (लगभग 1 करोड़) को आयुष्मान भारत योजना (प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना — PM-JAY) के दायरे में लाया जाएगा, लेकिन इस प्रक्रिया में वर्षों लग जाएंगे। फिलहाल तो पहचान पत्र जारी करने और पंजीकरण में ही काफी समय लगेगा, और वास्तविक सेवाएं तो बाद में शुरू होंगी।

ई-श्रम पोर्टल की नाकामी

प्रवासी श्रमिकों को राशन उपलब्ध कराने के उद्देश्य से 2020 में शुरू किया गया ई-श्रम पोर्टल भी विफल साबित हुआ है। सुप्रीम कोर्ट ने कई बार सरकार को फटकार लगाई। अक्टूबर 2024 में कोर्ट ने कहा, “हमारा धैर्य जवाब दे रहा है,” क्योंकि पोर्टल पर पंजीकृत श्रमिकों को अभी भी राशन नहीं मिल रहा था।

केंद्र ने बाद में वादा किया कि इस पोर्टल के ज़रिए रोजगार के अवसर भी उपलब्ध कराए जाएंगे, लेकिन अब तक यह केवल पंजीकरण और श्रमिकों के कार्यक्षेत्रों (self-declared) की सूची तक ही सीमित है।

सरकार की नीयत पर सवाल इसलिए भी उठे क्योंकि उसने इस साल जून (2 से 13 जून) को जिनेवा में अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) के अधिवेशन में प्लेटफ़ॉर्म वर्करों के अधिकारों से जुड़े वैश्विक समझौते के खिलाफ वोट दिया।

विडंबना यह है कि ये वही असंगठित श्रमिक हैं जो कम वेतन पर काम करते हैं, लेकिन Amazon Flex, BigBasket, BluSmart, Flipkart, Ola, Porter, Swiggy, Uber, Urban Company, Zepto और Zomato जैसी वैश्विक कंपनियों की रीढ़ बने हुए हैं।

श्रमिकों को बाजार के भरोसे छोड़ना

श्रम मंत्रालय की मौजूदा जिम्मेदारियाँ और श्रमिकों का भविष्य अब बाजार (नियोक्ता/उद्योग) के भरोसे छोड़ दिया गया है।

“शुल्क न्याय” (Śulka Nyāya) और “शुक्रनीति” (Sukraniti) का हवाला देते हुए “श्रम शक्ति नीति 2025” स्पष्ट करती है कि उचित वेतन, गरिमा और समानता सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी सरकार की नहीं बल्कि नियोक्ताओं की है।

यह नीति एक स्पष्ट संकेत देती है —श्रमिकों को कि वे अब अपने हाल पर हैं,और उद्योग जगत को कि उन्हें खुली छूट मिली हुई है।

यदि यह सब विरोधाभासी लगे — तो मसौदे की पहली पंक्ति को फिर पढ़िए: “यह नीति श्रमिकों को शक्ति (शक्ति देना) प्रदान करने के लिए बनाई गई है।”

अगला भाग: ‘धर्म’ और प्राचीन भारतीय ग्रंथ आधुनिक श्रमिकों और कार्यस्थलों के लिए क्या अर्थ रखते हैं — इस पर विस्तार से चर्चा।

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