बीजेपी का जोर विपक्ष को ऐतराज, क्या लोकतंत्र की जड़ कमजोर करेगा ONOE
One Nation One Election को जहां एनडीए देश के लिए बेहतर बता रहा है। वहीं विपक्ष का मानना है कि इससे संघवाद की भावना को चोट पहुंचेगी।;
What is One Nation One Election: भारतीय जनता पार्टी (BJP) का एक साथ चुनाव कराने का प्रस्ताव—जिसे ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ कहा जा रहा है—राजनीतिक और सार्वजनिक क्षेत्रों में तीखी बहस का कारण बन गया है। जहां इसके समर्थकों का कहना है कि यह कदम शासन को सुव्यवस्थित करेगा और खर्चों में कटौती करेगा, वहीं आलोचकों का मानना है कि यह भारत की संघीय संरचना और लोकतांत्रिक विविधता को कमजोर कर सकता है।
इस कवायद की लागत
‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ का सबसे बड़ा तर्क चुनावी खर्चों में कमी लाना है। लेकिन इस अभ्यास की प्रशासनिक और लॉजिस्टिक जरूरतें बहुत बड़ी हैं। संसद और राज्य विधानसभाओं के लिए एक साथ चुनाव कराने के लिए 5 करोड़ से अधिक इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (EVM) की जरूरत होगी, जिनमें से हर एक की कीमत लगभग ₹17,700 है। इसके साथ वीजेपीएटी (VVPAT) और अन्य प्रशासनिक खर्चों को जोड़ने पर यह लागत ₹1 लाख करोड़ से अधिक हो सकती है।
विशेषज्ञों का कहना है कि यह एक बार की लागत राजनीतिक दलों द्वारा प्रचार अभियान के दौरान किए गए बड़े खर्चों की भरपाई नहीं कर पाएगी। उदाहरण के लिए, बीजेपी ने पिछले आम चुनाव में अकेले ₹10,500 करोड़ खर्च किए, जिसमें से ₹6,000 करोड़ गुमनाम इलेक्टोरल बॉन्ड से प्राप्त हुए—जो अपने आप में एक विवादास्पद मुद्दा है।
क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व और संघवाद के लिए चुनौतियां
इस प्रस्ताव की आलोचना इसलिए हो रही है क्योंकि इससे क्षेत्रीय दलों की आवाज़ कमजोर होने का खतरा है। छोटे, राज्य आधारित राजनीतिक दलों को डर है कि एक साथ चुनावों में राष्ट्रीय मुद्दे प्राथमिकता पा सकते हैं और राज्यों से जुड़े मुद्दे हाशिए पर चले जाएंगे।इसके अलावा, परामर्श प्रक्रिया में भाषाई असमानता विवाद को और बढ़ाती है। हितधारकों के लिए प्रश्नावली केवल हिंदी और अंग्रेजी में उपलब्ध कराई गई, जिससे गैर-हिंदी भाषी क्षेत्रों को अलग-थलग महसूस हुआ। तमिलनाडु जैसे राज्यों में, जहां भाषाई पहचान महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, इसे पक्षपाती और संघ-विरोधी दृष्टिकोण के रूप में देखा गया है।
ऐतिहासिक संदर्भ
एक साथ चुनाव कराने का विचार नया नहीं है। 1952 से 1967 तक भारत में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं (one nation one election during 1962-1967 के चुनाव एक साथ हुए थे। लेकिन राजनीतिक अस्थिरताओं—जैसे राज्य सरकारों का बर्खास्त होना और राज्यों का पुनर्गठन—ने इस प्रणाली को बाधित कर दिया।इसके बाद विधि आयोग और अटल बिहारी वाजपेयी (Atal Bihari Vajpaee) और लालकृष्ण आडवाणी (Lal Krishn Adwani) जैसे नेताओं ने इस विचार को पुनर्जीवित करने की सिफारिश की, लेकिन तत्काल कार्यान्वयन की वकालत नहीं की। बीजेपी का वर्तमान प्रस्ताव इस दिशा में उसकी प्रतिबद्धता में एक बड़ा बदलाव है।
बीजेपी क्यों है इतनी उत्सुक?
बीजेपी के लिए ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ (One Nation One Election Concept)सत्ता को मजबूत करने का अवसर प्रस्तुत करता है। अध्ययन बताते हैं कि एक साथ चुनाव कराने से राष्ट्रीय मुद्दों का प्रभाव बढ़ता है, जो केंद्र में सत्तारूढ़ दल के पक्ष में जा सकता है।इसके अलावा, केंद्रीय चुनाव चक्रों से निरंतर प्रचार अभियान की आवश्यकता कम हो जाएगी, जिससे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) और गृहमंत्री अमित शाह (Amit Shah) जैसे नेताओं को शासन पर ध्यान केंद्रित करने का अवसर मिलेगा। हालांकि, आलोचकों का कहना है कि यह कदम बीजेपी के केंद्रीकरण के व्यापक एजेंडे के साथ मेल खाता है, जिससे राज्यों की स्वायत्तता को खतरा हो सकता है।
भारतीय लोकतंत्र का अगला कदम
यह प्रस्ताव महत्वपूर्ण संवैधानिक और प्रशासनिक चुनौतियों का सामना कर रहा है। प्रमुख संशोधनों के लिए संसद में दो-तिहाई बहुमत और भारत की आधे से अधिक राज्य विधानसभाओं की स्वीकृति की आवश्यकता होगी। चूंकि बीजेपी दोनों सदनों में आवश्यक संख्या से कम है, इसलिए विधेयक का भविष्य विपक्षी समर्थन हासिल करने पर निर्भर करता है—जो मौजूदा राजनीतिक विभाजन को देखते हुए एक कठिन कार्य है।
यह बहस अन्य चुनाव सुधारों पर भी प्रकाश डालती है, जैसे अत्यधिक चुनावी खर्च पर लगाम लगाना और पार्टी वित्तपोषण में पारदर्शिता सुनिश्चित करना। आलोचकों का कहना है कि इन मुद्दों को एक साथ चुनावों जैसे प्रशासनिक परिवर्तनों से अधिक प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
भारतीय लोकतंत्र के लिए एक निर्णायक क्षण
‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ (One Nation One Election News)पर बहस भारत के लोकतांत्रिक ढांचे में केंद्रीकरण और संघवाद के बीच एक व्यापक संघर्ष को दर्शाती है। जहां यह प्रस्ताव प्रशासनिक दक्षता का वादा करता है, वहीं यह क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व, वित्तीय पारदर्शिता और लोकतंत्र की आत्मा पर गंभीर सवाल उठाता है।