आजादी के बाद पहली बार जातीय जनगणना, सामाजिक बदलाव की ओर ऐतिहासिक कदम

Census 2027: भारत में जातीय जनगणना का निर्णय एक ऐतिहासिक कदम है, जो समाज के विभिन्न वर्गों की वास्तविक स्थिति को उजागर करेगा. इससे सरकार को प्रभावी नीतियां बनाने में मदद मिलेगी.;

Update: 2025-06-16 14:31 GMT

Caste Census 2027: केंद्र सरकार ने जातीय जनगणना को हरी झंडी देते हुए एक ऐतिहासिक कदम उठाया है. यह सिर्फ आंकड़ों की गिनती नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय, प्रतिनिधित्व और नीति-निर्माण की दिशा में एक बड़ा परिवर्तन है. दशकों से चली आ रही मांग अब हकीकत बनने जा रही है. आने वाले वर्षों में यह जनगणना न सिर्फ आंकड़ों का ढांचा बदलेगी, बल्कि भारत की सामाजिक और राजनीतिक तस्वीर भी बदल सकती है.

भारत में जातीय जनगणना की प्रक्रिया 2027 में शुरू होने जा रही है, जो स्वतंत्रता के बाद पहली बार होगी. इसे केंद्र सरकार ने आधिकारिक रूप से अधिसूचित कर दिया है. यह निर्णय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक में लिया गया. केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने इसे 'ऐतिहासिक निर्णय' बताया है.

जनगणना की समयसीमा और प्रक्रिया

जातीय जनगणना की प्रक्रिया दो चरणों में होगी.

1. पहला चरण (अक्टूबर 2026): जम्मू-कश्मीर, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और उत्तर-पूर्वी राज्यों में जनगणना शुरू होगी.

2. दूसरा चरण (मार्च 2027): पूरे देश में जनगणना की प्रक्रिया शुरू होगी, जिसमें जातीय आंकड़े भी शामिल होंगे.

इस बार जनगणना पूरी तरह से डिजिटल होगी, जिसमें नागरिक खुद अपनी जानकारी ऑनलाइन पोर्टल के माध्यम से भर सकेंगे. इसके अलावा मोबाइल एप्लिकेशन और अन्य डिजिटल उपकरणों का इस्तेमाल करके डेटा कलेक्शन की प्रक्रिया को सरल और पारदर्शी बनाया जाएगा.

जातीय जनगणना का महत्व

जातीय जनगणना से प्राप्त आंकड़े सरकार को विभिन्न जातियों की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक स्थिति का मूल्यांकन करने में मदद करेंगे. इससे नीतिगत निर्णयों में सुधार होगा और विभिन्न समुदायों के लिए लक्षित योजनाओं का निर्माण संभव होगा. इसके अलावा, यह पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की समीक्षा और आवश्यकतानुसार समायोजन में सहायक होगा.

विरोध और समर्थन

जातीय जनगणना के पक्ष में कई राजनीतिक दल और सामाजिक संगठन हैं, जो इसे सामाजिक न्याय की दिशा में एक सकारात्मक कदम मानते हैं. वहीं, कुछ लोग इसे समाज में जातिवाद को बढ़ावा देने वाला मानते हैं. हालांकि, सरकार ने गोपनीयता की पूरी गारंटी देते हुए इस प्रक्रिया को पारदर्शी और निष्पक्ष बनाने का आश्वासन दिया है.

समाज को समझने का जरिया है जनगणना

जनगणना का काम जितना सीधा दिखता है, उतना आसान नहीं होता. यह केवल देश में रहने वाले लोगों की संख्या जानने की प्रक्रिया नहीं है, बल्कि इससे हमें देश के सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक हालातों की भी गहराई से जानकारी मिलती है. जनगणना से हमें यह पता चलता है कि देश की कुल आबादी कितनी है, उसमें पुरुष और महिलाएं कितने हैं, साक्षरता दर क्या है, किस धर्म के कितने लोग भारत में रहते हैं, जनसंख्या की वृद्धि दर कितनी है और समाज के अलग-अलग वर्गों की आर्थिक स्थिति कैसी है. यानी यह एक ऐसा माध्यम है, जिससे हम देश के सामाजिक ढांचे को बेहतर तरीके से समझ सकते हैं.

मोदी सरकार ने फैसला किया है कि अब जातिगत आंकड़े भी मुख्य जनगणना के साथ जुटाए जाएंगे. हर जनगणना से पहले केंद्र सरकार सवालों की एक सूची तैयार करती है. यह सवाल अलग-अलग चरणों में पूछे जाते हैं. पहला चरण होता है— घरों की सूची तैयार करना. इसमें घरों की स्थिति और सुविधाओं से जुड़े सवाल पूछे जाते हैं.

2011 की जनगणना में ऐसे करीब 35 सवाल शामिल किए गए थे। जैसे:-

- घर कच्चा है या पक्का, और उसकी हालत कैसी है?

- पीने के पानी की व्यवस्था कैसी है?

- शौचालय है या नहीं, है तो कौन-सा?

- रसोईघर कैसा है और उसमें खाना किस ईंधन से पकता है?

- परिवार किस तरह का वाहन इस्तेमाल करता है?

- घर में टेलीविजन, मोबाइल, कंप्यूटर जैसी सुविधाएं हैं या नहीं?

- इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध है या नहीं?

- परिवार किस तरह का खाना खाता है और कौन-सा अनाज ज्यादा इस्तेमाल करता है?

इन सवालों से सरकार को यह जानने में मदद मिलती है कि लोगों की जीवनशैली, सुविधाएं और जरूरतें कैसी हैं। यही जानकारी आगे चलकर नीति निर्माण और योजनाओं की नींव बनती है.

जातिगत जनगणना का इतिहास

भारत में जनगणना की शुरुआत साल 1881 में हुई थी. पहली बार हुई जनगणना में जातियों के आधार पर आंकड़े भी जुटाए गए और उन्हें सार्वजनिक किया गया. इसके बाद हर 10 साल में जनगणना होती रही और 1931 तक हर बार जातिवार आंकड़े जारी किए जाते रहे.

हालांकि, 1941 की जनगणना में जातिगत आंकड़े इकट्ठे किए तो गए थे. लेकिन वे कभी प्रकाशित नहीं किए गए. आजादी के बाद यानी 1951 से अब तक हर जनगणना में सिर्फ अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) के आंकड़े ही जारी किए गए. लेकिन*ओबीसी (पिछड़ी जातियों) या अन्य जातियों के आंकड़े 1931 के बाद कभी सार्वजनिक नहीं हुए. जब देश आज़ाद हुआ तो 1951 में पहली जनगणना हुई. उसके बाद 2011 तक कुल 7 बार जनगणना हुई.

साल 1990 में जब मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू हुईं तो पिछड़ी जातियों को आरक्षण मिला. लेकिन उसकी बुनियाद भी 1931 की जनगणना पर ही रखी गई थी. उस समय के अनुसार, पिछड़ी जातियों की संख्या देश की कुल आबादी का 52% मानी गई थी. अब कई विशेषज्ञ मानते हैं कि आज के समय में OBC की सही आबादी का कोई ठोस आंकड़ा नहीं है. SC और ST को जो आरक्षण दिया जाता है, वह उनकी जनसंख्या के आधार पर तय होता है. लेकिन OBC आरक्षण अब भी 90 साल पुराने डेटा पर टिका हुआ है.

इसलिए अगर जातिगत जनगणना कराई जाती है तो सरकार के पास एक ठोस और वर्तमान आंकड़ा होगा, जिसके आधार पर नीतियों और आरक्षण की समीक्षा की जा सकेगी इससे यह तय करना आसान होगा कि आरक्षण कम किया जाए, बढ़ाया जाए या फिर सुधार किया जाए.

Tags:    

Similar News