पानी की सजावटी टंकियां; सजावट तो है, पानी है या नहीं, पता नहीं !

हाल के संसद सत्र में राज्यसभा में आरजेडी के मनोज झा ने एक सर्वे के हवाले से कहा कि देश के चुनाव आयोग पर केवल 28 फ़ीसदी लोगों का भरोसा है और इससे ज्यादा भरोसा तो वेब सीरीज़ 'पंचायत' में दिखाए गए फुलेरा गांव के प्रधान पर है.

Update: 2024-07-07 08:17 GMT

Har Ghar Jal: हाल के संसद सत्र में राज्यसभा में आरजेडी के मनोज झा ने एक सर्वे के हवाले से कहा कि देश के चुनाव आयोग पर केवल 28 फ़ीसदी लोगों का भरोसा है और इससे ज्यादा भरोसा तो वेब सीरीज़ 'पंचायत' में दिखाए गए फुलेरा गांव के प्रधान पर है. उन्होंने यह साफ़ नहीं किया कि वे नीना गुप्ता वाले पात्र की बात कर रहे हैं या उनके पति बने रघुवीर यादव की, क्योंकि वास्तविक प्रधान पत्नी हैं, मगर काम-धाम सब पति देखता है।

फिर भी मनोज झा की बात से 'पंचायत' की लोकप्रियता का पता चलता है. इस वेब सीरीज़ को आप जब भी याद करेंगे तो इसमें दिखाई गई पानी की टंकी को नज़रअंदाज़ नहीं कर पाएंगे. ख्यालों में भी वह आपको वैसे ही सीना ताने खड़ी मिलेगी. पंचायत ऑफ़िस से सौ या डेढ़ सौ मीटर दूर. इसके बिना आप इस कथित फुलेरा गांव की कल्पना भी नहीं कर सकते. यह अलग बात है कि टीवीएफ़ यानी द वायरल फ़ीवर की इस वेब सीरीज़ के अब तक के तीनों सीज़न यह स्पष्ट नहीं कर सके हैं कि यह टंकी कर क्या रही है. वह है क्यों?

यह सवाल इसलिए कि पंचायत ऑफ़िस के सामने हैंडपंप लगा है। सचिव जी जो ऑफ़िस के ही एक हिस्से में रहते हैं, वे उसी हैंडपंप पर नहाते हैं और वहीं से पानी भर कर लाते हैं. इसी तरह प्रधान के घर पर भी हैंडपंप लगा दिखता है. अब अगर पंचायत ऑफ़िस और प्रधान के घर पर ही नल से पानी नहीं आ रहा तो और कहां आता होगा? किसी भी गांव में इनसे ज्यादा महत्वपूर्ण स्थान और क्या हो सकते हैं?

इस वेब सीरीज़ को विभिन्न सरकारी योजनाओं के ही गिर्द बुना गया है. जैसे मनरेगा, प्रधानमंत्री शौचालय योजना, प्रधानमंत्री आवास योजना और परिवार नियोजन वगैरह. यहां तक कि गांव में सौर ऊर्जा के पैनल और सीसीटीवी कैमरे भी लगवाए जाते हैं. लेकिन इसमें हर घर जल या नल से जल पर ध्यान नहीं दिया गया, जबकि पानी की टंकी मौज़ूद है.

यह टंकी नायक और नायिका के लिए एकांत की एक अप्राप्त मंज़िल है. वह सेना में अपने बेटे के शहीद हो जाने के बाद घर में नितांत अकेले रह गए पंचायत के उप-प्रधान के लिए शराब में डूब जाने का पसंदीदा स्थान है, और जब इलाके का बाहुबली विधायक अपने दल-बल के साथ इस गांव के लोगों को धमकाने आता है और हवाई फ़ायर करता है, तब इसी टंकी पर मोर्चा संभाले उप-प्रधान अपनी बंदूक से उसका जवाब देता है. इतनी तरह से इस टंकी का इस्तेमाल हो चुका है, मगर वह नलों के जरिये घरों में पानी पहुंचाने की अपनी मूल भूमिका से वंचित है।

दिलचस्प बात यह कि संसद के इसी सत्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘शोले’ फ़िल्म और उसकी मौसी का ज़िक्र किया. कमाल देखिए कि ‘पंचायत’ और ‘शोले’ में एक ही चीज़ कॉमन है - पानी की टंकी. ‘शोले’ वाली पानी की टंकी को लगभग पांच दशक बाद भी लोग भूले नहीं हैं. नशे में वीरू का बसंती से शादी के लिए टंकी से कूदने की धमकी देने वाला प्रकरण हमारी सामूहिक स्मृति में बहुत गहरे धंसा हुआ है. लेकिन क्या उस फ़िल्म में किसी ने नल से पानी आता देखा? कतई नहीं, बल्कि उसमें तो कुएं थे, जिनसे खींच कर महिलाएं अपने घरों को पानी ले जाती थीं. फिर वह टंकी वहां क्यों थी? केवल वीरू, बसंती और मौसी के लिए?

‘शोले’ की जहां शूटिंग हुई वह स्थान कर्नाटक में है. फ़िल्म की कहानी रामगढ़ नाम के काल्पनिक गांव में चलती है. यह फ़िल्म इतनी बड़ी हिट हुई कि उसके सेट को सहेज कर स्थानीय लोगों ने इस जगह का नाम रामनगरम रख दिया. रेलवे ने वहां इसी नाम का स्टेशन भी बना दिया जहां बेंगलुरु से ट्रेन आती है. बहुत से लोग इस जगह को देखने जाते हैं और वहां के बड़े-बूढ़ों से ‘शोले’ की शूटिंग की कहानियां सुनते हैं. वे देखना चाहते हैं कि ठाकुर का घर कहां था, गब्बर किन टीलों के बीच दहाड़ता फिरता था और सांभा किस चट्टान पर टंगा बैठा रहता था. लोग उन जगहों की तस्वीरें खींचते हैं, वीडियो बनाते हैं. मगर जिस टंकी पर वीरू चढ़ा था वह अब नहीं है. उसी जगह एक छोटी टंकी बना दी गई है जो फ़िल्म वाली टंकी के मुक़ाबले बहुत बौनी है. फिर भी लोग इसे दिलचस्पी से देखते हैं.

ठीक जैसे ‘पंचायत’ में अपने मकसद से दूर होते हुए भी पानी की टंकी गांव की स्काईलाइन का अहम हिस्सा है. आप इस गांव को कहीं से भी देखें, पानी की टंकी के बगैर वह दृश्य पूरा नहीं होगा. देश के किसी भी हाईवे से गुज़रिये या ट्रेन से सफ़र कीजिए, आपको दूर या पास, पानी की अनेक टंकियां दिखाई देंगी. देहाती इलाकों में ये विकास के प्रतीक की हैसियत रखती हैं. लेकिन ज़रूरी नहीं कि ये सब टंकियां सचमुच अपना काम कर रही होंगी. और जहां काम नहीं कर रहीं वहां ये विकास के भ्रम की आकृतियां हैं.

यह भ्रम वहां पैदा होता है जहां टंकी तो बन जाती है, पर उससे घरों तक पानी पहुंचाने का बाकी तामझाम नहीं हो पाता. गांवों या दूरदराज़ के क्षेत्रों में पानी के ट्रीटमेंट की व्यवस्था तो होती नहीं. इसलिए वहां ज़मीन से पानी निकाल कर पंप द्वारा इन टंकियों में चढ़ाया जाता है. फिर किसी निश्चित अवधि में टंकी से आसपास के घरों के नलों में पानी सप्लाई होता है. टंकी में चढ़ाने से पहले भूमिगत पानी में क्लोराइड मिलाया जाता है ताकि उससे किसी तरह के नुक्सान का अंदेशा कमतर हो जाए.

लेकिन, अगर पानी चढ़ाने वाला पंप पर्याप्त क्षमता का नहीं है या खराब हो गया है तो फिर टंकी का क्या होगा? इसी तरह, अगर ज़मीन से पानी खींचने के लिए पाइप आवश्यक गहराई तक नहीं डाला गया है तब भी टंकी बेमतलब हो जाएगी. ऐसे में इलाके के लोगों के लिए स्थिति यह हो जाती है कि काम नहीं कर रही, लेकिन पानी की टंकी हमारे यहां है. वे इस उम्मीद में जीते हैं कि कभी न कभी टंकी का वह इस्तेमाल होने लगेगा जिसके लिए यह बनाई गई है. मगर जब लंबे समय तक वह काम नहीं करती तो किसी स्मारक जैसी लगने लगती है.

अगर इन टंकियों के निरर्थक हो जाने की वजहें पता की जाएं तो बहुत मज़ेदार कहानियां सुनने को मिलेंगी। बिहार के हाजीपुर से पांच-छह किलोमीटर दूर घोसवार के करीब एक गांव में पानी की टंकी सालों से बेकार खड़ी है. वहां जिस ठेकेदार को पाइपलाइन बिछाने का काम दिया गया था, उसने काम पूरा नहीं किया, सो वह निष्प्राण हो गई. पता नहीं कब किसी और ठेकेदार से पाइपलाइन का काम पूरा करवाया जाएगा. अपने देश में किसी सरकारी काम का दोबारा ठेका देना कोई आसान काम थोड़ी है.

और ठेकेदारों का क्या है, कोई ज़्यादा कमीशन मांग ले तब भी वे काम छोड़ कर जा सकते हैं और अगर कमाई कम होती लगे, तब भी. कई बार ठेकेदार इसलिए भी काम छोड़ कर चला जाता है कि पाइपलाइन बिछाने में उसने खुद गलती कर दी. उसे ठीक करना तो पूरे काम को नए सिरे से अंजाम देना है. वह ऐसा क्यों करेगा? वैसे इस बात का भी कोई सर्वे होना चाहिए कि देश में कितनी जगह ठेकेदारों की ठसक के चलते काम अधूरे पड़े हैं. इसमें अफ़सरों की कोताही को शामिल नहीं किया जाए, नहीं तो सर्वे दूषित हो जाएगा.

उत्तर प्रदेश के मऊ ज़िले के बड़रांव में ग्राम पंचायत भीरा में साढ़े तीन साल पहले जल निगम ने पानी की टंकी बनवाई थी. मगर क्योंकि उसके कई तकनीकी काम पूरे नहीं हुए, इसलिए वह आज तक पंचायत को सौंपी नहीं गई. अब वह टंकी निरर्थक खड़ी है जैसे कोई सजावटी वस्तु हो. इस बार की भीषण गर्मी में जब गांव के हैंडपंप भी दगा देने लगे तबसे लोगों को यह टंकी और ज़्यादा खटक रही है. इलाके के किसी नेता और किसी अधिकारी को नहीं मालूम कि टंकी का काम पूरा कब होगा, हालांकि काम पर लगे सब हुए हैं.

बाराबंकी के सूरतगंज ब्लॉक के बसंतापुर गांव में जल जीवन मिशन के तहत दो साल पहले बनी पानी की टंकी गांववालों के लिए भारी राहत लेकर आई थी. मगर नौ महीने पहले इसका पंप ख़राब हो गया और टंकी व्यर्थ हो गई। गांववाले अपने सांसद, विधायक, ज़िला पंचायत अध्यक्ष, कलक्टर और जल निगम के अफ़सरों, गरज ये कि सभी ज़िम्मेदार लोगों को पत्र लिख चुके हैं, मगर पता नहीं किसी ने पत्र पढ़ा या नहीं.

यानी, ‘पंचायत’ की टंकी का बेकार होना कोई अनोखा मामला नहीं है. इसमें गांव का नाम फुलेरा है, लेकिन इसकी शूटिंग मध्य प्रदेश के सीहोर ज़िले के महोदिया गांव में हुई है. कहा नहीं जा सकता कि महोदिया वाले इस टंकी को लेकर क्या सोचते हैं. अब ‘पंचायत’ के चौथे सीज़न की तैयारी चल रही है जो 2026 में रिलीज़ होगा. शायद उसमें इस बात का ख़ुलासा किया जाए कि पानी की टंकी व्यर्थ क्यों खड़ी है? ऐसा नहीं किया जाता तो भी हमें ‘पंचायत’ की टंकी को देश की उन तमाम टंकियों की प्रतिनिधि टंकी मानना चाहिए जो लंबे समय से अपना काम नहीं कर रहीं. आख़िर इस सीरीज़ में जो समस्याएं दिखाई गई हैं वे भी तो हमारे अनगिनत गांवों में मौजूद हैं. वे उन्हीं का तो प्रतिनिधित्व करती हैं.


सरकारी आंकड़ों में इतने घरों तक पहुंचा नल

राज्यसभा में फरवरी 2024 को तात्कालीन केंद्रीय जल शक्ति मंत्रालय के राज्य मंत्री राजीव चन्द्र शेखर द्वारा दिए गए जवाब में ये दावा किया गया था कि अगस्त 2019 में जल जीवन मिशन की शुरुआत में, केवल 3.23 करोड़ (16.8%) ग्रामीण घरों में नल के पानी के कनेक्शन होने की सूचना थी. राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा 30.01.2024 तक दी गई जानकारी के अनुसार, अब तक 10.98 करोड़ से अधिक अतिरिक्त ग्रामीण परिवारों को जल जीवन मिशन के तहत नल के पानी के कनेक्शन उपलब्ध कराए जा चुके हैं. इस प्रकार, 30.01.2024 तक देश के 19.27 करोड़ ग्रामीण परिवारों में से 14.21 करोड़ (73.76%) से अधिक परिवारों के घरों में नल के पानी की आपूर्ति होने की सूचना है.

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