महंगा इलाज, अधूरी मदद और दुर्लभ बीमारियों से जूझते मरीज
सरकार की नीतियों और मदद के बावजूद दुर्लभ बीमारियों से जूझ रहे मरीजों और उनके परिवारों को अब भी इलाज, दवाइयों और संसाधनों की भारी कमी का सामना करना पड़ रहा है।;
भारत में हजारों बच्चे और परिवार दुर्लभ बीमारियों (Rare Diseases) से जूझ रहे हैं, जिनका इलाज न सिर्फ मुश्किल बल्कि बेहद महंगा भी है। सरकार की राष्ट्रीय दुर्लभ बीमारी नीति (NPRD) ने कुछ उम्मीद तो दी है लेकिन ज़मीनी सच्चाई इससे काफी अलग है...
नीति है लेकिन इलाज नहीं
सरकार ने 63 दुर्लभ बीमारियों के इलाज के लिए 50 लाख रुपये तक की मदद देने की योजना बनाई है। लेकिन इन बीमारियों का इलाज इतना महंगा है कि यह मदद अक्सर नाकाफी साबित होती है। ज़्यादातर बीमारियां जन्म से जुड़ी होती हैं और बच्चों में शुरुआती उम्र में ही दिखाई देने लगती हैं। लेकिन पहचान में 4 से 8 साल तक लग जाते हैं, जिससे इलाज में देरी और परेशानी बढ़ती है। एक रिपोर्ट के मुताबिक, 30% बच्चे 5 साल की उम्र भी नहीं देख पाते।
इलाज की कीमत करोड़ों में
तमिलनाडु के एक मज़दूर शिवराज का बेटा स्पाइनल मस्कुलर एट्रोफी (SMA) से पीड़ित है। इस बीमारी की दवा ज़ोल्गेन्स्मा भारत में उपलब्ध नहीं है और विदेश में इसकी कीमत 16 करोड़ रुपये है। यह सरकार की सहायता राशि से कहीं अधिक है और आम परिवारों के लिए नामुमकिन।
तमिलनाडु सरकार ने केंद्र से अपील की है कि ऐसी ज़रूरी दवाओं पर कस्टम ड्यूटी और GST हटाया जाए, ताकि विदेश से दवाएं मंगवाना आसान हो सके।
दवाएं हैं, लेकिन मिलती नहीं
डॉक्टर बताते हैं कि कई बीमारियों के इलाज के लिए दवाएं मौजूद हैं, लेकिन वो बाजार में नहीं मिलतीं। इन्हें "ऑर्फन ड्रग्स" कहा जाता है, जिनकी मांग बहुत कम होती है, इसलिए कंपनियां इन्हें बनाना बंद कर देती हैं।
रजिस्टर नहीं, जानकारी अधूरी
भारत में दुर्लभ बीमारियों का कोई राष्ट्रीय रजिस्टर नहीं है, जिससे मरीजों की सही संख्या और उनकी स्थिति का अंदाज़ा लगाना मुश्किल होता है। डॉक्टरों का कहना है कि अगर ऐसा रजिस्टर बनाया जाए, तो जांच, इलाज और दवा वितरण बेहतर तरीके से हो सकेगा।
बजट और मदद दोनों कम
2024-25 के लिए सरकार ने 118 करोड़ रुपये और 2025-26 के लिए 255 करोड़ रुपये का बजट रखा है। जबकि कई बीमारियों के इलाज में अकेले 10 से 16 करोड़ रुपये तक खर्च हो जाते हैं। सरकार ने एक क्राउडफंडिंग पोर्टल शुरू किया है, जिससे आम लोग दान करके मदद कर सकें, लेकिन ये कोशिशें सीमित हैं।
भविष्य की राह
तमिलनाडु में मदुरै और कोयंबटूर में जेनेटिक लैब बनाए जा रहे हैं ताकि नवजात शिशुओं और गर्भवती महिलाओं की समय पर जांच हो सके। डॉक्टर मानते हैं कि समय रहते बीमारी की पहचान होने से इलाज सस्ता और कारगर हो सकता है।
सरकार की नीति ने एक उम्मीद ज़रूर दिखाई है लेकिन इलाज, रिसर्च और दवाओं की उपलब्धता जैसे अहम पहलुओं पर अभी बहुत काम बाकी है। इलाज को गरीबों की पहुंच तक लाने के लिए दवा निर्माण, जांच सुविधा और आर्थिक सहायता को और मज़बूत करना ज़रूरी है।